अमर बलिदानी करतार सिंह सराभा का स्मरण जरूरी है
रमेश शर्मा अमर बलिदानी करतार सिंह सराभा क्रांतिकारियों के आदर्श थे। सुप्रसिद्ध सरदार भगत सिंह भी उन्हें अपना गुरु और प्रेरणास्रोत मानते थे। उन्नीस वर्ष की आयु में जब करतार को फांसी पर चढ़ाया गया तब उन्होंने कहा था कि मुझे गर्व है कि मैं अपने पूर्वज
करतार सिंह सराभा


रमेश शर्मा

अमर बलिदानी करतार सिंह सराभा क्रांतिकारियों के आदर्श थे। सुप्रसिद्ध सरदार भगत सिंह भी उन्हें अपना गुरु और प्रेरणास्रोत मानते थे। उन्नीस वर्ष की आयु में जब करतार को फांसी पर चढ़ाया गया तब उन्होंने कहा था कि मुझे गर्व है कि मैं अपने पूर्वजों की परंपरा के अनुरूप मातृभूमि के लिए प्राण दे रहा हूं। ऐसे अमर बलिदानी क्रांतिकारी करतार सिंह का जन्म 24 मई, 1896 को लुधियाना जिले के ग्राम सराभा में हुआ था। इनके पिता मंगल सिंह गांव के एक संपन्न और प्रतिष्ठित किसान थे। माता साहिब कौर धार्मिक विचारों की महिला थीं और गुरुद्वारे से जुड़ी थीं। करतार सिंह अभी केवल पांच वर्ष के थे कि उनके माता-पिता का देहान्त हो गया । उनका पालन पोषण उनके दादाजी ने किया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा खालसा स्कूल लुधियाना में हुई। उनके चाचा ओडिशा में रहते थे। आगे की पढ़ाई के लिए चाचा के पास गए। चाचा ने उन्हे पढ़ने के लिए सैन फ्रांसिस्को भेज दिया। तब उनकी आयु केवल चौदह वर्ष थी ।

उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के प्रवेश लिया। कैलिफोर्निया में वातावरण अलग था। वहां अंग्रेज और अन्य गोरे यूरोपियंस लोग भारतीयों सहित सभी काले रंग के नागरिकों को हेय दृष्टि से देखते थे। भारतीयों को दास कहा जाता था। चलते-फिरते अपमान हो जाना सामान्य बात थी। इस भाव के प्रति भारतीय छात्रों में रोष था। लेकिन खुलकर विरोध न हो पा रहा था। इस वातावरण ने करतार सिंह के विचारों की दिशा बदल दी। वे पढ़कर उच्च पद पाने की बजाय भारतीयों की प्रतिष्ठा और आत्म सम्मान रक्षा के उपायों पर विचार करने लगे। सैन फ्रांसिस्को में उन्हें समान विचार के अन्य छात्र भी मिले। इन सब छात्रों का एक समूह बन गया। भारतीय छात्र अकसर अपनी समस्याओं पर चर्चा करते और एक दूसरे से अपने दुख साझा करते थे। कनाडा और अमेरिका के प्रशांत तटों पर बसने वाले भारतीय आप्रवासियों का एक समूह बन गया जिसने अंग्रेजों से भारत की मुक्ति का संकल्प लिया। इन सभी भारतीयों का मनोभाव करो या मरो की सीमा तक दृढ़ हो गया।

करतार सिंह अपनी कार्यशैली से बहुत शीघ्र इस राष्ट्रप्रेमी समूह के अग्रणी सदस्य बन गए। यहीं इस जाग्रति अभियान के साथ सशस्त्र क्रांति की तैयारियां भी आरंभ हुईं। अपनी सक्रियता के साथ उनका संपर्क लाला हरदयाल से हो गया। करतार सिंह उनके मार्गदर्शन में आगे बढ़े। लाला हरदयाल गदर पार्टी के संस्थापकों में से एक थे। 1913 में उन्होंने सोहन सिंह भकना, पंडित कांशी राम, हरनाम सिंह टुंडीलाट आदि के साथ मिलकर 1913 में गदर पार्टी की स्थापना की थी। गदर पार्टी सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से अंग्रेजों से भारत की मुक्ति का अभियान चला रही थी। इस संगठन का मुख्यालय सैन फ्रांसिस्को में ही था। लालाजी के माध्यम से करतार सिंह इससे जुड़ गए। पोर्टलैंड में हुए गदर पार्टी के सम्मेलन में भी करतार सिंह शामिल हुए। वहां ‘युगान्तर आश्रम’ की स्थापना में करतार सिंह की भूमिका महत्वपूर्ण थी। क्रांति के लिए साप्ताहिक समाचार पत्र गदर का प्रकाशन आरंभ हुआ। करतार सिंह ने अपने घर से पढ़ाई के लिए आए 200 पौंड इस समाचार पत्र प्रकाशन के लिए लाला जी को दे दिए। इस पत्र में अन्य सामग्री के साथ भारत में हुई 1857 की क्रांति की भी प्रेरक सामग्री होती थी। इससे नौजवानों में नई ऊर्जा का संचार होता।

उन्हीं दिनों प्रथम विश्व युद्ध आरंभ हो गया। तब करतार सिंह भारत आ गए। जनवरी 1914 में समाचार पत्र गदर का गुरुमुखी संस्करण आरंभ हुआ। लाला हर दयाल इसके संपादक और करतार सिंह उप संपादक बने। आगे चलकर गदर का उर्दू संस्करण भी आरंभ हुआ। इस संस्करण का संपादक करतार सिंह को बनाया गया। अपने इस जन जागरण अभियान के साथ युवाओं की सशस्त्र संघर्ष तेज करने की भी योजना बनी। इसके लिए बंगाल गए और रासबिहारी बोस तथा शचीन्द्रनाथ सान्याल सहित अन्य क्रान्तिकारियों से भी भेंट की। 21 फरवरी, 1915 को पूरे देश में एक साथ क्रान्ति करने की योजना बनी। करतार सिंह को पंजाब में क्रांति का दायित्व मिला।

उन्होंने कई धार्मिक स्थानों की यात्रा करके युवकों को जोड़ा। इसके साथ फिरोजपुर रावलपिंडी, और लाहौर की सैन्य छावनियों सेना के सिपाहियों से भी सम्पर्क करके क्रांति से जोड़ने की योजना बनी। रेल तथा डाक व्यवस्था को भंग करने की भी योजना बनाई। पंजाब में क्रांति की इन गतिविधियों का केन्द्र लाहौर बना। वहां लाहौर छावनी के शस्त्रागार का चौकीदार भी क्रांति से जुड़ गया । योजना पूर्वक 100 रिवाल्वर एवं अन्य सामग्री जुटा ली गई। धन और शस्त्र जुटाने का अभियान चल ही रहा था कि कृपाल सिंह नामक एक पुलिस कर्मचारी ने विश्वासघात कर दिया। उसने ब्रिटिश अधिकारियों को सूचित कर दिया। शस्त्रागार से शस्त्र गायब होने से अंग्रेज अधिकारियों में खलबली मच गई थी। इस सूचना से पुलिस और सेना ने धरपकड़ आरंभ कर दी। करतार सिंह अपने कुछ साथियों के साथ लाहौर से निकल गए, लेकिन सरगोधा में गिरफ्तार कर लिए गए।

पूरे पंजाब में धरपकड़ आरंभ हुई और कुल 60 युवा क्रांतिकारी बंदी बना लिए गए। इतिहास में इन गिरफ्तारियों का पहले लाहौर षड्यन्त्र केस के रूप में उल्लेख है। करतार सिंह ने अपने साथियों को बचाने के लिए सारी जिम्मेदारी स्वयं पर ले ली। न्यायाधीश ने उन्हें अपना बयान बदलने और माफी मांगने को कहा ताकि सजा कम दी जा सके लेकिन करतार सिंह ने जो कहा उससे न्यायधीश ने फांसी की सजा सुना दी । उन्होने कहा था मुझे दुख है कि मैं क्रांति को सफल न बना सका एक बार उन्होंने जेल से भागने का भी प्रयास किया लेकिन सफल न हो सके। अंततः 16 नवम्बर, 1915 को करतार सिंह सराबा और उनके छह साथियों विष्णु गणेश पिंगले, हरनाम सिंह, बख्शीश सिंह, जगतसिंह, सुरेन सिंह एवं सुरेन्द्र सिंह को लाहौर के केन्द्रीय कारागार में फांसी दे दी गई।

(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद