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-डॉ. रमेश शर्मा
वर्षों से मौसम परिवर्तन और पर्यावरण संकट को लेकर वैश्विक स्तर पर गहन चिंतन और प्रयास किए जाते रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन, स्थानीय बैठकों, संधियों और प्रस्तावों के अम्बार के बावजूद आज हम उस स्थिति में पहुँच चुके हैं जहां से वापसी की संभावना क्षीण हो चुकी है। अब भविष्य की पीढ़ियों को केवल इस संकट से निपटने की तैयारी सिखाई जा सकती है क्योंकि विकास की यात्रा, उल्टी दिशा में अनवरत जारी है।
हालांकि, अभी भी यह प्रयास किया जा सकता है कि हम इस विनाशकारी गति को यहीं रोकने का साहसिक प्रयास करें। सबसे बड़ी चिंता यह है कि आमजन से लेकर नीति-निर्माता तक, सभी इस पर्यावरणीय आपदा और उसके परिणामों से भली-भांति परिचित हैं, फिर भी सामूहिक रूप से आंखें मूंद रखी हैं मानो खतरा नहीं है, या यह किसी और की जिम्मेदारी है।
यह सोच कि मेरे अकेले के प्रयास से क्या फर्क पड़ेगा? या हिमालय इतना विशाल है, थोड़ा नुकसान चलता है- हमें उस गर्त की ओर ले जा रही है जहां से उबरना असंभव होगा। यह सच है कि हम आधुनिक युग में हैं, लेकिन जिस तेजी से हम प्रकृति के मूल संतुलन को तोड़ रहे हैं, वह हमें उसी आदिकाल की ओर वापस धकेल रहा है सिर्फ और सिर्फ विनाश के साथ।
पौराणिक मान्यता है कि मनु और शतरूपा से मानव सृष्टि का आरंभ हिमाचल में हुआ था। आज वही भूमि रेगिस्तान बनने की आशंका झेल रही है। वर्ष दर वर्ष बादल फटना, बाढ़, भूस्खलन, और बिजली गिरने जैसी आपदाएं बढ़ती जा रही हैं। क्या आने वाले समय में इस क्षेत्र से व्यापक पलायन और विस्थापन की त्रासदी शुरू नहीं हो जाएगी?
हिमालयी क्षेत्र की संपदा केवल पहाड़ों के लिए खतरा नहीं है, बल्कि इससे जुड़े मैदानों का जीवन और भविष्य भी दांव पर है। यदि हालात नहीं बदले, तो यही हिमालय मानव सभ्यता के लिए कब्रगाह बन सकता है। खनन, वनों की अंधाधुंध कटाई, सुरंग और फोरलेन निर्माण, बांधों की भरमार, बहुमंजिला इमारतें- ये सभी तथाकथित विकास की परियोजनाएं अब विनाश का कारण बन रही हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इन सबको सरकारी योजनाओं का संरक्षण और सामाजिक स्वीकृति मिल रही है।
पर्यटन विकास के नाम पर अब हिमाचल प्रदेश के किन्नौर, लाहौल-स्पीति जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में अमीरों को मनोरंजन की खुली छूट दी जा रही है, जहां बुनियादी सुविधाएं तक मौजूद नहीं हैं। धार्मिक स्थलों की शुचिता भी अब भोग-विलास की भेंट चढ़ रही है। यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने हिमाचल में पर्यावरण और आपदा प्रबंधन को लेकर कड़ी टिप्पणी की है। न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि यह केवल प्रशासनिक विफलता नहीं, बल्कि मानवता के अस्तित्व से जुड़ा आपराधिक मामला है। यह स्पष्ट संकेत है कि अब समय टालने का नहीं, ठोस नीति बनाकर उसे समयबद्ध तरीके से लागू करने का है। ऐसी सभी विनाशकारी योजनाओं और परियोजनाओं को रोकने के लिए कानूनी दंड व्यवस्था आवश्यक है। विशेषज्ञों की एक स्वतंत्र समिति बनाकर उसकी रिपोर्ट के अनुसार योजनाओं का मूल्यांकन और कार्यान्वयन सुनिश्चित करना होगा।
अब सरकार की भूमिका केवल मलबा हटाने, शव गिनने और मुआवजा बांटने तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। सरकार को चाहिए कि वह एक विशेषज्ञ कार्यबल गठित करे, जो अल्पकालिक और दीर्घकालिक समाधान सुझाए तथा उनके क्रियान्वयन की निगरानी करे। यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि पर्यावरणीय संकट और जलवायु परिवर्तन मुख्यतः मानव निर्मित हैं, और इनका समाधान भी केवल मानव के पास ही है किसी चमत्कारी शक्ति के पास नहीं।
यह संकट केवल हिमाचल तक सीमित नहीं है, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और समूचा हिमालयी क्षेत्र इसी त्रासदी से गुजर रहा है। ऐसे में पूरे हिमालय क्षेत्र के लिए एक समग्र, ठोस और व्यावहारिक नीति बनाई जानी चाहिए जो प्रकृति और मानव के बीच संतुलन बहाल कर सके। अब वक्त है चेतने का, रुकने का और लौटने का वरना हिमालय की गोद में जीवन की जगह केवल मलबा और मौन बचेगा।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / सुनील शुक्ला