मारिया मचाडो और लोकतंत्र की लौ
डॉ. सत्यवान सौरभ


- डॉ. सत्यवान सौरभ

वर्ष 2025 का नोबेल शांति पुरस्कार वेनेजुएला की विपक्षी नेता मारिया कोरीना मचाडो को मिला है। यह पुरस्कार न केवल एक व्यक्ति का सम्मान है, बल्कि उस विचार का भी जो यह मानता है कि लोकतंत्र केवल संस्थागत ढांचे से नहीं बल्कि व्यक्तिगत साहस, नैतिक प्रतिबद्धता और जनता के विश्वास से जीवित रहता है। संघर्षग्रस्त समाजों में जहाँ भय, हिंसा और सेंसरशिप का वातावरण हो, वहाँ व्यक्ति का नैतिक साहस ही लोकतंत्र की पहली लौ बनता है।

लोकतंत्र का अर्थ केवल चुनाव, संसद या संविधान तक सीमित नहीं है; यह एक नैतिक संस्कृति है, जहाँ नागरिकों को अपनी बात कहने, असहमति जताने और न्याय पाने का अधिकार होता है। परन्तु जब सत्ता निरंकुश हो जाती है, जब प्रेस पर अंकुश लगाया जाता है, जब विरोध को देशद्रोह कहा जाता है- तब लोकतंत्र की आत्मा घायल होती है। ऐसे समय में कोई भी आंदोलन, चाहे वह राजनीतिक हो या सामाजिक, तभी टिक पाता है जब उसमें व्यक्तिगत नेतृत्व का साहस और नैतिकता की दृढ़ता हो।

तानाशाही शासन के खिलाफ सबसे पहली दीवार वही व्यक्ति खड़ी करता है जो भय के आगे झुकता नहीं। व्यक्तिगत साहस का अर्थ है- अन्याय के विरुद्ध सत्य कहना, चाहे परिणाम कितना भी कठोर क्यों न हो। मारिया कोरीना मचाडो ने यही किया। उन्होंने गिरफ्तारी, प्रतिबंध, और धमकियों के बावजूद वेनेजुएला में शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक परिवर्तन की आवाज बुलंद रखी। इतिहास साक्षी है कि प्रत्येक युग में जब लोकतंत्र संकट में पड़ा, तो एक व्यक्ति के नैतिक साहस ने ही समाज को दिशा दी। महात्मा गांधी ने भारत में अहिंसक प्रतिरोध की परंपरा गढ़ी, मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन में रंगभेद के विरुद्ध आवाज उठाई और आंग सान सू की ने म्यांमार में दशकों तक सैन्य शासन के खिलाफ लोकतांत्रिक संघर्ष का नेतृत्व किया। इन सबने यह सिद्ध किया कि साहस सत्ता का विरोध नहीं, सत्य की सेवा है।

जब लोग अत्याचार से थक कर मौन हो जाते हैं, तब एक व्यक्ति का साहस सामूहिक चेतना को जगाता है। ऐसे साहसी लोग न केवल प्रतिरोध करते हैं बल्कि जनता में नैतिक आशा भी जगाते हैं कि परिवर्तन संभव है। मारिया मचाडो का नेतृत्व इसी प्रकार जनता को अहिंसक संगठित प्रतिरोध के लिए प्रेरित करता रहा। वेनेजुएला की जनता में लोकतांत्रिक उम्मीदें जिंदा रखना ही उनका सबसे बड़ा योगदान है।

तानाशाही शासन हमेशा सूचना और विचार की स्वतंत्रता से डरता है। ऐसे माहौल में जो व्यक्ति सत्य बोलता है, वह स्वयं एक संस्था बन जाता है। महात्मा गांधी का ‘सत्याग्रह’ इसका श्रेष्ठ उदाहरण है- जहाँ सत्य को हथियार बनाया गया और हिंसा को त्यागा गया। इसी प्रकार नेल्सन मंडेला ने वर्षों की कैद के बावजूद प्रतिशोध नहीं बल्कि क्षमा और मेल-मिलाप का रास्ता चुना। उनका साहस केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक और मानवतावादी था।

इतिहास बताता है कि जब भी महिलाओं ने नेतृत्व संभाला, उन्होंने संघर्ष को संवाद, संवेदना और समावेशिता में बदला। मारिया मचाडो, एलेन जॉनसन सर्लीफ, मलाला यूसुफजई या कोरियाई मानवाधिकार कार्यकर्ता यो ह्योन-ही, सभी ने यह दिखाया कि शांति और लोकतंत्र की राह हिंसा नहीं, संवेदना से बनती है। महिला नेतृत्व समाज में एक नैतिक संतुलन लाता है, जहाँ संघर्ष का उद्देश्य केवल सत्ता परिवर्तन नहीं बल्कि मानव गरिमा की पुनर्स्थापना होता है।

नैतिक नेतृत्व केवल राजनीतिक कौशल नहीं होता, वह समाज के भीतर विश्वास का पुनर्निर्माण करता है। ऐसा नेतृत्व विरोध के साथ-साथ समाधान की राह भी दिखाता है। उसकी दृष्टि अल्पकालिक लाभों पर नहीं, बल्कि दीर्घकालिक न्याय और समानता पर होती है। जब संस्थाएँ विफल होती हैं, तब एक नेता का चरित्र ही उसकी शक्ति बनता है। पोलैंड के नेता लेच वालेसा का सॉलिडेरिटी आंदोलन इसी का उदाहरण है, जहाँ मजदूरों के हक की लड़ाई ने पूरे राष्ट्र को लोकतंत्र की ओर मोड़ दिया। नेल्सन मंडेला का ‘ट्रुथ एंड रिकॉन्सिलिएशन कमीशन’ इस बात का प्रतीक है कि सत्य और क्षमा साथ चल सकते हैं।

लोकतांत्रिक नेतृत्व केवल घरेलू संघर्ष तक सीमित नहीं रहता; वह घरेलू पीड़ा को वैश्विक विमर्श में बदल देता है। मारिया मचाडो ने मानवाधिकार मंचों पर जाकर वेनेजुएला के संघर्ष को विश्व की चेतना से जोड़ा, जिससे अंतरराष्ट्रीय दबाव बना। यही कारण है कि आज वेनेजुएला की कहानी केवल एक देश की नहीं, बल्कि दुनिया के हर संघर्षग्रस्त समाज की कहानी बन गई है।

तानाशाही का सबसे बड़ा हथियार भय होता है। नैतिक नेता उस भय को तोड़ते हैं और जनता को विश्वास दिलाते हैं कि सत्ता सीमित है, पर जनता असीम है। लोकतंत्र का अस्तित्व इसी विश्वास पर टिका है कि हर नागरिक की आवाज मायने रखती है। भय को खत्म कर जब नागरिक बोलना शुरू करते हैं, तभी लोकतंत्र सांस ले पाता है।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी व्यक्तिगत साहस और नैतिक नेतृत्व का अद्भुत उदाहरण देखने को मिला। भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं ने यह दिखाया कि लोकतंत्र का जन्म संघर्ष से होता है और उसका पालन-पोषण नैतिक साहस से। आज भी भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में नागरिक अधिकारों की रक्षा तभी संभव है जब समाज में ऐसे नेतृत्व की भावना जीवित रहे।

लोकतंत्र केवल संस्थाओं से नहीं चलता, बल्कि उस भावना से जो नागरिकों के भीतर होती है। यदि समाज में भय, लालच या नफरत हावी हो जाए तो लोकतंत्र का स्वरूप कमजोर हो जाता है। ऐसे समय में नेता का काम केवल नीतियाँ बनाना नहीं, बल्कि नैतिक आदर्श प्रस्तुत करना होता है- जो जनता को यह सिखाए कि स्वतंत्रता का अर्थ केवल अधिकार नहीं, बल्कि कर्तव्य और अनुशासन भी है।

आज दुनिया के अनेक हिस्सों में लोकतंत्र खतरे में है- रूस, ईरान, म्यांमार, अफगानिस्तान, बेलारूस, सूडान, यहाँ तक कि कुछ विकसित लोकतंत्रों में भी सत्ता केंद्रीकरण और सूचना नियंत्रण की प्रवृत्ति बढ़ रही है। ऐसे में मारिया कोरिना मचाडो का साहस हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र की रक्षा बंदूकों से नहीं बल्कि सच बोलने वालों से होती है।

संघर्षग्रस्त समाजों में लोकतंत्र की रक्षा किसी संस्था, सेना या विदेशी सहायता से नहीं होती- वह उन साहसी व्यक्तियों से होती है जो सत्य, स्वतंत्रता और न्याय में विश्वास रखते हैं। वे जानते हैं कि परिवर्तन की राह कठिन है, परन्तु वह स्थायी होती है। मारिया कोरिना मचाडो का उदाहरण हमें यह सिखाता है कि नैतिक साहस ही वह दीपक है जो अधिनायकवाद के अंधेरे में लोकतंत्र की लौ को जीवित रखता है।

यह स्पष्ट है कि व्यक्तिगत नेतृत्व और नैतिक साहस लोकतंत्र की आत्मा हैं। संघर्षग्रस्त समाजों में वही नेता सफल होता है जो जनता को भय से मुक्ति दिलाकर विश्वास, सत्य और अहिंसा की राह दिखाता है। ऐसे व्यक्तित्व ही मानवता को यह संदेश देते हैं कि तानाशाही अस्थायी है, पर लोकतंत्र और सत्य शाश्वत हैं।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश