गाजा में हमास की क्रूरता के बीच ‘रहम’ की अपील का औचित्य क्‍या है?
गाजा में हमास की क्रूरता


डॉ. मयंक चतुर्वेदी

इजराइल और गाजा के बीच संघर्ष विराम (सीजफायर) की घोषणा के बावजूद हिंसा का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। दुनिया भर में शांति और राहत की अपीलें जारी हैं, पर गाजा से आई एक भयावह घटना ने फिर से पूरी मानवता को झकझोर दिया है। 14 अक्टूबर 2025 का एक वीडियो सामने आया, जिसमें हमास के लड़ाके आठ लोगों को आँखों पर पट्टी बाँधकर, घुटनों के बल बिठाकर गोलियों से भून देते हैं। चारों ओर से मजहबी नारे गूंजते हैं और यह दृश्य किसी भी संवेदनशील और लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में विश्‍वास रखनेवाले व्यक्ति के दिल को हिला देता है।

विडंबना यह है कि यह घटना उसी दिन हुई जब अमेरिका, तुर्की, मिस्र और क़तर की मध्यस्थता में गाजा के लिए शांति प्रस्ताव पारित किया गया था। सवाल उठता है, जब सीजफायर लागू था, तब यह निर्मम हिंसा क्यों? और क्या “गाजा के लिए शांति” की अपील करने वालों को यह नहीं देखना चाहिए कि स्वयं गाजा में हमास किस तरह का आतंक फैला रहा है? अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि हाल के दिनों में हमास ने अपने ही क्षेत्र के कई लोगों को “इसराइल से सहयोग” के शक में सार्वजनिक रूप से मौत के घाट उतार दिया। इन लोगों को बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के गोली मार दी गई। न अदालत, न सुनवाई, न बचाव का अधिकार। शवों पर बंधे हाथों और पट्टी बंधी आँखों के निशान यह साबित करते हैं कि यह सब योजनाबद्ध था।

युद्धविराम के बाद जब आम नागरिक राहत की उम्मीद कर रहे थे, तब हमास के हथियारबंद दस्ते सड़कों पर उतरे और अपने विरोधियों या संदिग्धों को पकड़कर सरेआम दंडित करने लगे। यह दहशत का शासन है, जहाँ सवाल उठाना गुनाह और असहमति देशद्रोह बन जाती है। क्‍या यह सही है? भारत समेत पूरी दुनिया में गाजा के समर्थन में आवाजें उठती हैं। सड़कों पर इंसाफ, इंसानि‍यत के नारे गूंजते हैं, लेकिन जब “रहम” या “शांति” की बात की जा रही है, तो हमास जैसे सशस्त्र आतंकी समूह लोगों पर अत्याचार करते, हिंसा करते और उन्‍हें मौंत के घाट उतारते हुए नजर आ रहे हैं?

इन क्रूरता भरे दृश्यों को देखकर तो यही लग रहा है कि शांति की अपील तभी सार्थक है जब वह न्याय के साथ खड़ी हो। हमास जैसे संगठन, जो अपने ही नागरिकों को घुटनों पर बैठाकर गोली मारते हैं, उनके प्रति “रहम” की अपील वस्तुतः मानवता के साथ अन्याय है। अंतरराष्ट्रीय कानून विशेष रूप से जिनेवा संधियाँ यह स्पष्ट करती हैं कि किसी भी संघर्ष में नागरिकों की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता है। बिना मुकदमे के हत्या, सार्वजनिक निष्पादन और यातना सीधे-सीधे युद्ध अपराध की श्रेणी में आते हैं। ऐसे में स्‍वभाविक तौर पर हमास द्वारा किए गए ये सार्वजनिक निष्पादन अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन हैं। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद और अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय को इन पर स्वतः संज्ञान लेना चाहिए।

हमास को कुछ लोग “प्रतिरोध संगठन” कहते हैं, लेकिन उसकी कार्यशैली किसी भी आधुनिक राजनीतिक आंदोलन से अधिक क्रूर और सत्तालोलुप है। उसका ढाँचा इस्‍लामिक महजब की कट्टर व्याख्या और भय के शासन पर आधारित है। हथियार उसके लिए केवल रक्षा का साधन नहीं, सत्ता का प्रतीक हैं। स्थानीय पत्रकारों की रिपोर्टें बताती हैं कि सीजफायर के बाद भी हमास के लड़ाके गश्त पर हैं और जो कोई भी बाहरी संपर्क या आलोचना की कोशिश करता है, उसे “देशद्रोही” कहकर गायब कर दिया जाता है।

वस्‍तुत: आज ये सभी को समझना होगा कि जो संगठन इस्‍लामिक मजहब के नाम पर आतंक और सार्वजनिक निष्पादन को वैध ठहराते हैं, उन पर रहम नहीं, जवाबदेही आवश्यक है। क्योंकि जब अपराधी “रहम” को अपनी ढाल बना लेते हैं, तब न्याय का हनन होता है। भारत में गाजा के समर्थन में उठती आवाजें यह दर्शाती हैं कि यहाँ के लोग संवेदनशील हैं और विश्व-मानवता के प्रति सहानुभूति रखते हैं। लेकिन संवेदना और यथार्थ के बीच की रेखा को समझना भी जरूरी है। यदि कोई वास्तव में गाजा के नागरिकों की चिंता करता है, तो उन्‍हें यह भी कहना चाहिए कि “हमास को हथियार डालने चाहिए, न्यायिक प्रक्रिया बहाल होनी चाहिए और असहमति का अधिकार सुरक्षित रहना चाहिए।” यही सच्चा मानवीय दृष्टिकोण होगा।

हालांकि सोशल मीडिया के इस दौर में गाजा या इसराइल से जुड़ी तस्वीरें और वीडियो सेकंडों में वायरल हो जाते हैं। पर हर दृश्य सत्य नहीं होता। कई वीडियो पुराने या संपादित होते हैं। इसीलिए हर जानकारी को आँख मूँदकर स्वीकार करना खतरनाक है। तथ्यों की जांच और सत्यापन आवश्यक है। फिर भी, जिन घटनाओं की पुष्टि अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने की है, जैसे हमास द्वारा किए गए सार्वजनिक निष्पादन; उन्हें किसी प्रचार से नकारा नहीं जा सकता। जब किसी को घुटनों पर बिठाकर सिर में गोली मारी जाती है और भीड़ मजहबी नारे लगाती है, तो यह सीधे- सीधे इस्‍लामिक मजहबी हिंसा नजर आती है। यह निर्मम हत्‍याएं हैं, जिसका कोई औचित्य नहीं।

वास्तव में सोचा जाए तो गाजा का संकट आज युद्ध से कहीं अधिक मानवता के दोहरे मापदंडों का भी दर्पण है। एक ओर दुनिया हिंसा रोकने की अपील करती है, दूसरी ओर वही दुनिया अक्सर उन संगठनों को अनदेखा कर देती है जो मजहब की आड़ में निर्दोषों का खून बहाते हैं। यही कारण है कि आज सवाल यह नहीं कि शांति चाहिए या नहीं; बल्कि यह है कि शांति किसके लिए चाहिए? निर्दोष नागरिकों के लिए या हथियारबंद आतंकी गिरोहों के लिए?

ऐसे में कहना यही होगा कि गाजा में सच्ची शांति तब ही आएगी जब वहां आतंक और भय का अंत होगा। जब हमास की बंदूकें खामोश होंगी, तभी गाजा के बच्चों की सच्‍ची हँसी लौटेगी। यहां जब मजहबी नारों की जगह स्कूलों से ज्ञान के स्वर गूंजेंगे, तब ही वास्‍तविक तौर पर यह कहा जा सकेगा कि गाजा को राहत मिली है। तब तक यह “रहम” का नहीं, “न्याय” का समय है। क्योंकि रहम तब पवित्र होता है जब वह निर्दोषों की रक्षा करता है और न्याय तब सार्थक होता है जब वह अपराधियों को भी जवाबदेह बनाता है। फिलहाल गाजा में यह होता हुआ नजर नहीं आ रहा है।

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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी