राज्यपाल विधेयकों की विधायी क्षमता की जांच नहीं कर सकते : पश्चिम बंगाल ने सुप्रीम कोर्ट से कहा
नई दिल्ली, 3 सितंबर (हि.स.)। उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान बेंच ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु की ओर से राष्ट्रपति और राज्यपालों के समक्ष विधेयकों को प्रस्तुत करने पर संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत संवैधानिक विकल्पों पर भेजे गए रेफरेंस पर आज
राज्यपाल विधेयकों की विधायी क्षमता की जांच नहीं कर सकते : पश्चिम बंगाल ने सुप्रीम कोर्ट से कहा


नई दिल्ली, 3 सितंबर (हि.स.)। उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान बेंच ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु की ओर से राष्ट्रपति और राज्यपालों के समक्ष विधेयकों को प्रस्तुत करने पर संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत संवैधानिक विकल्पों पर भेजे गए रेफरेंस पर आज सातवें दिन की सुनवाई पूरी कर ली। संविधान बेंच इस मामले पर अगली सुनवाई 9 सितंबर को करेगा।

बुधवार काे सुनवाई के दौरान पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से कहा गया कि राज्यपाल विधेयकों की विधायी क्षमता को नहीं परख सकते। पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि आजादी के बाद से शायद ही ऐसा कोई मौका आया हो जब राष्ट्रपति ने संसद की ओर से पारित किसी विधेयक को जनता की इच्छा के कारण रोका हो। उन्हाेंने कहा कि राज्य विधानमंडल की संप्रभुता भी संसद की संप्रभुता जितनी ही महत्वपूर्ण है। अहम सवाल यह है कि क्या राज्यपाल को इसमें देरी करने की अनुमति दी जानी चाहिए।

सुनवाई के दौरान कर्नाटक सरकार की ओर से वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रमण्यम और हिमाचल प्रदेश की ओर से वकील आनंद शर्मा ने कहा कि संविधान में राज्यपाल के विवेकाधिकार का कोई प्रावधान नहीं है। राज्यपाल को राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह माननी होती है लेकिन राष्ट्रपति को केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह मानना जरुरी नहीं होता है।

उच्चतम न्यायालय ने 2 सितंबर को कहा था कि विधानसभा की ओर से पारित विधेयकों पर सहमति में देरी के कुछ खास मौकों की छोड़कर राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए सहमति की टाइमलाइन तय करने के फैसले को सही नहीं ठहाराया जा सकता है। कोर्ट ने कहा था कि कुछ खास मामलों में पीड़ित पक्ष राहत के लिए कोर्ट आ सकता है और उस परिस्थिति में टाइमलाइन की बात की जा सकती है।

सुनवाई के दौरान वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा था कि राज्यपालों की ओर से जिस तरीके से सहमति देने में देरी के वाकये लगातार दोहराये जा रहे हैं वैसी स्थिति में सहमति के लिए टाइमलाइन तय करना जरुरी है। तब चीफ जस्टिस ने पूछा था कि क्या संविधान के अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों के लिए किया जा सकता है। जस्टिस विक्रम नाथ ने कहा था कि सामान्य रुप से टाइमलाइन तय करने का मतलब संविधान में संशोधन करना होगा क्योंकि अनुच्छेद 200 और 201 में कोई टाइमलाइन का प्रावधान नहीं है।

पहले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा था कि अगर राज्यपाल अनिश्चित काल तक विधेयक को लंबित रखते हैं तो विधायिका मृतप्राय हो जाएगी। कोर्ट ने पूछा था कि तब क्या ऐसी स्थिति में भी कोर्ट शक्तिहीन है।

संविधान बेंच ने 22 जुलाई को केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया था। संविधान बेंच में चीफ जस्टिस के अलावा जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस एएस चंदुरकर और जस्टिस पीएस नरसिम्हा शामिल हैं।

राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से इस मसले पर 14 संवैधानिक प्रश्नों पर राय मांगी है। राष्ट्रपति को किसी भी कानूनी या संवैधानिक मसले पर सुप्रीम कोर्ट की सलाह लेने का अधिकार है।

हिन्दुस्थान समाचार/संजय

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हिन्दुस्थान समाचार / अमरेश द्विवेदी