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– डॉ. सत्यवान सौरभ
हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी यह नहीं है कि समाज अन्याय से भर गया है बल्कि यह है कि संवेदनाएँ खोती जा रही हैं। जिस देश में सरकारी तंत्र “सेवा” का प्रतीक होनी चाहिए थी, वहाँ अब “नौकरशाही” शब्द ही “अहंकार” और “दूरदर्शिता की कमी” का पर्याय बन चुका है। सरकारी तंत्र जब संवेदनहीन हो तो व्यवस्था का चेहरा निर्दयी हो जाता है। छोटी-सी समस्या के समाधान के लिए व्यक्ति फ़ाइलों के जंगल में भटकता है। फोन उठाने से लेकर जवाब देने तक हर कदम पर दीवार खड़ी है- उस दीवार का नाम है नौकरशाही की असंवेदनशीलता।
नौकरशाही का मूल उद्देश्य नागरिकों की सुविधा, प्रशासन की पारदर्शिता और नीतियों की समानता था। लेकिन धीरे-धीरे यह वर्ग अपने ही बनाए दायरे में कैद हो गया। सत्ता के निकट रहकर उसने “सेवा” को “सत्ता-साझेदारी” में बदल दिया। आज अधिकारी जनता के प्रतिनिधि नहीं, सत्ता के प्रतिनिधि बन चुके हैं। फ़ाइलों पर फैसले अब संवेदना से नहीं, “किसे खुश करना है और किससे बचना है” जैसी मानसिकता से लिए जाते हैं। इस मानसिकता ने शासन को जीवंतता से दूर कर दिया है। नौकरशाही अब अपने भीतर ऐसा ‘प्रशासनिक अहंकार’ पाल चुकी है जो हर आलोचना को शत्रुता समझता है। फ़ाइलें महीनों दबाई जाती हैं, नियुक्तियाँ वर्षों तक लंबित रहती हैं और जब जवाब माँगा जाए तो कहा जाता है- “प्रक्रिया में है।” यह “प्रक्रिया” अब बहाने का दूसरा नाम बन चुकी है। जनता के सवालों का जवाब काग़ज़ों में मिलता है लेकिन न्याय का उत्तर शून्य में खो जाता है।
सत्ता अपने स्वभाव में आकर्षक होती है। यह व्यक्ति को शक्ति देती है पर उसी शक्ति के साथ चरित्र की परीक्षा भी लेती है। दुर्भाग्य से, हमारे समय की राजनीति ने इस शक्ति को ज्यादातर “जिम्मेदारी” नहीं बल्कि “विशेषाधिकार” समझ लिया है। सत्ताधारी तब तक सक्रिय रहते हैं, जब तक प्रशंसा मिलती रहती है। लेकिन आलोचना या असहमति के क्षणों में उनकी सहनशीलता समाप्त हो जाती है। यही संवेदनहीन सत्ता का भयावह रूप है- जहाँ जनता की पीड़ा आँकड़ों में बदल दी जाती है और आँकड़ों की भाषा में संवेदना मर जाती है। हर बार जब कोई त्रासदी होती है- दुर्घटना, दंगा या भ्रष्टाचार- तब ज़मीनी स्तर पर प्रशासन केवल रिपोर्ट तैयार करता है, जिनमें संवेदना नहीं, केवल डेटा होता है। यह स्थिति लोकतंत्र के उस आत्मा को चोट पहुँचाती है जो “जन” से शुरू होकर “जन” पर ही समाप्त होती है।
संवेदनहीनता केवल प्रशासन की नहीं समाज की भी बीमारी बन चुकी है। आज दुर्घटनाओं के वीडियो बनाए जाते हैं पर किसी की मदद करने की हिम्मत कम ही होती है। गरीब की पीड़ा पर ताली बजाना आसान है पर मदद करना कठिन। यह वही मानसिकता है जिसने
एक गहरी खाई बना दी है। जहाँ ऊपर बैठे लोग ‘नीतियों’ की बात करते हैं, वहीं नीचे खड़े लोग ‘रोटी’ की। नौकरशाही-जो पुल नहीं, दीवार बन चुकी है। यही वह त्रासदी है जो लोकतंत्र को भीतर से खोखला कर रही है।
एक समय था जब सरकारी अधिकारी “जनसेवक” कहलाते थे। यह शब्द अब मज़ाक लगता है। आज का प्रशासन इतना प्रक्रियात्मक हो गया है कि वह मनुष्यता को भूल गया है। फ़ाइलों और कानूनों की दुनिया में “संवेदना” को “अपवाद” मान लिया गया है। यह विचलित करने वाली सच्चाई है कि जो तंत्र जनता की सेवा के लिए बना, वही तंत्र अब नागरिक को संदेह की दृष्टि से देखता है। अधिकारी जनता को सुविधा देने से अधिक उसके इंटेंशन पर शक करने लगे हैं। यह शक लोकतंत्र की आत्मा के विरुद्ध है। नौकरशाही और सत्ता के बीच यह मानसिक दूरी अब सामाजिक असमानता को और गहरा रही है। गाँवों में सड़क तब पहुँचती है जब वोट की ज़रूरत पड़ती है। स्कूलों में शिक्षक तब लगते हैं जब मीडिया हंगामा करती है। अस्पतालों में दवा तब आती है जब मंत्री का दौरा तय होता है। यह संवेदनहीन तंत्र आम नागरिक की ज़िंदगी को उस “प्रतीक्षा की यातना” में बदल देता है जो कभी समाप्त नहीं होती।
संवेदनहीनता की यह संस्कृति सरकारी तंत्र की स्थायी साथी बन चुकी है। हम यह भूल चुके हैं कि शासन का सार मनुष्यता में निहित है। कानून तभी तक उपयोगी हैं जब वे मानवीयता की रक्षा करें और प्रशासन तभी तक वैध है जब वह नागरिक के दुख को अपनी जिम्मेदारी माने। आज हमारे देश में हर विभाग में योजनाएँ हैं लेकिन क्रियान्वयन में संवेदना नहीं है। यही कारण है कि योजनाएँ “रिपोर्ट कार्ड” बनकर रह गई हैं, न कि राहत का साधन।
जरूरत इस बात की है कि सरकारी तंत्र को फिर से सेवा का पर्याय बनाया जाए। शासन में इमोशनल इंटेलिजेंस को नीतिगत अनिवार्यता बनाया जाए। नौकरशाही को प्रशिक्षण के दौरान केवल प्रोटोकॉल नहीं, संवेदना भी सिखाई जाए। पद का अहंकार अगर सेवा की भावना से नहीं मिला, तो हर नीति अधूरी रह जाएगी। आज आवश्यकता “अकुशल प्रशासनिक मशीनरी” की नहीं, “मानवीय प्रशासन” की है- जहाँ प्रत्येक निर्णय के केंद्र में नागरिक का दुःख, उसकी गरिमा और उसका जीवन हो।
हमारे समय का असली सुधार यही होगा कि नौकरशाही और सत्ता में संवेदना वापस लाई जाए। कानून की कठोरता के साथ मानवीयता की कोमलता भी जरूरी है। आज अगर हम सरकारी तंत्र में फिर से मनुष्यता को जीवित नहीं कर पाए, तो अगली पीढ़ियाँ हमें “संवेदनहीन युग” कहकर याद करेंगी। शायद तब यह प्रश्न उठेगा कि क्या हमने शासन को इंसान से ज़्यादा महत्वपूर्ण बना दिया? इसलिए समय की पुकार है कि प्रशासन को प्रक्रिया से पहले मनुष्य को देखना सीखना होगा।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश