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-हरीश शिवनानी
वैश्विक राजनीति अक्सर ऐसी जटिल उलझनें पैदा कर देती है जहाँ सिद्धांत और व्यावहारिक राजनीति के बीच का अंतर पेचीदा हो जाता है। नोबेल शांति पुरस्कार 2025 विजेता वेनेजुएला की मारिया कोरिना मचाडो और भारत के कांग्रेस नेता राहुल गांधी को लेकर दिलचस्प परिदृश्य उत्पन्न हो गया गया है। मारिया अपने देश में सरकार के खिलाफ, लोकतंत्र, मतदान में धांधली, भ्रष्टाचार आदि को लेकर संषर्ष कर रही है। कांग्रेस और राहुल गांधी उनकी इस राजनीति की सराहना करते हैं क्योंकि ऐसा ही वे भारत में अपनी राजनीति में करने का दावा करते हैं। कांग्रेसी मारिया और राहुल को एक ही डाल का पंछी मानते हैं। यहाँ तक कि कांग्रेस के एक आधिकारिक प्रवक्ता ने तो राहुल गांधी के लिए भी नोबेल की मांग कर डाली। वे मारिया को राहुल गांधी की समर्थक मानते हैं। मारिया ने एक बार राहुल गांधी की तारीफ में ट्वीट भी किया था। दूसरी ओर वास्तिवकता यह है कि राहुल गांधी और कांग्रेस की सियासत और मारिया की राजनीति एवं विचारधारा में गहरा अंतर्विरोध है। यह अंतर्विरोध ही राहुल और कांग्रेस के लिए जटिल उलझन और गले की फांस बन गया गया है। मारिया की राजनीति अपनी जगह उनके लिए मुफ़ीद है लेकिन राहुल गांधी की सियासत अलग है।
मारिया को नोबेल की घोषणा करते हुए नॉर्वेजियन नोबेल समिति ने उन्हें ‘लोकतांत्रिक अधिकारों को बढ़ावा देने और तानाशाही के खिलाफ अथक प्रयास’ के लिए सराहा। हालांकि, मचाडो की धुर दक्षिणपंथी विचारधारा-जिसमें डोनाल्ड ट्रम्प का समर्थन, इजराइल की नीतियों की पक्षधरता और आर्थिक निजीकरण की वकालत शामिल है- ने कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए पसोपेश वाली स्थिति पैदा कर दी है।
मारिया कोरिना मचाडो का राजनीतिक उदय वेनेजुएला की समाजवादी सरकारों के खिलाफ प्रतिरोध पर आधारित है। 1967 में जन्मी मचाडो, एक पूर्व सांसद और इंजीनियर, 2012 से विपक्षी गठबंधन की प्रमुख रही हैं। उन्होंने ह्यूगो चावेज़ और निकोलास मादुरो की सरकारों पर चुनावी धांधली, भ्रष्टाचार और मानवाधिकार उल्लंघनों के आरोप लगाए। ऐसा ही राहुल गांधी भारत में भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ करते हैं। 2024 के राष्ट्रपति चुनाव में मादुरो सरकार ने मारिया को अयोग्य घोषित कर दिया, जिसके बाद उन्होंने एडमुंडो गोंजालेज़ को समर्थन देकर विपक्ष को एकजुट किया। इन प्रयासों ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय मान्यता दिलाई, जिसमें अमेरिकी प्रतिबंधों और विदेशी सहायता की मांग शामिल थी। मारिया की विचारधारा की अपनी राजनीति है। उन्होंने अपना पुरस्कार ट्रम्प को समर्पित करते हुए उन्हें ‘हमारे संघर्ष का निर्णायक समर्थक’ बताया। मारिया ने अपने देश में अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप की भी वकालत की, जिससे वेनेजुएला में आर्थिक संकट बढ़ा। इजराइल के प्रति उनका रुख साफ है। उन्होंने इजराइल को ‘स्वतंत्रता का सच्चा सहयोगी’ कहा और गाजा संघर्ष में इजराइली कार्रवाइयों का समर्थन किया। इसके अलावा, मचाडो राज्य तेल कंपनी पीडीवीएसए के निजीकरण की भी पक्षधर हैं, जो समाजवादी विचारधारा के विपरीत है।
इस बीच मारिया को नोबेल की घोषणा होते ही भारत में कांग्रेस ने मारिया के पुरस्कार को अपने राजनीतिक नैरेटिव से जोड़ने का प्रयास किया। कांग्रेस नेता राशिद अल्वी ने कहा कि मारिया ने वेनेजुएला में लोकतंत्र के लिए जो संघर्ष किया, वही राहुल गांधी भारत में कर रहे हैं। पार्टी प्रवक्ता सुरेंद्र राजपूत ने सोशल मीडिया पर मचाडो की तुलना राहुल गांधी से की, उन्हें ‘संविधान बचाने का योद्धा’ बताते हुए उनके लिए भी नोबेल पुरस्कार की मांग कर डाली। यह तुलना कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा है, जहां राहुल गांधी को चुनावी धांधली, संस्थागत क्षरण और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर मुखर दिखाया जाता है। विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखें तो यह नैरेटिव बहुत सतही है और राहुल तथा मारिया के बीच वैचारिक विरोधाभासों को अनदेखा करता है।
कांग्रेस की ऐतिहासिक विचारधारा समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और साम्राज्यवाद-विरोध पर टिकी है। पार्टी ने फिलिस्तीन मुद्दे पर हमेशा समर्थन दिया, जो उसके मुस्लिम मतदाता आधार और वामपंथी सहयोगियों से जुड़ा है। मारिया का इजराइल-समर्थक रुख कांग्रेस की नीतियों से सीधा टकराव पैदा करता है। कांग्रेस ने गाजा हमलों की निंदा की है, जबकि मारिया ने इजराइल को ‘स्वतंत्रता का सहयोगी’ बताया।
इसी प्रकार, मचाडो का ट्रम्प समर्थन कांग्रेस के लिए असहज है, जिसने भाजपा पर ‘ट्रम्प-मोदी गठजोड़’ के आरोप लगाए हैं। मचाडो की निजीकरण नीति भी कांग्रेस की समाजवादी नीति के विपरीत है। विश्लेषणात्मक रूप से, ये अंतर्विरोध कांग्रेस की वैचारिकता को चुनौती देते हैं। यदि कांग्रेस मारिया का समर्थन जारी रखती है, तो यह उसके वोट बैंक और सहयोगी दलों में दरार डाल सकती है, विशेष रूप से मुस्लिम और वामपंथी समूहों में, जहां मचाडो को ‘इजराइल-समर्थक’ माना जाता है। यदि पार्टी मचाडो का समर्थन करती है, तो वह वैचारिक समझौता करेगी, जिससे वोट बैंक दरक सकता है- उदाहरण के लिए, 2024 चुनावों में मुस्लिम वोटों का करीब 70 प्रतिशत कांग्रेस को मिला था। यदि मौन साधती है या आलोचना करती है, तो भाजपा इसे ‘लोकतंत्र-विरोधी’ बताकर प्रचार करेगी।
राहुल गांधी की व्यक्तिगत स्थिति और भी जटिल है; वे न तो पूर्ण समर्थन कर पा रहे हैं और न विरोध। यह गहन दुविधा, जटिल उलझन कांग्रेस की रणनीतिक कमजोरी को उजागर करती है। राजनीतिक विश्लेषण की दृष्टि से उनके मारिया कोरिना मचाडो का नोबेल पुरस्कार लोकतंत्र संघर्ष को मान्यता तो देता है लेकिन यह वैचारिक जटिलताओं को भी सामने लाता है। कांग्रेस के लिए यह एक अवसर था जो दुविधा में बदल गया और गले की फांस बन गया जिससे निपटना बहुत मुश्किल है।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश