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डॉ. जीवन एस रजक
अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैवकुटुम्बकम् ॥ (महोपनिषद-4/71)अर्थात् ‘’यह मेरा है और वह पराया है, यह संकीर्ण सोच का लक्षण है। उदार दृष्टिकोण वाले लोग संपूर्ण पृथ्वी को अपना परिवार मानते हैं।‘’
भारत की महान ‘हिन्दू संस्कृति का यह विचार भौतिक सीमाओं और भेदभाव से परे जाकर मानवता के लिए समानता, प्रेम और बंधुत्व की प्रेरणा देता है। सामाजिक समरसता का यह संदेश धार्मिक, जातिगत, भाषाई और सांस्कृतिक विविधताओं के बावजूद समाज को एकजुट करता है।
हिन्दुत्व की मूल चेतना ‘एकत्व’ की है। हिन्दू धर्म एक ऐसा दर्शन है, जो संपूर्ण सृष्टि को एक ही चेतना का विस्तार मानता है। ‘’एक सद् विप्रा बहुदा वदन्ति’’ से लेकर ‘’वसुधैव कुटुम्बकम्’’ तक, हिन्दू चिंतन का केन्द्र बिन्दु सदैव समता, करूणा, एकता और सामंजस्य रहा है।
भारतीय संस्कृति के समस्त उपासकों को एक सूत्र में बांधने के लिए ‘’हिन्दू’’ शब्द एकमात्र साधन है। हिन्दुत्व भारतीयता के मूल में है। भारतीय समाज में कितनी भी सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता हो, किन्तु इसका मूल स्वरूप हिन्दुत्व का ही है। भारत में रहने वाला प्रत्येक नागरिक चाहे वह किसी भी धर्म, वर्ण, जाति, समुदाय क्षेत्र या वर्ण का हो, वास्तव में वह हिन्दुत्व का ही अनुसरणकर्ता है।
आसिन्धुसिन्धुपर्यंता यस्य भारतभूमिका।पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः ।।अर्थात् सिंधु नदी से लेकर समुद्र पर्यंत तक की भारत भूमि जिसकी पैतृक संपत्ति और पवित्र भूमि हो, वही हिन्दू है।
हिन्दुत्व के मूल में ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ और सामाजिक समरसता का भाव विद्यमान है। किन्तु जब इस व्यापक, समावेशी दर्शन और आध्यात्मिक एकात्मता पर सामाजिक विभेदीकरण, मानसिक संकीर्णता, जातिगत अहंकार और वर्ण व्यवस्था की कठोर और भ्रामक व्याख्याएं हावी हो जाती हैं, तो हिन्दुत्व का मूल चरित्र दूषित और मूल आत्मा अस्पष्ट होने लगती है।
प्राचीन भारत में सामाजिक गतिशीलता और समाज के सुचारू संचालन के लिए ‘वर्णव्यवस्था’ नियत की गई थी, यह व्यवस्था मूलत: गुण, स्वभाव और कर्म पर आधारित थी और इसका उद्देश्य समाज में कार्यों का योग्यता अनुसार विभाजन और सामाजिक संतुलन था। वर्णव्यवस्था जन्म आधारित श्रेणीकरण नहीं था, इसलिए कर्म के आधार पर इसमें उन्नति और अवनति हो सकती थी। गीता में श्री कृष्ण कहते है-
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्। (श्रीमद्भगवतगीता 4/17)अर्थात- प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे संबंधित कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये हैं। अर्थात वर्ण निर्धारण का आधार जन्म नहीं बल्कि गुण और कर्म था। इसी प्रकार मनुस्मृति में भी कहा गया है-
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम् |क्षत्रियज जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात् तथैव च || (मनुस्मृति 10/65)अर्थात् ‘’श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ कर्मों के अनुसार शूद्र कुल में उत्पन्न बालक ब्राह्मण और ब्राह्मण कुल में उत्पन्न बालक शूद्र हो जाता है। इसी प्रकार क्षत्रिय कुल और वैश्य कुल में उत्पन्न बालक का भी वर्ण परिवर्तन भी समझना चाहिए।‘’ कुल मिलाकर प्राचीन वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर निर्धारित एक सामाजिक संतुलन की उत्तम व्यवस्था थी।
आधुनिक विज्ञान भी स्पष्ट रूप से स्थापित करता है कि, किसी भी जाति में जन्मजात श्रेष्ठता का कोई वैज्ञानिक आधार नही है। सभी मनुष्य समान आनुवांशिक क्षमता के साथ जन्म लेते है। सामाजिक प्रस्थति, पर्यावरण और अवसर किसी व्यक्ति की क्षमता और दिशा को निर्धारित करते है। इसीलिए जातिगत श्रेष्ठता अथवा हीनता वैज्ञानिक रूप से असत्य और सामाजिक रूप से हानिकारक है।
कालांतर में जब वर्ण व्यवस्था ने दूषित होकर जाति व्यवस्था का रूप ले लिया तो हिन्दू समाज में सामाजिक विभेदीकरण और जातिगत वैमनष्य उत्पन्न हो गया, जिसने ‘’हिन्दुत्व एकात्मता’’ और हिन्दू समाज की समरसता को बहुत बुरी तरह से विकृत और विभेदीकृत किया। जिसका सीधा प्रभाव भारत की राष्ट्रीय भावना पर पड़ा, क्योंकि कोई भी राष्ट्र तभी सशक्त हो सकता है, जब उसके समस्त नागरिकों में एकता और समरसता की भावना विद्यमान हो।
आजादी के बाद संवैधानिक रूप से हमारे देश में ‘समानता’ को स्थापित किया गया। सामाजिक समरसता के लिए कानून बनाए गए। किन्तु हमें इस बात की स्वीकार करना पडे़गा कि हजारों वर्षों से चले आ रहे जातिगत विभेदीकरण और जाति आधारित सामाजिक परम्पराओं को कुछ वर्षों में समाप्त नहीं किया जा सकता।
हमारे देश में जातिगत आधार पर जन्म लेने वाले जातिगत संगठन सामाजिक श्रेष्ठता और निम्नता को आधार मानकर समाज में वैमनस्यता की भावना फैलाने का काम लगातार करते रहे है। इससे न केवल हिन्दुत्व की भावना दूषित हुई बल्कि हिन्दू धर्म में जातिगत विभेदीकरण भी पैदा हुआ है। क्योंकि जब कोई संगठन सामाजिक असमानता और उपेक्षा की वास्तविक समस्याओं से इतर जातिगत पहचान को श्रेष्ठता, विरोध या राजनीतिक ध्रुवीकरण का आधार बना लेता है, तब वह समाधान नहीं बल्कि एक नया संघर्ष उत्पन्न करता है। ऐसे संगठन यह संदेश देते हैं कि ‘’हम पहले जाति हैं, बाद में हिन्दू‘’ और यही मानसिकता हिन्दुत्व की बुनियाद को कमजोर करती है। हाल ही मध्यप्रदेश में जातिगत संगठनों की जातिगत टिप्पणियों ने हिन्दू धर्म की मूल भावना और सामाजिक समरसता को दूषित किया है।
वास्तविकता यह है कि हिन्दुत्व का मूल स्वरूप समन्वयकारी और समाधानकारी है, संघर्षकारी नहीं है। यह किसी जाति, क्षेत्र या वर्ग का धर्म नहीं है, बल्कि एक विस्तृत जीवन पद्धति है। जब श्रेष्ठता का अहंकार और पीडि़त होने की अतिशयोक्ति के कारण हिन्दू समाज जाति के आधार पर विभाजित होकर आंतरिक संघर्षों में उलझ जाता है, तो स्वभाविक रूप से उसकी सांस्कृतिक शक्ति, आध्यात्मिक ऊर्जा और सामाजिक एकता प्रभावित होती है, और यह नकारात्मक प्रभाव हिन्दुत्व की आत्मा को कमजोर करता है।
भारत की आध्यात्मिक परम्परा सदैव कहती आई है कि ‘’आत्मा न जाति की होती है, न वर्ण की और न किसी श्रेणी की।‘’ उपनिषद् कहते है-‘’नेति-नेति’’, मैं यह शरीर नही, यह पहचान नहीं। इस तरह यदि आत्मा सर्वत्र समान है, तो जातिगत विभाजन केवल एक अहंकार है। यह अहंकार न व्यक्ति के लिए कल्याणकारी है, न समाज के लिए और न राष्ट्र के लिए।
यह सत्य है, कि भारत की सामाजिक व्यवस्था में हजारों वर्षों से जाति के आधार पर विभेदीकरण और शोषण की प्रवृत्तियां रही हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि बदलते आधुनिक परिवेश में पिछले दो-तीन दशकों में हमारे समाज में जातिवाद की जड़े बहुत कमजोर हुई हैं। समाज की युवा पीढ़ी ने जातिवाद की भावना को नकारा है। ऐसे में विश्वास किया जा सकता है, कि आने वाले समय में बहुत शीघ्र हमारा समाज जातिगत विभेदीकरण के भावना से मुक्त हो जाएगा। ऐसी स्थिति में हमें यह समझना पड़ेगा कि बदलते समाज में जातिगत विभेदीकरण के आधार पर वैमनस्य पैदा करना हिन्दुत्व की मूल भावना को कमजोर करना है।
हिन्दुत्व के सिद्धान्तों को जातिगत द्वेष से विकृत करने वाली मानसिकता हिन्दू समाज के लिए अंत्यत घातक है। यदि हम वास्तव में हिन्दुत्व को उसके दिव्य स्वरूप में पुन: स्थापित करना चाहते हैं, तो हमें ज्ञान, विवेक और आत्म-जागरण से जातिगत पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर सोचना होगा। ‘हिन्दुत्व’ भारतीय जनमानस की जीवन पद्धति है। हिन्दू धर्म की आत्मा उज्जवल, उदार और अत्यंत व्यापक है। जब हिन्दू समाज एक होगा, उसमें सामाजिक समरसता होगी, तभी हिन्दुत्व सुरक्षित और उज्जवल होगा। सामाजिक विभेदीकरण हिन्दुत्व के लिए घातक है। याद रहे समता ही शक्ति है, एकता ही धर्म है और एकात्मता ही सच्चा हिन्दुत्व है।
(लेखक, राज्य सेवा में प्रशासनिक अधिकारी हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी