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डॉ. आर. बालाशंकर
आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हर भाषा में प्रकाशन हैं और कहा जाता है कि संघ के प्रकाशनों का संयुक्त प्रसार लगभग बीस लाख है। इनमें से अधिकांश प्रकाशन आत्मनिर्भर हैं। यह आश्चर्यजनक है कि एक ऐसा संगठन जिसने अपने अस्तित्व के लगभग चौथाई सदी तक प्रचार से परहेज़ किया, आज भारतीय राष्ट्रीय आख्यान के केंद्र में आ गया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार कहा करते थे कि संघ कार्य स्वयं बोलेगा और वह प्रचार के पीछे नहीं भागेगा। वर्ष 1925 में विजयादशमी के दिन अपनी स्थापना के बाद से लगभग 25 वर्षों तक संघ का कोई प्रकाशन नहीं था। इसने कभी प्रचार की चाह नहीं की और इसके अधिकांश प्रचारक आज भी साधारण जीवन जीते हैं।
शुरुआत में संघ मौखिक प्रचार पर निर्भर था। मूलतः यह संगठन और नेटवर्क ही था जो विचारधारा के प्रसार और संगठनात्मक कार्यप्रणाली के प्रसार को पूरा कर रहा था। जैसे-जैसे यह राष्ट्रीय पटल पर वैचारिक शक्ति के रूप में उभरा, इसके कार्यक्रमों, नीतियों और दृष्टिकोण के स्पष्ट प्रकटीकरण की आवश्यकता स्पष्ट हुई। विभाजन के बाद के दौर में महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ के बारे में फैलाए गए झूठ ने संघ को अपने अस्तित्व संबंधी मूल्यों को परिभाषित करने के लिए मजबूर किया।
शाखा नेटवर्क का विस्तार इसके राष्ट्रव्यापी प्रभाव और राष्ट्रीय मुद्दों पर इसके दृष्टिकोण की व्याख्या की आवश्यकता के अनुरूप था। इसने अपने स्वयं के प्रकाशनों की आवश्यकता पैदा की, खासकर ऐसे समय में जब मुख्यधारा का मीडिया संघ के कार्यों के प्रति किसी भी प्रकार की सहानुभूति से दूर रहा। संघ ने राजनीति, श्रम और छात्र गतिविधियों सहित कई नए क्षेत्रों में प्रवेश किया। इसकी शाखाएं वैश्विक आयामों तक पहुंच गईं और प्रवासी भारतीय हिंदुत्व दर्शन की ओर तेज़ी से आकर्षित हुए।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत संघ के प्रकाशनों के संपादक के रूप में की। श्री गुरुजी गोलवलकर एक विपुल लेखक और वक्ता थे। संघ ने बड़ी संख्या में प्रख्यात पत्रकारों और लेखकों को जन्म दिया। जैसे- पी. परमेश्वरन, केआर मलकानी, वीपी भाटिया, आर. हरि, एचवी शेषाद्रि, जय दुबाशी, एस. गुरुमूर्ति, राम माधव, भानुप्रताप शुक्ल, दीनानाथ मिश्र, सुनील आंबेकर और जे. नंद कुमार। प्रारंभ में संघ के प्रकाशन स्वयंसेवकों के लिए प्रक्षेपण स्थल बन गए।
संघ के पूर्व सह प्रचार प्रमुख जे. नंदकुमार, जो अब संघ के थिंक टैंक प्रज्ञा प्रवाह का कार्यभार संभाल रहे हैं, के मुताबिक संघ के 15 मासिक और साप्ताहिक, 39 जागरण पत्रिकाएं, चार दैनिक समाचार पत्र और 18 प्रकाशन हैं। यह एक टीवी समाचार चैनल जनम भी चलाता है। नंदकुमार कहते हैं कि संघ, जो सामाजिक परिवर्तन के लिए निःस्वार्थ सेवा पर ज़ोर देता है, पारंपरिक रूप से प्रचार से विमुख रहा है। हालांकि, इसने निहित स्वार्थों द्वारा संघ और उसके आदर्शों के विरुद्ध एक नकारात्मक और विकृत आख्यान का प्रचार करने के तीखे प्रहार का मुकाबला करने के लिए प्रचार विभाग की शुरुआत की। इसलिए संघ के लिए राष्ट्र के सर्वोच्च हित में एक सकारात्मक, राष्ट्रवादी दृष्टिकोण को बनाए रखना और प्रस्तुत करना अनिवार्य हो गया। यह प्रचार के प्रति उसके मूल दृष्टिकोण से विचलन का संकेत नहीं देता।
संघ पिछले कुछ दशकों में भारतीय सार्वजनिक विमर्श पर हावी रहा है और इसने भारत की सोच को लगभग बदल दिया है। आज इसका प्रकाशनों का एक सबसे बड़ा नेटवर्क है, जिसमें दैनिक समाचार पत्र, टीवी चैनल, साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्रिकाएं शामिल हैं। इसके संगठन सोशल मीडिया के क्षेत्र में पहले से कहीं अधिक सक्रिय हैं। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां संघ की प्रचार शाखा ने प्रवेश न किया हो। संघ का सीधे तौर पर कोई प्रकाशन नहीं है। जैसा कि सरसंघचालक मोहन भागवत अक्सर कहते हैं, संघ कुछ नहीं करेगा, लेकिन स्वयंसेवक हर क्षेत्र में प्रवेश करेंगे।
संघ के प्रकाशनों ने अक्सर सार्थक राष्ट्रीय बहसों को जन्म दिया है, चाहे वह गोहत्या, गंगा शुद्धिकरण, स्वदेशी अभियान, राम जन्मभूमि आंदोलन, अनुच्छेद 370 का उन्मूलन, समान नागरिक संहिता या फिर चुनाव सुधार और वक्फ बोर्डों के नाम पर अत्याचार हों। संघ ने स्वतंत्रता के बाद, 1940 के दशक के अंत में, लखनऊ से हिंदी में पांचजन्य और दिल्ली से अंग्रेजी में ऑर्गनाइज़र के रूप में अपना प्रकाशन शुरू किया। इसके बाद 1950 के दशक के आरंभ में कई क्षेत्रीय प्रकाशन संघ के बैनर तले आए। आज संघ के प्रकाशन हर भाषा में हैं और कहा जाता है कि संघ के प्रकाशनों का संयुक्त प्रसार लगभग 20 लाख है।
ऐसे समय में जब मुद्रित प्रकाशन अपनी पाठक संख्या खो रहे हैं, संघ के प्रकाशन अपनी प्रसार संख्या और पहुंच बनाए रखने में सफल रहे हैं। मलयालम में केसरी साप्ताहिक जैसे कई प्रकाशन विज्ञापनों पर निर्भर रहने की बजाय सदस्यता शुल्क से ज़्यादा चलते हैं। इसका प्रसार अब एक लाख से ज़्यादा है। समय के साथ, इन प्रकाशनों ने अपनी शैली, पहनावे और प्रकाशन की गुणवत्ता में बदलाव किया है। लगभग सभी प्रकाशनों के ऑनलाइन संस्करण उपलब्ध हैं और वे दुनिया भर के लाखों स्वयंसेवकों तक पहुंचते हैं।
जब संघ पर प्रतिबंध लगा था, तब संघ के प्रकाशनों को तीन बार प्रतिबंध का सामना करना पड़ा था। परंतु प्रतिबंध हटने के बाद इन प्रकाशनों को अपनी पाठक संख्या वापस पाने में कोई कठिनाई नहीं हुई। संघ के ज़्यादातर प्रकाशन निजी या सार्वजनिक लिमिटेड कंपनियों के नाम पर हैं और ये सभी आत्मनिर्भर हैं, लेकिन लाभ नहीं कमा रहे हैं। बेशक, उन्हें भाजपा शासित राज्यों से विज्ञापन सहायता मिलती है, लेकिन जब कांग्रेस या अन्य गैर-भाजपा दल सत्ता में होते हैं, तो उन्हें ऐसा समर्थन कम ही मिलता है। लंबे समय तक संघ के प्रकाशनों और यहां तक कि संघ समर्थक पत्रकारों को भी बहिष्कार का सामना करना पड़ा और किसी जाने-माने संघ कार्यकर्ता के लिए पत्रकारिता के क्षेत्र में अच्छी नौकरी पाना बेहद मुश्किल था। केंद्र और ज़्यादातर राज्यों में भाजपा की सरकार होने के बावजूद ऐसा भेदभाव आज भी मौजूद है।
राष्ट्रीय परिदृश्य में वामपंथी और कांग्रेस समर्थक पत्रिकाओं के प्रभुत्व की तुलना करना दिलचस्प है। आज़ादी के बाद कई दशकों तक वामपंथी और कांग्रेसी प्रकाशनों का ही मीडिया पर दबदबा रहा। कम्युनिस्टों के पास पैट्रियट, लिंक, गणशक्ति पत्रिका, देशाभिमानी, जनयुगम, न्यू एज और पीपुल्स डेमोक्रेसी जैसे कई प्रकाशन थे। इन प्रकाशनों को सोवियत संघ और भारत सरकार से भरपूर समरिथन और धन मिलता था। कांग्रेस सरकारों ने अपने और वामपंथी, दोनों ही प्रकाशनों को बड़े पैमाने पर संरक्षण दिया। कांग्रेस के पास भी नेशनल हेराल्ड, वीक्षणम, जय हिंद टीवी, नवजीवन और कौमी आवाज़ जैसे प्रकाशन थे। इन प्रकाशनों में करोड़ों रुपये डूबे होने के बावजूद आज इनमें से ज़्यादातर या तो बंद होने के कगार पर हैं या फिर गायब हो चुके हैं।
इसके विपरीत संघ के प्रकाशन अभी भी फल-फूल रहे हैं। मुख्यतः इसलिए कि वे किसी सरकारी सहायता या राजनीतिक संरक्षण पर निर्भर नहीं हैं। संघ के प्रकाशनों को चलाने के लिए धन मुख्य रूप से इसके कार्यकर्ताओं के योगदान से आता है। आपातकाल (1975) से पहले, भारत प्रकाशन, जो अब ऑर्गनाइज़र और पांचजन्य का संचालन कर रहा है, ने राष्ट्रीय राजधानी से द मदरलैंड नामक एक सफल अंग्रेजी दैनिक शुरू किया था। उस समय द मदरलैंड और ऑर्गनाइज़र में प्रकाशित लेखों पर इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाने और प्रेस सेंसरशिप लगाने के लिए उकसाने का आरोप लगाया गया था।
आपातकाल के दौरान द मदरलैंड के कार्यालय पर छापा मारा गया, उसके प्रेस और मशीनरी को जब्त कर लिया गया और उसके संपादक केआर मलकानी को उनकी संपादकीय टीम के साथ आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (मीसा) के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। फिर भी प्रतिरोध आंदोलन (आपातकाल) के दौरान संघ ने भूमिगत साहित्य के उत्पादन और वितरण में अग्रणी भूमिका निभाई। आपातकाल हटने के बाद वित्तीय बाधाओं के कारण द मदरलैंड को पुनर्जीवित नहीं किया जा सका। हालांकि ऑर्गनाइज़र और पांचजन्य फिर से सामने आए, लेकिन इन प्रकाशनों का प्रभाव इतना ज़्यादा था कि 1970 के दशक का जयप्रकाश नारायण आंदोलन मूलतः उनके प्रचार का ही परिणाम था। कुछ लोगों ने तो 1970 के दशक के अंत में जनता पार्टी में हुए विभाजन के लिए भी ऑर्गनाइज़र के लेखों को ही ज़िम्मेदार ठहराया।
जहां तक स्वामित्व का प्रश्न है, संघ अपने प्रकाशनों की संपादकीय नीति में सीधे हस्तक्षेप नहीं करता। संपादकों को पूरी स्वतंत्रता दी जाती है और 13 वर्षों तक ऑर्गनाइज़र के संपादक के रूप में, मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि संपादकीय नीति से संबंधित मुद्दों पर मुझे कभी किसी प्रकार का दबाव महसूस नहीं हुआ। संघ आमतौर पर राष्ट्रीय मुद्दों पर प्रतिक्रिया देने और उनकी व्याख्या करने का काम अपने प्रशिक्षित स्वयंसेवकों पर छोड़ देता है, जिन्हें संपादक के रूप में नियुक्त किया जाता है।
(लेखक, भाजपा के अखिल भारतीय प्रशिक्षण एवं प्रकाशन विभाग के सदस्य और ऑर्गनाइज़र के पूर्व संपादक हैं।)---------------body{font-family:Arial,sans-serif;font-size:10pt;}.cf0{font-family:Nirmala UI,sans-serif;font-size:11pt;}
हिन्दुस्थान समाचार / उदय कुमार सिंह