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हृदयनारायण दीक्षित
बुद्ध का दुख विश्लेषण विश्वदर्शन में श्रेष्ठतम है। अभिभूत करने वाला है। इसकी अंतिम कड़ी है 'अविद्या'। अविद्या का मतलब मूर्खता नहीं है। सृष्टि-जगत को सार रूप में न जानना ही 'अविद्या' है। भारतीय दर्शन की सभी शीर्ष धाराओं में दुख का मूल कारण 'अविद्या' है। यह बुद्ध दर्शन में भी है। उपनिषद् साहित्य विद्या और अविद्या के विवेचन से से भरा पूरा है। ईशावास्योपनिषद् के नवें, दसवें व ग्यारहवें मंत्रों श्लोकों का विषय 'विद्या और अविद्या' है। कहते हैं, ''अविद्या के उपासक अंधतम लोक में प्रवेश करते हैं। इसी तरह विद्या के उपासक भी अंधेरे में हैं। धीर पुरुषो से सुना है कि विद्या और अविद्या के फल अलग-अलग हैं। जो दोनो को एक साथ जानते है वे अविद्या से संसार-मृत्यु को पार करते हैं और विद्या से अमृत पाते हैं।'' मधुमय जीवन के लिए दोनो का बोध जरूरी है। विद्या मुक्त करती है, अविद्या यानी संसार का ज्ञान संसार को मधुमय प्रीतिमय बनाता है।
ऋग्वेद में दोनो हैं। ऋग्वेद के समाज में परम सत्ता की खोज और खेती किसानी साथ-साथ चलती है। परमतत्व की लब्धि चाहिए, लेकिन संसार मायाजाल नहीं है। न अकेली विद्या ठीक, न अकेली अविद्या। शुक्ल पक्ष का आलोक दीपित करता है तो कृष्णपक्ष का अंधकार विश्रामदायी है।
मुण्डकोपनिषद में अविद्या को अपरा विद्या और विद्या को परा विद्या कहा गया। श्वेताश्वतरोपनिषद् (5.1) में विद्या और अविद्या की खूबसूरत परिभाषा है -''क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या, विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्यः-जो क्षरणशील-नाशवान है वह अविद्या है, लेकिन सदा सनातन अमृत विद्या है।'' शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन में अविद्या ही मिथ्या है।
संसार का ज्ञान, घर परिवार भी जरूरी है। ब्रह्म ज्ञान की आकांक्षा इसी संसार की देन है। इसकी प्राप्ति के उपाय इसी जगत में, इसी शरीर और इन्द्रियों की सहायता से होते हैं। ईशोपनिषद के ऋषि ने अलग-अलग आग्रहों को गलत और दोनो के समन्वय को उपयोगी बताया है। अविद्या से सांसारिक कष्ट और मृत्यु कष्ट पार होते हैं। मृत्यु जीवन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। जीवन के तल पर ही मृत्यु आती है। जीवन न हो तो मृत्यु क्या कर लेगी? लेकिन मृत्यु अचानक नहीं आती। जीवन के प्रत्येक क्षण में मृत्यु है। सर्जन और विसर्जन साथ-साथ चलते हैं। अविद्या से इसी सब का ज्ञान मिलता है। अविद्या सांसारिक बोध, यज्ञ, उपासना, ज्ञान विज्ञान की जानकारियों व जीवन की गतिविधि में सहायक है। विद्या आत्मानुभूति है।
कठोपनिषद (1.2.5) में कथा है। कथा के अनुसार यमराज ने जिज्ञासु नचिकेता से कहा, ''अविद्या में संलग्न स्वयं को धीर और पंडित बताते है। वे मूढ़पुरूष अंधे द्वारा ही ले जाए गए अंधमार्ग को प्राप्त होते हैं।'' यहां यमराज धन प्रेमी, संसारवादी लोगों की भी खबर लेते हैं, ''धनमोह, पुत्रमोह, पशु सम्पदा मोह में अंधे हो गए लोग इसी लोक को सच मानते हैं। ऐसे लोग बार-बार मेरे वश (यमराज के पाश में) में ही आते हैं।'' (वहीः6) यहां यमराज भी तात्कालिक दार्शनिक बहस के एक पक्षकार है, वे यज्ञ, संसार मोह, सम्पदा मोह, आदि को अंधकार में ले जाने वाला बताते हैं। फिर कहते हैं, ''यह परम तत्व बहुतों को सुनने को भी नहीं मिलता। सुनकर भी बहुत सारे लोग समझ नहीं पाते। जानकार तत्वज्ञानी बहुत कम है, ज्ञानियों में भी आत्मतत्व को प्राप्त सिद्ध बिरले ही हैं।'' (वहीः7) दर्शनशास्त्री तर्क को ज्ञान का उपकरण बताते थे। यमराज कहते हैं ''यह तत्व तर्क से नहीं मिलता ऐसा ज्ञान गैरनास्तिक (वेद जानने मानने वाला) अनुभवी विद्वान के पास ही होता है।''
अविद्या सांसारिक ज्ञान है। अर्थशास्त्र, इतिहास, विज्ञान, खगोल और वैदिक साहित्य भी 'अविद्या' है। दुख का कारण अविद्या है। अविद्या मूल सत्य तत्व पर आवरण है। इच्छाएं अभिलाषाएं और इनसे बनी बुद्धि अविद्या को सच्चा ज्ञान समझती है। अविद्या जनित बुद्धि से विद्याजनित उत्तर समझे नहीं जा सकते। बुद्ध इसीलिए सारभूत प्रश्नों पर मौन रहते थे। अविद्या को माया भी कह सकते हैं। माया सुंदर शब्द है। संस्कृत में 'मा' का अर्थ नहीं है। 'या' का अर्थ है 'जो'। माया अर्थात 'जो' नहीं है। जीवन में सब तरफ 'दो' ही दिखाई देते हैं। मैं हूं और संसार है। शुभ और अशुभ हैं। दिन और रात हैं। अच्छा और बुरा है। जीवन और मृत्यु है। व्यक्त और अव्यक्त है। ज्ञात और अज्ञात है। ईश्वर और संसार हैं। जीवात्मा और परमात्मा है। दर्शन की भाषा में इसे द्वैत कहते हैं। वैदिक काल और परवर्ती समय में अनेक मत थे। लेकिन मोटे तौर पर दो विचार थे। एक कि परमतत्व का बोध ही प्रकाशदायी है, बाकी सब गलत हैं। दो-कि भौतिक ज्ञान सांसारिक उपलब्धियां, यज्ञ कर्मकाण्ड ही ठीक है।
उत्तरवैदिक काल में इसे ''विद्या और अविद्या'' कहा गया। विद्या का अर्थ 'ज्ञान' और अविद्या का अर्थ अज्ञान लिया जाता है लेकिन वैदिक साहित्य में अविद्या का अर्थ अज्ञान नहीं है। वैदिक काल में विद्या सुपरिभाषित थी। इसका अर्थ सत्य की अनुभूति अथवा परमतत्व का ज्ञान था। इसलिए अविद्या का अर्थ ''जो विद्या नहीं है'' से लिया जाना चाहिए। परम सत्य की खोज से जुड़ा ज्ञान विद्या था, शेष सारा व्यावहारिक ज्ञान अविद्या था। विद्या मुक्ति का संधान थी-स विद्या या विमुक्तये। संसार कारण कार्य की श्रंखला है। कारण के अभाव से आगे कार्य नहीं होता। बुद्ध परम स्थिति को प्राप्त कर चुके थे। इसी स्थिति को निर्वाण (पाली भाषा में निब्बान) कहा गया। निर्वाण के बाद कोई ऐषणा नहीं बचती। प्राचीन दर्शन ने इसे मोक्ष कहा। मोक्ष एक लब्धि है।
यहां दार्शनिक सवाल उठे कि निर्वाण प्राप्त/मोक्ष प्राप्त व्यक्ति आगे कर्म करता हुआ क्या पुनः 'संस्कार' (दुख) में नहीं फंसेगा? और क्या इसी संस्कार के कारण उसका पुनर्जन्म नहीं होगा? बुद्ध ने दो प्रकार के कर्म बताये-एक आसक्त कर्म जो राग द्वेष आसक्ति से प्रेरित हैं और दूसरे अनासक्त कर्म-जिनमें फल प्राप्ति की कोई इच्छा नहीं होती। गीता का केन्द्रीय विचार भी अनासक्त कर्म है। बुद्ध ने खेती किसानी का खूबसूरत उदाहरण दिया, एक बीज सामान्य है, वह भूमि पर गिरेगा, तो दोबारा उगेगा (पुनर्जन्म होगा) दूसरा भुना हुआ बीज है, वह भूमि पर गिरकर भी नहीं उगता। निर्वाण प्राप्त व्यक्ति भुने बीज जैसा हैं। क्या अनासक्ति मुक्त करती है या मुक्त व्यक्ति अनासक्त होते हैं? शंकराचार्य के दर्शन में अज्ञान के आवरण के हटते ही व्यक्ति सत्य को उपलब्ध हो जाता है।
गीता में सृष्टि संचालन की प्राकृतिक कार्रवाई में सहयोग करने को यज्ञ बताया गया। (8.14) गीता में श्रीकृष्ण ने कहा ''मुक्त पुरुष को भी लोकसंग्रह के निमित्त अपना कर्म करते रहना चाहिए सामान्य जन श्रेष्ठजनों का अनुकरण करते है। (3.21) कृष्ण ने यह भी कहा कि मुझे कोई आकांक्षा नहीं है। दुनिया की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो मुझे प्राप्त नहीं है तो भी मैं सतत् कर्मरत रहता हूँ। मैं काम न करूं तो सृष्टि संचालन की कार्रवाई बाधित होगी और लोग मेरा अनुसरण करके आलस्य में जाएंगे।'' (3.22-24) बुद्ध ने भी लोकसंग्रह के निमित्त परम्परा का अनुसरण करते हुए निर्वाण के बाद भी सतत् कर्म जारी रखा।
बुद्ध के दृष्टिकोण से कर्मबन्धन 'संस्कार' बनते हैं। संस्कार से पुनर्जन्म होते हैं। ईशावास्योपनिषद् का ऋषि समूची सृष्टि को परमतत्त्व आच्छादित देख रहा था। प्रश्न यह था कि क्या परम तत्त्व की लब्धि के बाद भी काम करते रहना चाहिए? उपनिषद्कार ने कहा कि इस सृष्टि को परमतत्व से आच्छादित देखते हुए लगातार कर्मरत 100 वर्ष तक जीने की इच्छा करने से कर्म बन्धन नहीं लगते-एवं त्वपि नान्यथे तोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे (मंत्र 2) इसके अतिरिक्त कर्मबंधन से मुक्ति का कोई मार्ग नहीं है।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद