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हरीश शिवनानी
एक पखवाड़ा बीत चुका है जब हिंदी साहित्य जगत अपनी भाषा के महान लेखक की अंतिम यात्रा को लेकर अब भी वाद-विवाद के दायरे से बाहर नहीं निकल पाया। साहित्यिक-बौद्धिक संसार के लिए यह स्थिति शुभ नहीं कही जा सकती। किसी भी भाषा के साहित्य की जीवंतता के लिए यह आवश्यक है कि उसके अतीत और वर्तमान को लेकर विचार, विमर्श और मंथन की प्रक्रिया अनवरत चलती रहे, पर हिन्दी में प्रेमचंद की अंतिम यात्रा को लेकर जो परिदृश्य उपजा है,वो निराश करने वाला है। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह भी है कि विवाद प्रेमचंद को लेकर एक नए तथ्य के संधान को लेकर हुआ है। शुरुआत हुई 30 मई को काशी नागरी प्रचारिणी सभा के प्रधानमंत्री और वरिष्ठ कवि-रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल के साहित्यिक वेब पोर्टल 'हिन्दवी' पर लिखे एक आलेख पर। 'मास्टर की अर्थी नहीं, आशिक का जनाजा था' शीर्षक के इस आलेख में शुक्ल ने हिन्दी के महान उपन्यासकार-कथाकार प्रेमचंद की अंतिम यात्रा के संदर्भ में वाराणसी के शताधिक पुराने प्रतिष्ठित समाचार-पत्र 'आज' के नौ अक्टूबर, 1936 में प्रकाशित एक समाचार 'स्वर्गीय प्रेमचंद जी- श्मशान पर साहित्यिकों की भीड़' के आधार पर यह तथ्य उद्घाटित किया कि प्रेमचंद की अंतिम यात्रा में 'बीस-पचीस आदमी' नहीं, 'साहित्यिकों की भीड़' थी।
दरअसल प्रेमचंद की अंतिम यात्रा को लेकर हिन्दी लेखन जगत में गत नौ दशकों से यह बात स्थापित है कि उनकी शवयात्रा एक प्रतिष्ठित महान लेखक की तरह नहीं,बल्कि एक 'गुमनाम आदमी' की तरह निकली थी, जिसे देखकर राह चलते एक अनजान व्यक्ति ने किसी दूसरे से पूछा था- 'के रहल?' दूसरे ने जवाब दिया- 'कोई मास्टर था।' यह बात प्रेमचंद के बेटे अमृत राय ने अपने पिता की जीवनी 'कलम का सिपाही' में लिखी है। इस बात को शुक्ल ने कुछ क्षुब्ध भाव से लिखा है- ''प्रेमचंद जी की कहानियों, उपन्यासों और लेखों की तरह उनकी मृत्यु की ट्रैजिक गाथा भी हिंदी-लेखकों के सामूहिक अवचेतन में रिस गई है। कई पीढ़ियां मृत्यु की वही गाथा पढ़कर जवान हुईं, बूढ़ी हुईं और खप गईं।…आज यह पता लगाना असंभव है कि अमृत राय ने ऐसा क्यों लिखा, लेकिन दैनिक 'आज' में 9 अक्टूबर 1936 को प्रकाशित खबर के आलोक में इतना बिलकुल साफ है कि उन्होंने जो कुछ भी लिखा है वह न सिर्फ अशिव, अशोभन और मिथ्या है, बल्कि सचाई को और ट्रैजिक बनाकर पेश करने की वासना का नतीजा भी है। प्रेमचंद का पार्थिव शरीर 'गुमनाम आदमी' की लाश नहीं था।''
इसे पढ़कर प्रेमचंद के वामपंथी धारा के अनेक आलोचकों-प्रशंसकों में उबाल आ गया। दरअसल वे इस बात को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं कि अमृत राय अपने पिता की अंतिम यात्रा के बारे ने कुछ गलत लिख सकते हैं। वे भूल जाते हैं कि अमृय राय ने यह बात नन्ददुलारे वाजपेयी की पुस्तक 'जयशंकर प्रसाद' के एक अध्याय 'व्यक्ति की एक झलक' के आधार पर ही लिखी है। प्रेमचंद की मृत्यु के समय अमृत राय महज पंद्रह वर्ष के थे लेकिन जब उन्होंने 'कलम का सिपाही' लिखी तब तक वे पूरी तरह से वामपंथी धारा में रंग कर वामपंथी लेखक-संपादक के रूप स्थापित हो चुके थे। यह भी सत्य है कि हिन्दी ही नहीं, किसी भी भाषा के वामपंथी, प्रगतिशील विचारधारा के लिए कवि-लेखक साहित्यकार, पत्रकार और किसान का 'गरीब, बेबस और लाचार' होना एक अनिवार्य तत्व है।
इन्हें गरीब रहना और गरीब दिखना ही चाहिए। हिन्दी का यह लेखक 'गुमनामी में मरा' और 'कृतघ्न हिन्दी समाज' ने उन्हें पूरा सम्मान नहीं दिया; ये त्रासदी से भरा झूठ पीढ़ियों से हिन्दी के साहित्यिक समाज के बौद्धिकों को इतना प्रिय रहा है की आज तक किसी ने इस तथ्य को पलटकर देखने की कोशिश तक नहीं की। अब जब उस दौर के महत्वपूर्ण समाचार-पत्र के आधार पर शुक्ल ने एक नया तथ्य उजागर किया है तो हिन्दी के स्वयंभू मठाधीशों को असहनीय पीड़ा हो रही है। इस बात को साहित्य-संस्कृति से जुड़ी नई पीढ़ी अच्छी तरह जान चुकी है कि हिन्दी साहित्यिक समाज का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो दुख का कारोबार करता है, जो हर दिन ये बताना चाहता है की हम और हमारे लेखक तो बड़े महान हैं मगर हिन्दी पाठक बड़ा कृतघ्न है। 'हमारे पिता ने / हमने बहुत-बहुत गरीबी में दिन बिताए हैं।' वामपंथी मध्यवर्गीय सोच का यह प्रिय वाक्य रहा है। यह कहते-लिखते हुए वह बार-बार ‘दुःख के दागों को तमगों-सा पहना…' दोहराता है। लेखक का गरीब होना और उपेक्षित रहना इतना जरूरी बना दिया गया है कि लोकप्रिय होने,आभिजात्य जीवन शैली जीने, अच्छा खाने-पीने, ओढ़ने-बिछाने को हमारे यहां 'अपराध' माना जाने लगा।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अमृत राय ने अपने पिता प्रेमचंद की जीवनी लिखते हुए उनकी ऐसी बेचारी छवि जानबूझकर गढ़ी थी? क्योंकि वे तो वहां मौजूद थे। फिर उन्होंने ऐसा क्यों लिखा? जब उनके सामने नंददुलारे वाजपेयी की किताब उपलब्ध थी तो परिपूर्णानन्द वर्मा की किताब 'बीती यादें' कैसे याद नहीं आई, जिसमें वे कहते हैं कि उनकी अंतिम यात्रा में वे स्वयं व कई अन्य लेखकों सहित जाने माने साहित्यकार जयशंकर प्रसाद सहित शहर के सैकड़ों गणमान्य लोग उपस्थित थे। हालांकि यह बात भी गौरतलब है कि 'कलम का सिपाही' अंततः एक पुत्र द्वारा लिखी जीवनी है और शायद इसीलिए उसका पूर्णतः वस्तुपरक न होना अस्वाभाविक नहीं। संभव है कि उस दौर के किशोरवय के अमृत राय के अवचेतन मन-मस्तिष्क में अपने पिता की छवि के अनुसार उनकी अंतिम यात्रा में विशाल हुजूम उमड़ने की आकांक्षा हो, लेकिन उनकी जीवनी लिखते समय वे भूल गए कि यह जीवनी घर के लिए नहीं, सार्वजनिक वितान के लिए होगी। वर्ष 1962 के आते-आते परिपक्व वामपंथी हो चुके अमृत राय ने अपनी विचारधारा की प्रवृत्तियों के अनुरूप जीवनीकार के रूप में इन बातों का भरसक ध्यान रखा है कि प्रेमचंद के जीवन की तस्वीर से हमें उनकी अनुकृति या व्यक्ति-चित्र नहीं बनाना है बल्कि उनकी छवियां गढ़ते हुए उन सब छवियों को अपने मुताबिक स्थापित भी करना है।
बावजूद इसके, अमृत राय ने अगर मणिकर्णिका घाट पर प्रेमचंद के अंतिम दर्शनार्थ उपस्थित साहित्यिकों का उल्लेख नहीं किया, तो इससे उनकी लिखी जीवनी 'अशिव, अशोभन और मिथ्या' नहीं कही जा सकती और न ही 'उसकी विश्वसनीयता तार-तार' हो जाती है। यह जरूर कहा जा सकता है कि अमृत राय ने प्रेमचंद की एक विशेष छवि गढ़ने में पूरी ऊर्जा लगा दी। 'कलम का सिपाही' में बहुत से ऐसे प्रसंग मिलेंगे जब प्रेमचंद को लाचार और बेचारा बताया गया है। प्रो. कमल किशोर गोयनका ने प्रेमचंद के निजी, पारिवारिक जीवन और आर्थिक स्थिति के बारे में बरसों तक संधान करके कई मिथ्या मिथकों का तथ्यों सहित उनकी गढ़ी गई छवि का भंजन किया लेकिन हिन्दी के स्वयंभू प्रगतिशील वामपंथी आलोचकों ने बिलबिला कर उन्हें 'हिन्दुत्ववादी' घोषित कर खारिज कर दिया।
गोयनका ने प्रेमचंद के साहित्य और जीवन में अनेक नए तथ्य दिए किंतु उस वर्ग ने उसे मानने से इनकार ही नहीं किया बल्कि उन्हें अपमानित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। इस वर्ग की जड़ता का आलम यह है कि प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने 'प्रेमचंद घर में' पुस्तक में प्रेमचंद के बारे में काफी कुछ ऐसा लिखा कि उसे भी वे स्वीकार नहीं कर पाते। अब समय आ गया है कि इसे दुर्भाग्यपूर्ण मिथकों से हिंदी-संसार बाहर निकले। ऐसी मिथ्या और दयनीय सर्वानुमतियां ही आलोचकीय निकष नहीं हो सकतीं। अब जब मिथक टूट रहे हैं तो पिछले 'इकोसिस्टम' के 'आलोचकों' को सचाई पर शक हो रहा है ? वरिष्ठ कवि उदयन वाजपेयी ने महत्वपूर्ण बात कही है कि प्रेमचन्द की गरीबी केवल वही नहीं है, उसे बहुत मेहनत से साहित्यिक मूल्य बनाया गया है। इसी मूल्य के आधार पर हिन्दी आलोचना के श्रीकांत वर्मा जैसा अपने महान कवि को हाशिए पर डाल देने जैसे कई आत्मघाती उपक्रम सम्भव हो सके। 'आज' की यह खबर और उस पर शुक्ल की व्याख्या के आलोक में हमें अपने दो धेले के बायोडेटावादी आलोचना-मूल्यों पर दोबारा विचार करना चाहिए।
किसी नामी साहित्यकार की अंतिम यात्रा में कम लोग आएं तो इसके कई कारण हो सकते हैं। उसके बावजूद वह नामी साहित्यकार नामी ही रहेगा। लेकिन किसी तात्कालिक मुद्रित प्रमाण से तथ्य का पता चले कि कहीं पर कम लोग नहीं थे, तो इस तथ्य को स्वीकार करने में संकोच या उस पर विवाद क्यों ? यह नव तथ्य का संधान है, संख्या या मात्रा को स्थापित करने की ज़िद नहीं। इसे स्वीकार करना होगा। व्योमेश शुक्ला ने नया तथ्य रखा है वो न केवल महत्वपूर्ण है बल्कि ऐतिहासिक भी है। जैसा कि वरिष्ठ लेखिका गरिमा श्रीवास्तव ने कहा है कि शुक्ल ने सभी बातें ससंदर्भ कही हैं। साहित्येतिहास के पुनर्लेखन की प्रक्रिया विकसनशील होती है, होनी चाहिए। उन्होंने इतिहास प्रमाणित एक तथ्य रखा। इसे निजी शोधकर्ता का काम है तथ्यों को ढूंढ लाना जिसे पुनराविष्कार भी कहा जा सकता है। इस प्रक्रिया में भावुकता का स्थान कम ही होता है।
दरअसल इतिहास इसी तरह से बनता-बिगड़ता रहता है। एक नया तथ्य सामने आता है और पुरानी अनेक धारणाएँ खंडित हो जाती हैं, इतिहास का नया पाठ तैयार होने लगता है। शुक्ल ने अपने तथ्य का सूत्र 'आज' के समाचार से लिया है। 'आज' अपने समय का महत्वपूर्ण और विश्वनीय समाचार-पत्र था। उसके स्वामी शिव प्रसाद गुप्त और संपादक बाबू विष्णुराव पराड़कर की साख और समाज में महत्व असंदिग्ध था। भारत के स्वाधीनता आंदोलन में पत्रकारिता की भूमिका को लेकर आज भी 'आज' की मिसालें दी जाती हैं। यह भी गौरतलब है कि एक वेबपोर्टल पर नब्बे वर्ष पहले गुजरे प्रेमचंद पर आए एक आलेख पर सोशल मीडिया पर हुई व्यापक बहस और चर्चा हिन्दी समाज के व्यापक विवेक और जीवंत सांस्कृतिक चेतना की दस्तावेज है। इससे यह तथ्य भी उजागर होता है कि हिन्दी जगत का एक इकोसिस्टम अब भी अपनी रूढ़ और फैंटेसीनुमा रोमांटिसिज्म से बाहर आने को तैयार नहीं कि सत्य का एक दूसरा आयाम भी हो सकता है।
शुक्ल के नए संधान पर आपत्ति, आलोचना, असहमति के लिए परंपरागत प्रगतिशील खेमे ने तथ्यात्मक, सत्यात्मक तर्क गढ़ने की बजाए फिर 'ब्राह्मणवाद', 'प्रतिक्रियावादी', 'भगवावादी' जैसे रूढ़ और भोथरे औजारों के साथ सनातनी, हिन्दू धर्म के प्रतीक चिन्हों का भी नकारात्मक उपयोग किया। बेहतर होता वे वाद-विवाद की बजाए संवाद का रास्ता अपनाते तो उनकी धूमिल हो चुकी छवि कुछ विश्वसनीयता उत्पन्न करती। राजनीति की तरह साहित्य में भी वामपंथी विचारधारा घिस कर अप्रासंगिक हो चुकी है। यह हिन्दी की नई पीढ़ी का दायित्व है कि देश-विदेश के पुस्तकालयों और अभिलेखागारों में प्रेमचंद विषयक सामग्रियों को खोजें, उन्हें खंगाल कर उनका सम्यक, वस्तुपरक, यथार्थ विश्लेषण करे और वहां से अपनी कहानी शुरू करें जहां अमृत राय का वृतांत समाप्त होता है या उन प्रसंगों को उजागर करें जिन्हें उनके आलोचकों ने अभी नहीं छुआ है। नए साक्ष्य और सिद्धांत के आलोक में पूर्ववर्ती स्थापनाओं का पुनर्मूल्यांकन भी आवश्यक है। ज्ञान परंपरा का हर साधक उपलब्ध शोध सामग्रियों में अपने नए प्रश्नों के उत्तर ढूंढता है तथा ज्ञान के क्षितिज को नूतन विस्तार देता है। अंतिम सत्य यही है कि प्रेमचंद जैसे युगदृष्टा लेखक की अंतिम यात्रा न तो उपेक्षित थी और न ही हिंदी समाज ने उनकी स्मृति की उपेक्षा की है। प्रेमचंद आज भी स्मरणीय हैं। उनकी साहित्यिक-सांस्कृतिक धरोहर आज भी प्रासंगिक है।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद