दीपोत्‍सव, भारत के हर घर में पहुंचाता है धन, धान्‍य और सुख
दीपावली पर लेख


- डॉ. मयंक चतुर्वेदी

भारत की सांस्कृतिक परंपराओं में दीपोत्सव एक धार्मिक अनुष्ठान होने के साथ ही राष्ट्र की आर्थिक धड़कन भी है। यह महालक्ष्मी दीपोत्सव श्रद्धा, समृद्धि और स्वाभिमान का संगम बना हुआ दिखता है, जिसमें परंपरा और प्रगति एक साथ दीप जला रही हैं। ये प्रकाशमान दीपक भारत की अर्थव्यवस्था, आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक गौरव को भी आलोकित करता है। पिछले साल 2024 में दीपोत्सव के दौरान देशभर में 4.75 लाख करोड़ रुपये का कारोबार हुआ था, जबकि 2025 में यह आंकड़ा 5 लाख करोड़ रुपये को पार करने की दिशा में बढ़ रहा है।

कहना होगा कि यह उपभोग का उत्सव भी है और भारत की बढ़ती क्रय शक्ति और आर्थिक आत्मविश्वास का प्रतीक भी है। खुदरा बाजारों, ई-कॉमर्स, परिधान, इलेक्ट्रॉनिक्स, मिठाई और ज्वेलरी क्षेत्रों में अभूतपूर्व तेजी देखने को मिली है। इस वृद्धि के केंद्र में आस्था के साथ-साथ एक नई आर्थिक चेतना है जोकि ‘स्वदेशी ही समृद्धि का आधार है।’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह आह्वान कि “वोकल फॉर लोकल बनो और लोकल को ग्लोबल बनाओ” अब दीपोत्सव के हर दीये में झलकने लगा है। मिट्टी के दीयों, हस्तनिर्मित उपहारों और देशी सजावट सामग्री की मांग में 2025 में 35% की वृद्धि हुई है।

प्रधानमंत्री मोदी का स्वदेशी संदेश अब एक जनआंदोलन बन गया है; जिससे कुम्हार, बुनकर, हस्तशिल्पी और महिला स्वयं सहायता समूहों को नई पहचान मिली है। जब उपभोक्ता स्वदेशी वस्तु खरीदता है, तो वह केवल उत्पाद नहीं लेता, बल्कि भारत की आत्मा को सशक्त करता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने हाल ही में कहा था कि भारत का विकास तभी सार्थक है जब वह ‘स्व’ के बोध से प्रेरित हो। उनका ‘पंच परिवर्तन’ जिसमें स्व-चिंतन, स्व-स्वरूप, स्व-भाव, स्व-बल और स्व-कार्य समाहित है, दीपोत्सव की भावना में जीवंत दिखाई देता है।

वस्‍तुत: जब समाज अपने जीवन में भारतीय दृष्टि को अपनाता है, अपने कारीगरों का सम्मान करता है और स्थानीय उत्पादन को प्राथमिकता देता है, तब वह स्वदेशी विकास की दिशा में अग्रसर होता है। दीपोत्सव का हर दीपक इस ‘स्व’ चेतना का प्रतीक है, जो आत्मनिर्भर भारत की नींव को मजबूत कर रहा है। अयोध्या दीपोत्सव 2025 इस वर्ष विश्व स्तर पर आकर्षण का केंद्र बना है। सरयू तट पर 28 लाख दीयों से जगमगाने की तैयारी न केवल एक विश्व रिकॉर्ड है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक एकता और आर्थिक समावेशन का उत्सव भी है। इस आयोजन में 33,000 स्वयंसेवक और हजारों ग्रामीण महिलाएं शामिल हैं, जिन्होंने अपने हाथों से मिट्टी के दीये बनाए हैं। इसके लिए 75 हजार लीटर तेल और 55 लाख रूई की बत्तियाँ तैयार की गई हैं। यह दृश्य केवल धार्मिक भक्ति का नहीं, ग्रामीण अर्थव्यवस्था में जीवंत रोजगार सृजन का प्रमाण है।

2024-25 के आर्थिक वर्ष में भारत की वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 6.4% से लेकर 9.8% तक भी पहुंचती हुई दिखी। वैश्विक मंदी के बावजूद भारत की आंतरिक मांग और उपभोग ने अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाए रखा। त्योहारी सीजन में खुदरा बिक्री, एफएमसीजी, इलेक्ट्रॉनिक्स और रियल एस्टेट में 12–15% की वृद्धि हुई है। डिजिटल भुगतान में भी तीव्र उछाल देखा गया, दीपोत्सव सप्ताह में यूपीआई लेनदेन 18% बढ़े। यह दिखाता है कि भारत की आर्थिक गति अब पूरी तरह तकनीकी और सांस्कृतिक दोनों आधारों पर टिकी है।

ग्रामीण भारत दीपोत्सव की आत्मा है। कुम्हारों के चाक से निकले मिट्टी के दीये और गांवों के हस्तनिर्मित उत्पाद इस पर्व के आर्थिक मूल हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान के लाखों कारीगरों ने इस वर्ष बाजारों को उजाला दिया। उत्तर प्रदेश सरकार ने महिला स्वयं सहायता समूहों से 5 लाख दीयों का निर्माण करवाया, जिससे ग्रामीण महिलाओं की आमदनी और आत्मनिर्भरता दोनों बढ़ीं। यह वही विचार है जो प्रधानमंत्री मोदी के ‘ग्रामीण भारत के पुनर्जागरण’ और भागवत जी के ‘स्व-कार्य’ सिद्धांत से मेल खाता है।

मुद्रास्फीति इस वर्ष औसतन 4.9% रही, जो भारतीय रिजर्व बैंक की सीमा के भीतर है। हालांकि खाद्य मुद्रास्फीति 8.4% तक पहुँची, लेकिन त्योहारी उपभोग और बढ़ते व्यापारिक प्रवाह ने आर्थिक स्थिरता बनाए रखी। दीपोत्सव जैसे अवसर न केवल उपभोग को बढ़ाते हैं, बल्कि सरकार के राजस्व संग्रह में भी सहायक सिद्ध होते हैं। अक्टूबर-नवंबर के महीनों में जीएसटी संग्रह में लगभग 13% की वृद्धि हुई, जो बताती है कि उत्सव काल भारत की आर्थिक प्रणाली को मजबूत करता है।

दीपोत्सव का सबसे बड़ा सामाजिक प्रभाव रोजगार सृजन के रूप में सामने आया है। इस सीजन में रिटेल सेक्टर, डिलीवरी सेवाओं, सजावट उद्योग और पर्यटन में लगभग 12 लाख अस्थायी नौकरियाँ सृजित हुई हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि सांस्कृतिक उत्सव सिर्फ भावनात्मक नहीं है, ये रोजगार आधारित आर्थिक गतिविधि बन चुके हैं।

अकेले अयोध्या में पर्यटन के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। अनुमान है कि दीपोत्सव सप्ताह में 25 लाख से अधिक पर्यटक यहां आएंगे। होटल, परिवहन, खाद्य और स्थानीय व्यापार में 20–25% तक की आमदनी बढ़ने की संभावना है। इससे स्पष्ट है कि अयोध्या दीपोत्सव अब धार्मिक पर्यटन से आर्थिक विकास की दिशा में अग्रसर है। इसी तरह से उज्‍जैन के महाकाल लोक, काशी विश्‍वनाथ जैसे अनेक मंदिर परिसरों में लाखों भक्‍त इन दिनों पहुंच रहे हैं। ऐसे में कहना होगा कि ये वही मॉडल है जिसे प्रधानमंत्री मोदी ‘संस्कृति आधारित अर्थनीति’ कहते हैं; जहां परंपरा, पर्यटन और व्यापार एक-दूसरे को सशक्त करते हैं।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी दीपोत्सव की आभा फैल रही है। ब्रिटेन, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों में भारतीय दूतावासों और प्रवासी भारतीय समुदायों द्वारा दीपोत्सव मनाया जा रहा है। यह भारत की सॉफ्ट पावर का जीवंत उदाहरण है, जिसने दुनिया में भारतीय संस्कृति की स्वीकृति और सम्मान को नई ऊँचाई दी है। अब दीपोत्सव केवल भारत का नहीं रह गया है, आज यह के वक्‍त में यह वैश्विक सांस्कृतिक उत्सव बन चुका है जो विश्व को यह संदेश देता है कि आध्यात्मिकता और आर्थिकता एक-दूसरे के पूरक हैं।

दीपोत्सव 2025 में भारत के विकास मॉडल के रूप में आज सभी के सामने है; एक ऐसा मॉडल जो पश्चिमी उपभोगवाद से भिन्न, भारतीय मूल्य-आधारित समृद्धि पर आधारित है। प्रधानमंत्री मोदी का ‘वोकल फॉर लोकल’, मोहन भागवत जी का ‘स्व’ दर्शन और भारत की जनशक्ति मिलकर एक नया आर्थिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण निर्मित कर रहे हैं। यह दृष्टिकोण बताता है कि जब समाज आत्मनिर्भरता, सहकारिता और स्वाभिमान की भावना से प्रेरित होता है, तब विकास राष्ट्र में स्‍वभाविक रूप से दिखाई देता है।

महालक्ष्मी दीपोत्सव 2025 इस बात का सजीव प्रमाण है कि भारत आज आस्था से आत्मनिर्भरता और संस्कृति से अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर है। 5 लाख करोड़ रुपये की आर्थिक सक्रियता, 28 लाख दीयों की आभा, 25 लाख पर्यटकों की उपस्थिति और 12 लाख रोजगारों की सृजनात्मक ऊर्जा यह सब भारत के नवोन्मेषी आत्मविश्वास का परिचायक है। जब हर घर का दीपक जलता है, तो केवल प्रकाश ही नहीं फैलता, बल्कि भारत की प्रगति, स्वदेशी चेतना और सांस्कृतिक गौरव भी दमक उठते हैं। दीपोत्सव पूजा का पर्व तो है ही साथ में यह आज हमें भारत की आर्थिक चेतना, सांस्कृतिक एकता और आत्मविश्वासी भविष्य का उत्सव बनकर सामने आता हुआ दिखता है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि जब श्रद्धा और स्वदेशी भावना एक साथ प्रज्वलित होती हैं, तो प्रकाश केवल दीयों में नहीं राष्ट्र की प्रत्‍येक चेतना से प्रवाहित होता है।

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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी