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- डॉ प्रियंका सौरभ
दीपावली वर्ष का वह पर्व है जो केवल अंधकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर के तमस को मिटाकर आत्मिक प्रकाश जगाने का संदेश देता है। यह वह दिन है जब लोग घरों को सजाते हैं, दीपक जलाते हैं, नए वस्त्र पहनते हैं और मिठाइयाँ बाँटते हैं। परंतु क्या हमने कभी ठहर कर सोचा है कि असली दीपावली क्या केवल घर की सफाई और रोशनी से पूरी हो जाती है? क्या वास्तव में वह अंधकार, जिसके नाश के लिए यह पर्व मनाया जाता है, केवल दीवारों और आँगन में होता है या हमारे मन और व्यवहार में भी कहीं छिपा है?
आज का समाज बाहरी चमक में इतना उलझ गया है कि भीतर की रोशनी मद्धम पड़ती जा रही है। दीपावली अब अक्सर दिखावे, खर्च और प्रतिस्पर्धा का उत्सव बनती जा रही है। लोग इस दिन अपने घर को हजारों लाइटों से सजा देते हैं, लेकिन अपने मन के कोनों में बसे अंधकार- ईर्ष्या, अहंकार, असंतोष और असहनशीलता को नजरअंदाज कर देते हैं। त्योहार का असली उद्देश्य यही था कि हम अपने भीतर झाँकें, संबंधों को सहेजें और अपने चारों ओर स्नेह की रोशनी फैलाएं। मगर आज यह भावना बाज़ार और भौतिकता के शोर में खोती जा रही है।
दीपावली केवल लक्ष्मी के आगमन का नहीं बल्कि आत्ममंथन का भी समय है। जब हम घर के हर कोने की धूल झाड़ते हैं, तो दरअसल हमें अपने मन की धूल भी झाड़नी चाहिए- पुरानी शिकायतें, मतभेद, कटुता और तनाव। हर दीपक यह याद दिलाता है कि अंधकार मिटाने के लिए केवल एक दीप ही काफी होता है, बशर्ते वह सच्चे मन से जलाया गया हो। परिवार में एक छोटी सी मुस्कान, एक क्षमा का भाव, एक प्रेमपूर्ण संवाद- यही वे दीप हैं जो रिश्तों के कोनों को रोशन करते हैं।
आज के दौर में यह पर्व मानसिक स्वास्थ्य के संदर्भ में भी बहुत मायने रखता है। तेज़ भागदौड़, सामाजिक दबाव, कामकाजी तनाव और डिजिटल दुनिया की भागमभाग में इंसान भीतर से खाली होता जा रहा है। त्यौहारों को भी हमने एक “इवेंट” बना दिया है- फोटोशूट, सोशल मीडिया पोस्ट और महंगे तोहफों की परंपरा ने उसकी आत्मा को कमजोर कर दिया है। हमें यह याद रखना होगा कि दीपावली का आनंद केवल बाहरी सजावट में नहीं, बल्कि उस मानसिक सुकून में है जो हमें अपनेपन, संवाद और आत्मीयता से मिलता है।
आजकल के बच्चे और युवा पटाखों की चमक में खुशियाँ ढूंढते हैं। लेकिन क्या हमें यह अधिकार है कि अपनी खुशी के लिए पर्यावरण को प्रदूषित करें? धुएं और शोर से भरी हवा में सांस लेता हर जीव, हर बच्चा और हर बुज़ुर्ग इस खुशी की कीमत चुका रहा है। असली आनंद तो तब है जब हमारे दीपक किसी को कष्ट न दें। जब हम धरती माँ के प्रति भी उतने ही संवेदनशील हों जितने अपने घर के प्रति। पर्यावरण के अनुकूल दीपावली मनाना अब केवल विकल्प नहीं, जिम्मेदारी बन चुकी है। मिट्टी के दीप, प्राकृतिक रंगों की सजावट और स्थानीय उत्पादों का उपयोग करके भी हम इस पर्व को सुंदर बना सकते हैं — और यह सौंदर्य कृत्रिम रोशनी से कहीं अधिक स्थायी है।
दीपावली के अवसर पर एक और अंधकार मिटाने की आवश्यकता है- वह है अकेलेपन और मानसिक बेचैनी का अंधकार। त्योहार का मौसम बहुतों के लिए उत्सव का होता है, लेकिन कुछ लोगों के लिए यह यादों और उदासी का समय भी होता है। जिनके अपने दूर हैं, जो किसी प्रिय को खो चुके हैं, या जो आर्थिक और सामाजिक संघर्षों से जूझ रहे हैं- उनके लिए यह रोशनी कई बार चुभन का कारण बनती है। ऐसे में समाज का कर्तव्य है कि वह अपने आसपास के ऐसे लोगों को भी इस रोशनी में शामिल करे। दीपावली का असली अर्थ तभी पूर्ण होगा जब किसी के घर का अंधकार भी हमारे दीप से दूर हो।
हमारे शास्त्र कहते हैं- तमसो मा ज्योतिर्गमय- यानी हमें अंधकार से प्रकाश की ओर जाना चाहिए। यह प्रकाश केवल दीपक का नहीं बल्कि ज्ञान, विवेक और करुणा का है। जब मन में करुणा का प्रकाश जलता है, तो वह हजारों दीपकों से अधिक उजाला फैलाता है। दीपावली हमें यही सिखाती है कि जीवन में प्रकाश फैलाना केवल दिए जलाने का नहीं, बल्कि दया, सत्य और प्रेम की राह पर चलने का प्रतीक है।
त्योहारों का मकसद केवल परंपरा निभाना नहीं होता। वे हमें रुककर सोचने का अवसर देते हैं कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। दीपावली हमें याद दिलाती है कि जो प्रकाश बाहर है, वह तभी स्थायी होगा जब भीतर भी उजाला हो। जब हम अपने भीतर के राम को जगाते हैं और रावण रूपी अहंकार, द्वेष और लालच को जलाते हैं, तभी सच्ची दीपावली मनती है।
आज के समय में यह भी जरूरी है कि हम दीपावली को “समावेशिता का पर्व” बनाएं। समाज में विभाजन की दीवारें, जाति-धर्म के मतभेद, आर्थिक असमानता — ये सब हमारे युग के अंधकार हैं। अगर हर व्यक्ति अपने स्तर पर थोड़ा सा प्रकाश फैला सके- किसी गरीब को भोजन दे दे, किसी बच्चे की शिक्षा में सहयोग करे, किसी बीमार को सहारा दे- तो वही दीपावली सबसे उज्ज्वल होगी। असली लक्ष्मी वही है जो करुणा, दया और सेवा के रूप में घर में प्रवेश करे।
दीपावली व्यापार का भी पर्व मानी जाती है। यह समय होता है जब बाजारों में रौनक रहती है, कारोबारियों की आशाएं बढ़ती हैं। लेकिन व्यापारी समुदाय को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि सच्चा लाभ केवल आर्थिक नहीं, नैतिक भी होता है। ईमानदारी, पारदर्शिता और ग्राहक के प्रति सम्मान ही वह पूंजी है जो लंबे समय तक टिकती है। जब बाजार में विश्वास का दीप जलेगा, तभी समाज समृद्ध होगा।
हमारी संस्कृति में यह भी कहा गया है कि “दीपावली केवल संपन्नता का नहीं, संयम का भी प्रतीक है।” इसलिए अत्यधिक उपभोग, दिखावा और प्रतिस्पर्धा से बचना ही सच्ची श्रद्धा है। यह पर्व हमें सिखाता है कि “थोड़े में भी बहुत” कैसे पाया जा सकता है। जिस घर में प्रेम, संतोष और एकता है, वहाँ हर दिन दीपावली है।
आज जरूरत है कि हम दीपावली को एक आध्यात्मिक और सामाजिक आंदोलन के रूप में देखें। हर व्यक्ति अपने जीवन में एक संकल्प लें कि वह किसी न किसी रूप में प्रकाश फैलाएगा। कोई ज्ञान के दीप जलाएगा, कोई सहायता का, कोई प्रेम का। जब हर व्यक्ति एक दीप बनेगा, तो समाज में ऐसा उजाला फैलेगा जिसे कोई अंधकार मिटा नहीं सकेगा।
कभी-कभी यह भी आवश्यक है कि हम इस पर्व को कुछ पल की शांति के साथ मनाएँ। आत्मचिंतन के कुछ क्षण, अपने प्रियजनों के साथ समय बिताना, और अपनी उपलब्धियों व कमियों पर विचार करना भी दीपावली का हिस्सा होना चाहिए। जब हम अपने भीतर के दीप से मार्ग रोशन करते हैं, तो जीवन में दिशा स्पष्ट होती है।
दीपावली का अर्थ केवल “दीप” नहीं, “आवली” अर्थात् श्रृंखला भी है। यह श्रृंखला बताती है कि प्रकाश एक से दूसरे तक पहुँचता है। यही मानवता का मूल संदेश है -एक दीप दूसरे को जलाए, एक दिल दूसरे को रोशन करे। तभी यह संसार अंधकार से मुक्त हो सकेगा।
अंततः, इस दीपावली पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम केवल अपने घर को नहीं, बल्कि अपने विचारों, व्यवहारों और समाज को भी प्रकाशित करेंगे। शोर और प्रदूषण से दूर, सरलता और स्नेह से भरी दीपावली ही सच्चे अर्थों में “खुशियों और सुकून की दीपावली” होगी। यही दीपक भारत की संस्कृति का प्रतीक बनेगा- जहाँ रोशनी केवल बिजली से नहीं, बल्कि इंसानियत से फैलती है।
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश