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उदयपुर, 9 जून (हि.स.)। सभ्यता बाजार से जुड़ी होती है और संस्कृति आत्मा से जुड़ी होती है। और संस्कृति हमारी कलाओं में दृष्टिगोचर होती है। भारतीय कला दृष्टि जीवन का अभिन्न अंग रही है।
यह बात संस्कार भारती के अखिल भारतीय कार्यकारिणी सदस्य तथा संगीत विधा प्रमुख अरुण कांत ने रविवार को यहां प्रताप गौरव केन्द्र ‘राष्ट्रीय तीर्थ’ में चल रहे महाराणा प्रताप जयंती समारोह के तहत ‘भारतीय कला में सांस्कृतिक राष्ट्र दृष्टि’ विषयक विशेष व्याख्यान में कही।
उन्होंने कहा कि जीवन की सहजता कला का अंग है। जब हम कलाओं का नाम लेते है तो सबसे पहले वेदों की ओर ध्यान जाता है। हम मूलतः ललित कला की 5 विधाओं से परिचित हैं। अथर्ववेद में 64 कलाओं का वर्णन है। गहराई में जाकर विचार करेंगे तो भारतीय कलाओं में सर्वकल्याण का संदेश प्रतिपादित होगा।
अयोध्या में प्रतिष्ठापित भगवान रामलला का चित्र स्वरूप बनाने वाले डॉ. सुनील विश्वकर्मा भी मंचासीन थे। उन्होंने ‘चोरी भी एक कला है’ विषय परएक चोर की कहानी सुनाते हुए कहा कि कला की नकारात्मकता के बजाय सकारात्मकता की ओर बढ़ना भारतीय संस्कृति का बोध है। भारतीय संस्कृति में कला को जीवन कल्याण का मार्ग कहा गया है। कला मान-अभिमान व अन्य विकारों से विमुक्त करती है।
उन्होंने कहा कि वे उस जगह से आए हैं जहां प्रसिद्ध कवि श्यामनारायण पांडेय ने महाराणा प्रताप की तलवार की ख्याति पर अपनी रचना लिखी है।
डॉ. विश्वकर्मा ने अपनी चीन यात्रा के संस्मरणों को सुनाते हुए कहा कि चीनी प्रोफेसर भारतीय चित्रकला का मजाक उड़ा रहे थे, तब विश्वकर्मा ने उन्हें एक चुनौती दी, जिसे चीनी प्रोफेसर पूरा नहीं कर पाए। उन्होंने कहा कि भारतीय चित्रकला में वे सभी विधाएं हैं जो किसी भी विषय वस्तु का जीवंत चित्रण कर सकती हैं।
उन्होंने कहा कि जहां ग्रंथ किसी विषय को समझाने में कमजोर रह जाते हैं, वहां उनका चित्ररूप उस विषय को सहजता से समझा देता है। आज भी यह बात नन्हें बालकों की आरंभिक शिक्षा में अक्षरशः लागू होती है। डॉ. विश्वकर्मा ने व्याख्यान के दौरान मात्र 30 मिनट में एक्रिलिक कलर से लाइव डेमो देते हुए महाराणा प्रताप की पेंटिंग भी बनाई।
व्याख्यान के आरंभ में संस्कार भारती उदयपुर के अध्यक्ष व सुखाड़िया विश्वविद्यालय के फाइन आर्ट प्रोफेसर मदन सिंह राठौड़ ने दोनों अतिथियों का स्वागत किया और परिचय दिया।
हिन्दुस्थान समाचार/ सुनीता/ईश्वर