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दशहरा और दीवाली के बीच के ये बीस दिन
-रमेश शर्मा
लंकाविजय के बाद रामजी को अयोध्या लौटने में पूरे बीस दिन लगे। यह अवधि अनावश्यक विलंब या अपनी विजय का उत्सव मनाने की नहीं है अपितु रामजी द्वारा पूरे भारतवर्ष और प्रत्येक समाज को समरस बनाने की अवधि है, जिसका स्पष्ट वर्णन बाबा तुलसी ने रामचरितमानस में किया है। आज भी समाज द्वारा दीपावली की तैयारी में इस सूत्र की झलक मिलती है ।
रावण का वध अश्विन माह की दशमी को हो गया था। पर रामजी कार्तिक मास की अमावस को अयौध्या लौटे। इन दोनों तिथियों में बीस दिनों का अंतर है। रावण वध के बाद रामजी को लंका में दो दिन और लगे थे। रामजी ने अगले दिन रावण सहित उसके सभी परिजनों के अंतिम संस्कार करने को कहा। इसमें एक दिन लगा। अगले दिन विभीषण का राज्याभिषेक हुआ। विजय के बाद भी रामजी ने लंका में प्रवेश नहीं किया था। अपने राज्याभिषेक के बाद उसी दिन विभीषण ससम्मान सीता माता को लेकर रामजी के पास आये। विभीषण केवल माता सीता को ही नहीं लाये थे वे अपने साथ विभिन्न भेंट और पुष्पक विमान भी लेकर आये थे ताकि रामजी तुरन्त अयोध्या लौट सकें। ये मिलाकर कुल दो दिन हुये। पुष्पक विमान साधारण नहीं था, वह दिव्य था जो पवन से तीव्रगति से चल सकता था। इसके अतिरिक्त उसमें यात्री क्षमता भी असीम थी। जितने चाहें उतने यात्रियों के लिये विस्तार हो सकता था। रामजी इसी पुष्पक विमान से अयोध्या लौटे थे। पुष्पक विमान से रामजी कुछ घंटों में अयोध्या आ सकते थे। रामजी उसी साँझ लंका से चल भी दिये थे लेकिन वे कार्तिक मास की अमावस को अयोध्या लौट सके।
अर्थात रामजी को मार्ग में अट्ठारह दिन लगे? रामजी ने पुष्पक विमान में बैठ कर सीधे अयोध्या का मार्ग नहीं पकड़ा था। रामजी उसी मार्ग से अयोध्या लौटे जिस मार्ग से लंका गये थे। और उन सभी वन्य और ग्राम्य क्षेत्रों के निवासियों से भी मिले जिनसे पहले मिले थे और सभी ऋषि आश्रमों में गये थे। लौटते समय रामजी सभी समाजों से मिले और समाज प्रमुखों को अयोध्या आने का आमंत्रण दिया। इसके साथ निषाद किरात आदि उन समाज प्रमुखों को अपने साथ पुष्पक विमान में बिठाया जिनसे मित्रता हुई थी। उन्होंने हर स्थान पर एक-एक रात्रि भी बिताई। इस कार्य में उन्हें अट्ठारह दिन लगे। इस प्रकार ये कुल बीस दिन सभी वर्गों और समाज के व्यक्तियों को परस्पर समरूप होने और एक-दूसरे का पूरक बनने और बनाने की अवधि है। इन अट्ठारह दिनों में रामजी ने पूरे भारत को और सभी समाज जनों को स्वयं से जोड़ा और सबको परस्पर जुड़ने का संकल्प भी दिलाया। चूँकि दानवी शक्तियाँ सदैव सात्विक समाज के बिखराव का ही तो लाभ उठाती हैं। यदि समाज संगठित है, जागरूक है तो आसुरी शक्तियाँ कभी प्रभावी नहीं हो सकती। इसके साथ रामजी ने भी संदेश दिया कि उन लोगों के प्रति सदैव आभार का भाव रखना चाहिये जो असामान्य दिनों में सहयोगक बनते हैं।
रामजी द्वारा लंका से अयोध्या लौटने की यात्रा में दिया गया यह संदेश आज भी दीपावली की तैयारी में झलकता है। रामजी के लौटने पर केवल दीप जलाने परंपरा होती तो यह दीवाली के एक ही दिन में हो सकती थी। लेकिन दीपावली की तैयारी और पाँच दिवसीय त्योहार परंपरा पूरे राष्ट्र और समाज को एक सूत्र में जोड़ने के सूत्र हैं। दीपावली की तैयारी में केवल कोई एक व्यक्ति या परिवार नहीं जुटता और न त्योहार अकेले मनाया जा सकता है। इसमें पूरे समाज की प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग और सहभागिता होती है। त्योहार की तैयारी, साफ सफाई, लिपाई-पुताई, पुरानी वस्तुओं को हटाना और नयी वस्तुओं के क्रय करने में समाज का ऐसा कौन -सा वर्ग है जिसकी सहभागिता नहीं होती। घर की झाड़ू से लेकर स्वर्णाभूषण तक सभी वस्तुएँ क्रय की जाती है। समाज का ऐसा कौन-सा वर्ग या व्यक्ति है जिसे भेंट नहीं दी जाती। यही तो सर्वसमाज की सहभागिता और सहयोग है ।
रामजी ने श्रीलंका से लौटते समय संपूर्ण समाज को एकत्व का यही संदेश दिया कि समाज संगठित रहे, परस्पर सहयोगी रहे। तभी आसुरी शक्तियों से सभ्य सुसंस्कृत समाज सुरक्षित रहेगा। हम आज यद्यपि मूल उद्देश्य भूल गये पर समाज को जोड़ने-जुड़ने की प्रक्रिया तो यथावत है। साफ-सफाई, लिपाई-पुताई से लेकर नए वस्त्र बर्तन आभूषण, घर या भवन को सजाने की वस्तुएँ क्रय करते हैं जिससे हर हाथ को काम मिले। सबको एक-दूसरे की आवश्यकता अनुभव हो। एक-दूसरे का महत्व समझे। सब एक-दूसरे का सहयोग करें तब ही तो सबकी दीवाली मनती है।
भारतीय संस्कृति एकमात्र ऐसी मानवीय मूल्यों को महत्व देती है इसमें संसार का एक एक प्राणी समाया है। त्योहारों की परंपराओं का संदेश भी यही है कि विभिन्न समाजों और वर्गों का एक एक व्यक्ति परस्पर जुड़ सके, एक-दूसरे का पूरक बन सके। इसमें कोई भेद नहीं। न नगरवासी का, न ग्रामवासी का और न कोई वन के निवासी का। भारतीय संस्कृति में न जन्म का भेद है, न वर्ग का, न वर्ण का भेद है और न जाति का। यह गुण और कर्म पर आधारित है। इसीलिए निषाद किरात और वनावासी सूग्रीव रामजी के मित्र हैं। जो अंतर हमें दिखाई देता है, यह विभाजन प्रकृति के गुणों के कारण है। जिस प्रकार भूमि के हर हिस्से में एक ही प्रकार के फल फूल या फसल नहीं होते। हर पर्वत पर एक-सी औषधि नहीं होती। उसी प्रकार यह प्राणियों की भाव भाषा में विविधता है। समय के साथ व्यक्ति अथवा समाज की जीवन शैली विकसित हो जाती है। इसी आधार पर समूह बनते हैं जो वर्ग या उपवर्ग का रूप ले लेते हैं। ग्रामवासियों और वनवासियों के कितने उपवर्ग हैं। भील गौंड, कोल, कोरकू माढ़िया मुंडा आदि। ऐसे उपवर्ग तब भी थे।
रामजी इन सभी वर्ग और उपवर्ग समूहों के बीच रहे। लौटते समय उन सबके मुखियाओं को पुष्पक विमान में अपने साथ लेकर अयोध्या आये। रामजी जानते थे कि जिस प्रकार एक ही वृक्ष की शाखाएं अलग-अलग दिशाओं में फैलती हैं या उसके पके हुए फल से निकला बीज किसी दूसरे स्थान पर पनप जाता है और नया वृक्ष बन जाता है उसी समाज का विस्तार होता है। विश्व की संपूर्ण मानवता का केन्द्रीभूत बिन्दु तो एक ही है। इसी भाव से भरा हुआ रामजी का आचरण और यही संदेश उन्होंने समाज को दिया। हजार वर्ष के अंधकार के बाद भी भारतीय जीवन में यह परंपरा आज भी बनी हुई। इसीलिए दीपावली पर केवल दीपोत्सव नहीं होता, मानो समूचे समाज का कायाकल्प होता है। धन से भी, श्रम से भी, परस्पर आदान-प्रदान से भी और भेंट-मिलाप से भी।
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी