Enter your Email Address to subscribe to our newsletters
कोलकाता, 05 अगस्त (हि.स.)। बांग्ला और तथाकथित बांग्लादेशी भाषा को लेकर छिड़े विवाद में अब शिक्षाविदों की भी तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं। इस विषय पर प्रख्यात शिक्षाविद् और प्रेसिडेंसी कॉलेज के पूर्व छात्र, जर्मनी के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के फेलो और पूर्व कुलपति डॉ. प्रदीप नारायण घोष ने अपने विचार व्यक्त किया है।
सोशल मीडिया पर किए गए एक पोस्ट में उन्होंने कहा है कि
बहुत से लोग नहीं जानते कि भाषा का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है, वह देश के नाम पर आधारित नहीं होता। जर्मनी की भाषा जर्मन है, लेकिन ऑस्ट्रिया की भाषा भी जर्मन है, यहां तक कि स्विट्ज़रलैंड के उत्तर भाग में भी वही बोली जाती है। इसी तरह भारत के एक राज्य की भाषा बंगाली है और बांग्लादेश की भी भाषा बंगाली है। ‘बांग्लादेशी भाषा’ नाम की कोई चीज न कभी थी और न ही भविष्य में होगी। भाषाएं किसी दिन अचानक उत्पन्न नहीं हो जातीं।
डॉ. घोष ने आगे लिखा है कि किसी देश के जैसे नाम नहीं बदले जाते, वैसे भाषाओं के भी नाम नहीं बदले जा सकते। भाषा वह माध्यम है, जिसे लोग लंबे समय तक अपनी अभिव्यक्ति के लिए अपनाते हैं। जो व्यक्ति अपने देश के राष्ट्रगान की भाषा तक नहीं जानता, वह न संस्कृत जानता है और न ही बंगाली। अज्ञान होना एक बात है, लेकिन बिना जानकारी के बोलना उससे भी गंभीर दोष है।
डॉ. घोष के इस बयान ने भाषा को लेकर फैलाए जा रहे भ्रम और राजनीतिक बयानबाज़ी पर एक साफ और तार्किक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। भाषा, उनकी दृष्टि में केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान का आधार है।
हिन्दुस्थान समाचार / अनिता राय