बिहार विधानसभा चुनाव और राजनीतिक साख का सवाल
मनोज कुमार मिश्र


मनोज कुमार मिश्र

बिहार विधानसभा चुनाव प्रचार के शीर्ष पर पहुंचने से पहले ही राष्ट्रीय जनता दल(राजद) और कांग्रेस की अगुवाई वाला महागठबंधन बिखरने लगा। पहले भाजपा और जनता दल (एकी) की अगुवाई वाले गठबंधन राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) में भी तनातनी हुई लेकिन बड़े नेताओं ने फौरन हस्तक्षेप कर विवाद सुलझा लिया। अब सभी 243 सीटों पर राजग की तरफ से एक-एक उम्मीदवार ही चुनाव मैदान में हैं। इस गठबंधन के दलों का चुनाव प्रचार भी साझा चल रहा है। राजग नीतीश कुमार की अगुवाई में चुनाव लड़ रहा है। भाजपा और जद(एकी) बराबर सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। दूसरी तरफ महागठबंधन के सहयोगी दलों के उम्मीदवार दर्जन भर से ज्यादा सीटों पर आपस में ही लड़ रहे हैं। इतना ही नहीं, तमाम दावों के बावजूद चुनाव प्रचार जोड़ नहीं पकड़ रहा है। हर बार की तरह इस बार भी कई अन्य दलों के उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी चुनाव में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा रही है। वैसे उसके तीन उम्मीदवारों ने नाम वापस लेकर प्रशांत किशोर की परेशानी बढ़ा दी। वे इसके लिए विपक्षी दल पर आरोप लगा रहे हैं।

बिहार के सबसे बड़े लोक महापर्व छठ के तुरंत बाद 06 और 11 नवंबर को मतदान होना है। नतीजे 14 नवंबर को आएंगे। माना जा रहा है कि छठ के लिए बड़ी तादाद में लोग अपने घर आते हैं, उनमें काफी बड़ी संख्या उन लोगों की है जो प्रवासी होने के बावजूद अभी भी बिहार के मतदाता बने हुए हैं। इनके चलते इस बार वोट का औसत बढ़ सकता है। इस बार महागठबंधन के आपसी टकराव और सरकार के सकारात्मक काम से राजग का वोट औसत बढ़ने के आसार हैं।

होना यही चाहिए था कि चुनाव मुद्दों पर लड़े जाएं। संभव है बाकी चुनावों की तरह इस चुनाव में भी कई गलत आरोप लग रहे हैं। हवाई दावे किए जा रहे हैं। भला यह कैसे संभव है कि चौदह करोड़ से ज्यादा मतदाताओं के हर परिवार से एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी दे दी जाए। कुछ लाख परिवारों में सरकारी नौकरी है बाकी सवा दो करोड़ परिवारों से एक-एक सदस्य को सरकारी नौकरी देना संभव ही नहीं। इसके बावजूद राजद नेता तेजस्वी यादव इसकी घोषणा कर चुके हैं। कुछ इसी तरह के भाजपा और राजग के घटक दलों ने भी कई वायदे किए लेकिन उनका उनकी ठोस रणनीति से संबंध है।

चुनाव आयोग की तमाम सख्ती के बावजूद हर चुनाव में धन-बल का भरपूर उपयोग होता है। चुनाव में वोट के लिए पैसे, शराब या सामान बांटने के मामले भी सामने आते रहे हैं। चुनाव आयोग हर चुनाव में भारी मात्रा में नकदी, शराब आदि पकड़ता है और कार्रवाई करता है। राज्यसभा और विधान परिषद की भी सीटें बिकने की खबरें आती है। यह सभी अपने देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में जंग लगने जैसे हैं। कुछ सालों से चुनावी व्यवस्था में और पतन होता जा रहा है। लोकसभा और विधानसभा आदि के टिकट बिकने की खबर आने लगी और बिहार चुनाव में तो सारे रिकार्ड ध्वस्त हो गए। टिकटों की बोली लगने का आरोप लग रहे हैं। अपने दल के विधायक से कई-कई करोड़ रुपए लेने के बाद भी दूसरे से ज्यादा पैसा लेकर टिकट बेचे जाने के दावे किए जा रहे हैं।

राजद से मधुबन से टिकट पाने में असफल रहे मदन साह ने पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के सरकारी घर के बाहर अपने कपड़े फाड़े, दहाड़ मार कर रोते हुए कहा कि उसके 2.70 करोड़ रुपए लौटा दें। इस लेन-देन की होड़ में सारी मर्यादाएं तार-तार हो गई। पैसे की इसी होड़ में सुगौली से महागठबंधन ने अपने विधायक के बजाए सीट वीआईपी को दे दी। आरोप लगा कि कीमत बढ़ा कर फिर अपने विधायक को पकड़ा दिया। इसी उठापटक में उसका नामांकन ही रद्द हो गया। सासाराम से राजद ने अपने मौजूदा विधायक का टिकट काट कर आपराधिक छवि वाले को दे दिया जो झारखंड के गढ़वा में एक डकैती में वांछित था। नामांकन भरते ही उसे झारखंड पुलिस पकड़ कर ले गई।

टिकटों की जैसे मंडी सज गई। टिकट बंटवारे में जो सीट सहयोगी दल को गया, उसके चुनाव चिन्ह पर पैसा लेने वाले बड़े दल के नेता ने टिकट दिलवा दिया। बिहार जैसे गरीब राज्य में टिकटों की इस मंडी में ज्यादातर दल शामिल हुए। कई सीटों पर टिकटों की घोषणा के बावजूद दूसरे को इसलिए टिकट दे दिया गया क्योंकि उसने ज्यादा पैसे दे दिए। कई ऐसी सीट हैं जिसपर सहयोगी दल के चुनाव चिन्ह पर भाजपा, राजद, कांग्रेस, जद(एकी) के मौजूदा विधायक या नेता चुनाव लड़ रहे हैं।

पहले पार्टी समर्थकों के विरोध के चलते टिकट बदले जाते थे या वापस किए जाते थे। अब तो बोली लग कर टिकटों पर फैसला होता है। हर चुनाव की तरह इस चुनाव में भी बड़ी मात्रा में काला धन लग रहा है। पहले चुनाव लड़ने के लिए गिनती के लोग कर्ज लेकर या जमीन आदि बेच कर पैसे लगाते थे। अब तो टिकट पाने के लिए पहले ही सबकुछ दांव पर लगाया गया है। पहले कहा जाता था कि लोग चुनाव लड़ते हैं प्रतिष्ठा पाने और समाज सेवा करने के लिए। आजादी के बाद के कुछ चुनाव छोड़ दें तो वास्तव में तब भी चुनाव में पैसा लगा कर लोग चुनाव जीतने के बाद सबसे पहले पैसा कमाने में ही सारी ताकत लगाते हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कड़ाई से भाजपा में बड़े नेताओं के रिश्तेदारों को कम से कम टिकट मिलता है और भाजपा ने बिहार में भी ऐसा ही किया। बाकी दलों में पैसे की तरह टिकट पाने की दूसरा बड़ा कारण बड़े नेताओं की रिश्तेदारी रही है। लालू प्रसाद यादव के छोटे बेटे तेजस्वी यादव तो उनके उत्तराधिकारी हैं, वे इस बार भी राघोपुर से चुनाव लड़ रहे हैं। पूर्व मंत्री शकुनी चौधरी के पुत्र बिहार के उप मुख्यमंत्री और भाजपा नेता सम्राट चौधरी तारापुर से चुनाव लड़ रहे हैं। दबंग मोहम्मद शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा साहाब (राजद), केन्द्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा की पत्नी स्नेह लता (रालोमो), पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के पुत्र नितीश मिश्र (भाजपा), केन्द्रीय मंत्री जीतन राम मांझी की पुत्रवधू दीपा मांझी (हम), पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की पौत्री जागृति ठाकुर(जनसुराज), पूर्व सांसद गिरिधारी प्रसाद यादव के पुत्र चाणक्य प्रसाद यादव (राजद), सांसद वीणा देवी की पुत्री कोमल सिंह (लोजपा-रा), सांसद लवली आनंद के पुत्र चेतन आनंद (लोजपा-रा), शिवानंद तिवारी के पुत्र राहुल तिवारी (राजद), बाहुबली मुन्ना शुक्ला की पुत्री शिवानी शुक्ला (राजद), बाहुबली सूरजभान सिंह की पत्नी वीणा देवी (राजद), पूर्व सांसद विजय कुमार के पुत्र ऋषि मिश्र (कांग्रेस), नवीन किशोर सिन्हा के पुत्र नितिन नवीन (भाजपा), गंगा प्रसाद चौरसिया के पुत्र संजीव चौरसिया (भाजपा) और विशेश्वर ओझा के पुत्र राकेश ओझा इत्यादि उम्मीदवार हैं। यह सूची काफी लंबी है। यानि कई बड़े दलों के टिकट या तो बाहुबली और उसके परिवार को या पैसे वाले को या किसी बड़े नेता के रिश्तेदार को मिला। पार्टी के लिए दिन रात काम करने वाला आम कार्यकर्ता को अब टिकट मिलना कठिन है। आने वाले चुनाव में यह और कठिन हो जाएगा।

यह माना जा रहा है कि करीब 20 साल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे नीतीश कुमार का यह आखिरी चुनाव है। वे खुद एक मजबूत पिछड़ी जाति से आते हैं। इतने लंबे समय तक सत्ता में रहने पर उन पर एक भी भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे। तमाम विरोध के बावजूद शराबबंदी के उनके फैसले का बड़ी तादाद में गरीब महिलाओं का समर्थन आज भी उन्हें मिल रहा है। उनकी लगातार होती जीत का एक आधार महिलाएं हैं। साल 2005 में जिन बच्चियों को उन्होंने साईकिलें दीं, उनको ही चुनाव आचार संहिता लगने से पहले दस-दस हजार रुपए दिए। लालू यादव के जंगल राज से उलट उनकी छवि सुशासन बाबू की बनी हुई है। कई उल्लेखनीय काम उनके खाते में हैं लेकिन वे बिहार को विकास की दौड़ में शामिल कराने में पूरी तरह से सफल नहीं हो पाए। न ही पलायन रुका और न ही बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर पैदा हुए। केन्द्र सरकार के सहयोग से हर गांव सड़क से जुड़ा। हर गांव में बिजली पहुंची। कई और केन्द्रीय योजनाओं का लाभ बिहार के लोगों को मिला। दरभंगा में एम्स बन रहा है। गंगा नदी पर 10 पुल बने। बोधगया में आईआईएम और ट्रिपल आईटी बना। 38 से ज्यादा इंजीनियरिंग कालेज बने। बिजली के चार कारखाने खुले। केन्द्र सरकार ने बिहार के लिए तीन लाख करोड़ खर्च करके बुनियादी ढांचे को मजबूत किया।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का लाभ इस गठबंधन और खासकर भाजपा को होगा ही। नीतीश कुमार सरकार के राजगीर, नालंदा में हुए काम मील के पत्थर साबित हो रहे हैं। उम्र बढ़ने के कारण उनके स्वास्थ्य पर हो रहे असर से चुनाव में उनके गठबंधन-राजग को कुछ नुकसान हो रहा है। बावजूद इसके चुनाव में राजग का पलड़ा भारी लग रहा है।

(लेखक, जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश