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-पंकज जगन्नाथ जयस्वाल
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के शताब्दी वर्ष के दौरान संघ की गतिविधियों के ख़िलाफ़ घिनौने झूठे आख्यान और राजनीति से प्रेरित प्रयास हमारे महान राष्ट्र के विरोधियों के बीच अभूतपूर्व भय का प्रदर्शन करते हैं। आरएसएस एक मूक संरक्षक के रूप में कार्य करता है, जो समाज में विवेकपूर्ण ढंग से कार्य करने में विश्वास करता है। हम सभी जानते हैं, शब्दों का दीर्घकालिक प्रभाव नहीं हो सकता लेकिन किसी के प्रयासों का प्रभाव हो सकता है। इसी धारणा के आधार पर आरएसएस भारतीयों और राष्ट्र की मदद, विकास और एकता के अपने प्रयासों का कभी प्रचार नहीं करता। नतीजतन, किसी भी खामोश व्यक्ति या समूह पर कीचड़ उछालना आसान है। मिशनरियों, इस्लामी चरमपंथियों, कुछ राजनीतिक दलों ने आरएसएस को बदनाम करना शुरू कर दिया और इस संगठन को असंवैधानिक रूप से गैरकानूनी घोषित करने की बात करने लगे।
समकालीन भारतीय राजनीति के प्रामाणिक अध्ययनों के लिए जाने जाने वाले प्रसिद्ध इतिहासकार वाल्टर के. एंडरसन ने टिप्पणी की है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी आरएसएस को पश्चिम और भारत में भी कई लोगों की तरह एक धार्मिक संगठन समझने की भूल कर बैठे हैं। यह रणनीति राहुल गांधी के खुद को हिंदू और देशभक्त के रूप में पेश करने के प्रयासों को कमजोर कर सकती है। जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एडवांस्ड इंटरनेशनल स्टडीज में दक्षिण एशिया अध्ययन के पूर्व प्रमुख एंडरसन लगभग 50 वर्षों तक आरएसएस का गहन अध्ययन करने के लिए जाने जाते हैं। वे ब्रदरहुड इन सैफ्रन जैसी पुस्तकों के लेखक हैं। उन्होंने चर्चा की कि पश्चिम में आरएसएस को कैसे देखा जाता है, उसे किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है- जैसे जातिगत भेदभाव का समाधान-अल्पसंख्यकों तक कैसे पहुँचा जाए और बौद्धिक अभिजात वर्ग का दिल कैसे जीता जाए और भाजपा के भविष्य के बारे में उनका दृष्टिकोण।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी और कुछ अन्य नेताओं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति उनके खराब नजरिये के लिए जाना जाता है। इस धारणा और राहुल गांधी द्वारा उस पर किए गए मुखर हमलों के बावजूद आरएसएस उनसे घृणा नहीं करता। इसका कारण संघ का दर्शन, नेतृत्व का इतिहास और उनकी विचार प्रक्रिया है, जो एक सदी में विकसित हुई है। स्वतंत्रता के बाद से ही आरएसएस ने राष्ट्र प्रथम की मानसिकता को बनाए रखते हुए विभिन्न राजनीतिक दलों और नेताओं के साथ सहयोग किया है। आरएसएस पर हमला करने की कोशिश में वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व विडंबनापूर्ण रूप से अपने ही अतीत की उपेक्षा कर रहा है, जिसमें कई कांग्रेस नेताओं ने कई विषयों पर आरएसएस के साथ घनिष्ठ सहयोग किया है।
संघ का सौ साल का इतिहास इस बात को पूरी तरह से प्रमाणित करता है कि हज़ारों स्वयंसेवकों ने राष्ट्र की सेवा में जीवन त्याग दिया या अपनी जान गँवाई और इस दौरान एकता, राष्ट्रीय पहचान और हिंदू जागरण के सिद्धांतों पर अडिग रहे। राष्ट्र के कल्याण के लिए सोचना और कार्य करना आरएसएस का एकमात्र दायित्व है। हज़ारों लोग प्रचारक के रूप में काम करते हैं जो राष्ट्र की सेवा के एकमात्र उद्देश्य के साथ एक त्यागी जीवन जीते हैं। प्राकृतिक आपदाओं के दौरान या जब भी राष्ट्र को आवश्यकता हो, आरएसएस सभी जाति-धर्म के लोगों की मदद और समर्थन के लिए तैयार रहता है। कुछ उदाहरण हैं- चीन और पाकिस्तान के साथ संघर्ष, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा घोषित अवैध आपातकाल के खिलाफ लड़ाई, पंजाब में अशांति के दौरान शांति प्रक्रिया और समाज को दोबारा एकजुट करने के लिए किए गए प्रयास।
जो लोग भारत की विरासत, कला और संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं, उन्हें हमेशा आरएसएस के विरोध का सामना करना पड़ेगा। चूँकि भारत में बहुसंख्यक लोग हिंदू हैं इसलिए आरएसएस हिंदू समुदाय या भारतीयता को विभाजित या विघटित करने के किसी भी प्रयास का विरोध करेगा, चाहे विरोधी कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो। नफरत करने वाले आरएसएस को बदनाम करने और सभी भारतीयों को भयभीत करने की अपनी लंबे समय से चली आ रही रणनीति को जारी रखने की कोशिश कर रहे हैं। यह रणनीति यह सुनिश्चित करेगी कि अल्पसंख्यक भाजपा के खिलाफ एकजुट रहें और भाजपा के मतदाताओं के दिलों में भी डर पैदा हो, क्योंकि अधिकांश भाजपा पदाधिकारियों की पृष्ठभूमि आरएसएस से है।
स्वार्थी प्रेरणा या लालची प्रवृत्ति वाले किसी भी व्यक्ति के लिए समाज और राष्ट्र कभी भी सर्वोच्च उद्देश्य नहीं होते; वे राष्ट्र और उसकी सामाजिक एकता की कीमत पर प्रसिद्धि, धन और शक्ति चाहते हैं। ये स्वार्थी लोग आरएसएस, पर्यावरण, राष्ट्र और विश्व को बेहतर बनाने के लिए अथक प्रयास करने वाले कई अन्य संगठनों के साथ ठीक यही कर रहे हैं। राष्ट्र को महान बनाने के लिए, एक लोकतंत्र को आलोचना, गहन विश्लेषण, राय और सुझावों की आवश्यकता होती है। हालाँकि, यदि एजेंडा हानिकारक है और हमारे राष्ट्र के दुश्मनों का समर्थन करता है, तो नागरिकों को अधिक सतर्क और जागरूक होने की आवश्यकता है और प्रासंगिक और तथ्यात्मक जानकारी के साथ ऐसे झूठे आख्यानों का जवाब देना चाहिए।
मुद्दा यह है कि क्या हमें उस संगठन पर भरोसा करना चाहिए जो दशकों से निःस्वार्थ भाव से देश की सेवा कर रहा है या उस पार्टी पर जो संविधान को खारिज करती है। झूठे आख्यान गढ़ना सस्ता है। असली पत्रकारिता महंगी है। जनहित में महत्वपूर्ण नई जानकारी खोजना और उसे इस तरह से प्रासंगिक बनाना कि हम उसका उपयोग मानवीय स्थिति को बेहतर बनाने के लिए कर सकें, पत्रकारिता का मुख्य कर्तव्य है। यह जनता के बीच एकजुटता को बढ़ावा देने में बहुत मददगार हो सकता है। इसका मुख्य उद्देश्य समग्र समाज में सुधार लाना होना चाहिए। जनता को विभिन्न प्रकार के आख्यानों से सावधान रहने की आवश्यकता है, क्योंकि बिना समझ और विश्लेषण के उन पर प्रतिक्रिया देने से व्यवस्था, समाज और राष्ट्र पंगु हो जाते हैं। प्रत्येक समाचार या विमर्श का आदर्श वाक्य एकता और राष्ट्र प्रथम होना चाहिए।
हालाँकि आरएसएस को उसकी अर्धसैनिक रणनीति और अनुशासन पर ज़ोर देने के कारण कुछ लोग फासीवाद का भारतीय संस्करण मानते हैं। सेंटर फॉर स्टडीज़ एंड रिसर्च (CERI) के निदेशक क्रिस्टोफर जैफ्रेलॉट कहते हैं कि आरएसएस का दर्शन समाज को एक धर्मनिरपेक्ष जीव के रूप में देखता है जिसकी भावना नस्ल के बजाय एक सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में निहित है और अंततः निरंतर जमीनी प्रयासों के माध्यम से इसे पुनर्स्थापित किया जाएगा। उनके अनुसार, आरएसएस की विचारधारा ने राज्य और नस्ल के सिद्धांत का निर्माण नहीं किया, जो नाज़ीवाद और फासीवाद जैसे यूरोपीय राष्ट्रवादों के प्रमुख कारक थे। इसके अतिरिक्त, वह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि आरएसएस नेताओं के लिए नस्लीय एकरूपता उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी सांस्कृतिक एकता। राष्ट्र के पास एक ऐसा संगठन है जो राष्ट्र के बारे में केवल सकारात्मक सोचता है और अपने नागरिकों को उनके व्यक्तिगत और राष्ट्रीय चरित्र के विकास के लिए प्रशिक्षित करता है, साथ ही राष्ट्रीय आवश्यकताओं या आपदाओं की स्थिति में स्वयंसेवा करने के लिए भी तैयार करता है। कांग्रेस, वामपंथी और अन्य विपक्षी दल इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।
संघ यदि सत्ता का भूखा होता तो तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल और तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रस्ताव के साथ संघ को गठबंधन का प्रस्ताव गोलवाकर गुरुजी द्वारा आसानी से स्वीकारा गया होता| इसकी स्थापना के बाद से संघ के पास एकमात्र दृष्टि है: हिंदुओं को अपने राष्ट्रीय और व्यक्तिगत चरित्र बनाने के लिए संगठीत करना। आरएसएस जनसंघ और भाजपा दोनों से पहले स्थापित हुआ है।
असल में, आरएसएस कई संगठनों का मूल संगठन है जिसे संघ परिवार कहा जाता है जो विभिन्न क्षेत्रों में काम करता है। इन संगठनों को आरएसएस से सलाह मिलती है और आरएसएस शीर्ष कार्यकारी समिति के साथ लगातार बैठकों को उनके काम पर अपडेट पर चर्चा करने या विषयों की एक श्रृंखला पर सलाह देने के लिए आयोजित किया जाता है। साल 1925 से आरएसएस ने बिना किसी स्वार्थ के, कुछ भी उम्मीद किए बिना देश को सेवाएं प्रदान की हैं। प्रचारक अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों को छोड़ कर और अविवाहित रहकर, आरएसएस में शामिल होते हैं और अपने घर-परिवार को पीछे छोड़ देते हैं।
मुद्दा यह है कि क्या हमें एक ऐसे संगठन में विश्वास रखना चाहिए जो साल 1925 से निःस्संदेह राष्ट्र और समाज में निःस्वार्थ रूप से सेवा कर रहा है या किसी पार्टी या व्यक्तियों में जो आतंकवादियों, नक्सलियों, हिंदुत्व विरोधी संगठनों और अन्य समूह जो मानवता के खिलाफ काम करते हैं, उनका भरोसा करना चाहिए। झूठी कथाएं और आधा सत्य हमेशा राष्ट्र और समाज के लिए हानिकारक होते हैं। राष्ट्र पहले, व्यक्तिगत कुछ भी मायने रखता है -इस भाव से हमें संघ के साथ आगे बढ़ना होगा।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश