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--निषेधाज्ञा उल्लंघन के मुकदमे की कार्यवाही रद्द --ट्रायल कोर्ट का सम्मन आदेश और आरोप पत्र भी निरस्त
प्रयागराज, 03 सितम्बर (हि.स.)। उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष अजय राय को इलाहाबाद उच्च न्यायालय से बड़ी राहत मिली है। कोर्ट ने उनके खिलाफ निषेधाज्ञा उल्लंघन मामले में अदालत में चल रही सम्पूर्ण कार्यवाही रद्द कर दी है। कोर्ट ने इस मामले में पुलिस का आरोप पत्र और ट्रायल कोर्ट से जारी सम्मन आदेश भी रद्द कर दिया है।
यह आदेश न्यायमूर्ति समीर जैन ने याचिका पर सुनवाई के बाद दिया। अजय राय व 10 अन्य के खिलाफ 20 सितम्बर 2019 को वाराणसी के कोतवाली थाने में निषेधाज्ञा उल्लंघन का मुकदमा दर्ज किया गया था।
आरोप है कि उन्होंने समर्थकों के साथ जुलूस निकालकर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया, जबकि उस समय जिले में धारा 144 लागू थी। सरकारी आदेश की अवज्ञा पर उनके खिलाफ आईपीसी की धारा 188 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। इस मामले में पुलिस ने जांच के बाद आरोप पत्र दाखिल किया। ट्रायल कोर्ट ने आरोप पत्र पर संज्ञान लेते हुए अजय राय व अन्य को सम्मन जारी कर तलब किया। अजय राय ने सम्मन आदेश और आरोप पत्र व मुकदमे की समस्त कार्यवाही रद्द करने की मांग में यह याचिका की।
उनके वकीलों का कहना था कि याची के खिलाफ राजनीतिक कारणों से मुकदमा दर्ज किया गया है। उस पर झूठे आरोप लगाए गए हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि वह शांतिपूर्वक जुलूस निकाल रहे थे और सिर्फ जुलूस निकालने पर आईपीसी की धारा 188 के तहत अपराध नहीं बनता। यह भी कहा गया की धारा 144 के उल्लंघन मात्र से धारा 188 के तहत मुकदमा नहीं दर्ज हो सकता। इसे लागू करने के लिए आवश्यक है कि याची द्वारा किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न किया गया हो या ऐसा करने का प्रयास किया गया हो या किसी विधिपूर्वक नियोजित व्यक्ति को चोट पहुंचाई गई हो। पुलिस ने जो साक्ष्य एकत्र किए हैं, उससे ऐसे किसी अपराध का खुलासा नहीं होता है। इसके बावजूद पुलिस ने आरोपपत्र दाखिल किया और अदालत ने उस पर संज्ञान ले लिया। याची के अधिवक्ता का कहना था कि सीआरपीसी की धारा 195 (1) ए (1) के अनुसार धारा 188 के अपराध में सिर्फ लोक प्राधिकारी द्वारा लिखित परिवाद पर ही न्यायालय संज्ञान ले सकता है। सीधे पुलिस रिपोर्ट पर संज्ञान नहीं लिया जा सकता। इस मामले में न्यायालय ने सीधे पुलिस रिपोर्ट पर संज्ञान लिया है।
याचिका का विरोध कर रहे अपर महाधिवक्ता मनीष गोयल ने स्वीकार किया कि धारा 188 में सीधे पुलिस रिपोर्ट पर संज्ञान नहीं लिया जा सकता लेकिन उनका कहना था कि सिर्फ ऐसा करने से पुलिस का आरोप पत्र दूषित नहीं होता। यदि आरोप पत्र रद्द किया जाएगा तो पुलिस द्वारा एकत्र साक्ष्य भी स्वतः रद्द मान लिए जाएंगे और इस स्थिति में लोक प्राधिकारी के पास लिखित परिवाद दाखिल करने का विकल्प नहीं होगा।
हाईकोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट ने पुलिस रिपोर्ट पर सीधे संज्ञान लिया है, न की लोक प्राधिकारी के लिखित परिवाद पर। जबकि सीआरपीसी के प्रावधान के अनुसार अदालत सिर्फ लिखित परिवाद पर ही संज्ञान ले सकती है। कोर्ट ने कहा कि यदि आरोप पत्र से किसी अपराध के होने का खुलासा नहीं होता है तो आरोप पत्र भी रद्द किया जा सकता है।
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हिन्दुस्थान समाचार / रामानंद पांडे