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हरीश शिवनानी
मई के पहले रविवार की सुबह बांसवाड़ा जिले के बागीदौरा के आदिवासी विधायक जयकृष्ण पटेल ने जब बिस्तर छोड़ा होगा तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि आज वो देश में एक नया इतिहास रचने जा रहे हैं। इतिहास उन्होंने रचा लेकिन शर्मनाक। पटेल सुबह-सवेरे बीस लाख रुपये की घूस लेते गिरफ्तार कर लिए गए। पूरे देश मे यह अब तक का पहला मामला है जिसमें कोई विधायक घूस लेते रंगे हाथों गिरफ्तार हुआ हो। पटेल पर आरोप है कि उन्होंने करौली जिले के टोडाभीम क्षेत्र में स्थित एक सोप स्टोन खान के विषय में पूछने के लिए विधानसभा में तीन सवाल लगाए थे। गौरतलब बात यह है कि यह खनन क्षेत्र उनके विधानसभा क्षेत्र में ही नहीं आता, बल्कि वहां से 600 किलोमीटर दूर है। उनके सवाल विधानसभा में टेबल नहीं हुए और इस घबराए खान मालिक रवींद्र मीणा ने विधायक से मिलकर सवाल वापस लेने की गुहार लगाई।
आरोप है कि सवाल वापस लेने के बदले में विधायक पटेल ने दस करोड़ रुपये मांगे, बाद में बात ढाई करोड़ पर तय हुई। रविवार को पटेल अपने सरकारी फ्लैट वाली इमारत के बेसमेंट में कार में बैठकर घूस की पहली किस्त के बीस लाख रुपये के नोट गिन रहे थे कि पहले से तैयार बैठे एसीबी के अधिकारी वहां पहुंच गए और उनको पकड़ लिया। धुलवाने पर उनके हाथ सचमुच रंग गए। हकबकाए से पटेल को अहसास नहीं था कि खान मालिक मीणा ने इस बात की जानकारी भ्रष्टाचार निरोधक विभाग (एसीबी) को दे दी थी और वो पिछले एक महीने से एसीबी के रडार पर थे और उनकी हर गतिविधि, हर बात रिकॉर्ड हो रही थी।
देश के संसदीय-विधायी इतिहास में यह तीसरा मामला है जब कोई जनप्रतिनिधि सदन में सवाल के संदर्भ में पकड़ में आया हो। इससे पहले 2005 में बहुचर्चित 'क्वेरी फॉर कैश' (सवाल के बदले पैसा) प्रकरण में 11 सांसद चर्चा में आए थे। इन सांसदों में 10 लोकसभा के और एक राज्यसभा के थे। ये सभी विभिन्न राजनीतिक दलों से थे। दूसरा मामला वर्ष 2024 में तृणमूल कांग्रेस की लोकसभा सदस्य महुआ मोइत्रा का था। इन सभी सांसदों पर सवाल पूछने के बदले पैसा(क्वेरी फॉर कैश) लेने का मामला था, जबकि विधायक पटेल के खिलाफ मामला ‘सवाल वापस लेने के लिए’ पैसा लेने का है।
डॉ. भीमराव आंबेडकर और अन्य संविधान सदस्यों ने संविधान बनाते समय यह बिलकुल नहीं सोचा होगा कि वे संविधान में जन को सर्वोपरि रखते हुए देश की सबसे बड़ी पंचायत में उसके प्रतिनिधि का जो प्रावधान कर रहे हैं, वे प्रतिनिधि अपने जन के विश्वास पर ऐसा आघात भी कर सकते हैं। ये तो वो मामले हैं जो देश के संज्ञान में आ गए हैं। बहुत संभव है कि इनसे भी ज्यादा ऐसे मामले हों जो 'चुपचाप' सुलटा लिए गए हों और प्रतिनिधियों के जन को उनकी कानों-कान खबर न हुई हो। यहां महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हर समय भ्र्ष्टाचार की शिकायत करने वाली देश की जनता क्या सचमुच भ्र्ष्टाचार से लड़ना, उसे मिटाना चाहती भी है ? पहले दो मामलों के इतिहास या उसके हश्र को देखते हुए सवाल उठते हैं कि देश में पहली बार घूस लेते रंगे हाथ गिरफ्तार हुए इस जनप्रतिनिधि के मामले का भी क्या यही हश्र होगा? इस बार भी जिस जन ने अपने प्रतिनिधि को चुन कर भेजा, वो फिर अपने विश्वास और आघात झेलने को अभिशप्त रहेगा?
महुआ मोइत्रा का ही मामला लीजिए। मोइत्रा पर संसद में सवाल पूछने के लिए रियल स्टेट कारोबारी दर्शन हीरानंदानी से घूस लेने का आरोप लगाया गया था। छानबीन के बाद सवाल के बदले पैसा-उपहार लेने के प्रकरण में सीबीआई ने 21 मार्च 2024 को उनके खिलाफ मामला दर्ज किया। मामले की जांच-पड़ताल कर लोकपाल ने साफ कहा कि पूरी जानकारी का सावधानी से मूल्यांकन करने के बाद कोई संदेह नहीं रह जाता है कि महुआ मोइत्रा के खिलाफ लगाए गए आरोप, जिनमें से अधिकांश में ठोस सबूत हैं, उनके पद को देखते हुए बेहद गंभीर प्रकृति के हैं। इस वजह से गहन जांच जरूरी है।
पूरे मामले की जांच-पड़ताल के बाद मामला संसद की आचार समिति तक पहुंचा और समिति की सिफारिश पर 8 दिसम्बर 23 को महुआ मोइत्रा को लोकसभा से निष्कासित कर दिया गया। अपने कृत्य पर शर्मिंदा होने की बजाए निष्कासन के बाद महुआ ने सरकार को चुनौती-सी देते हुए कहा था, '' मैं 49 साल की हूं और मैं अगले 30 साल तक संसद के अंदर और बाहर सरकार के खिलाफ लड़ूंगी। महुआ ने छह महीने से भी कम समय मे यह बात साबित कर दी और 05 जून 24 को वो डंके की चोट पर फिर लोकसभा पहुंच गईं, वह भी पहले से ज्यादा वोट लेकर। इसे क्या माना जाए? भ्र्ष्टाचार कौन मिटाना चाहता है? जिस क्षेत्र की जन के प्रतिनिधि को देश की संसद ने भ्र्ष्टाचार का आरोप लगाकर निकाला, उसी क्षेत्र के जन ने फिर से, पहले से ज़्यादा वोट देकर वापस उसी संसद में भेज दिया।
इसी तरह 2005 के एक मीडिया कम्पनी के स्टिंग ऑपरेशन में कैश फॉर क्वेरी मामले में शामिल 11 सांसदों में से किसी को भी वीडियो प्रूफ होने के बावजूद जेल भेजना तो दूर, जुर्माने तक की सजा नहीं हुई। इन सांसदों को दिसंबर 2005 में संसद से निष्कासित किया गया था, जो उनकी प्राथमिक सजा थी। 2017 में दिल्ली न्यायालय की विशेष न्यायाधीश किरण बंसल ने इनके खिलाफ भ्रष्टाचार और आपराधिक साजिश के आरोप तय किए। मुकदमा 12 जनवरी 2018 से शुरू हुआ। हालांकि, 2025 तक यह सबको पता है कि इनमें से भी जनप्रतिनिधि को न तो जेल हुई न कोई जुर्माना लगा, न उन्हें भविष्य में चुनाव लड़ने से रोका गया।
ऐसे में किस 'जनप्रतिनिधि' को सदन में 'सवाल पूछने' या 'सवाल वापस लेने' जैसा 'सौदा' करने से पहले किसी बात का भय होगा? जेल जाने या भविष्य में चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित होने का डर ? वक्त की सख्त जरूरत है कि देश में अब जनप्रतिनिधियों के 'अनैतिक आचरण' को पुनर्परिभाषित किया जाए जिसमें ‘सवाल पूछने या वापस लेने’ के मूल में अंतर्निहित उद्देश्यों का स्पष्ट कारण पूछा जाए और यदि कोई 'अनैतिकता' या 'अनियमितता' (सरल शब्दों में कोई सौदा, लेन-देन या 'डील') पाई जाती है तो तो जेल भेजने से लेकर भविष्य में लड़ने से प्रतिबंधित करने का प्रावधान भी होना चाहिए, तब हर सवाल का जवाब मिल जाएगा।
तब तक बहुत संभव है, राजस्थान की नई नवेली पार्टी ‘भारत आदिवासी पार्टी (भाआप, अंग्रेजी में बाप) के इस विधायक को भी ऐसी ही 'पर्याप्त सजा' मिल जाए और जनजातीय क्षेत्र से आने वाले जयकृष्ण पटेल 'आदिवासी अस्मिता' के कार्ड पर महुआ मोइत्रा की तरह छह महीने बाद पहले से ज़्यादा 'जन' के समर्थन से 'प्रतिनिधि' बनकर लौट आए 'जंगल-जल-जमीन' की लड़ाई के लिए! कुछ भी हो सकता है। आर्थर लेवेलिन बाशम ने भारत के बारे में यूं ही तो नहीं कहा था- 'द वंडर, दैट वाज इंडिया!'
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद