आम आदमी पार्टी के वजूद पर सवाल
मनोज कुमार मिश्र 14 फरवरी,2014 को 49 दिन की सरकार जाने के कुछ ही दिनों बाद आम आदमी पार्टी (आआपा) के अरविंद केजरीवाल के बाद दूसरे नंबर के नेता मनीष सिसोदिया ने अपने मयूर विहार, फेज- दो के घर पर मुझे मिलने के लिए बुलाया। करीब घंटे भर उनसे विभिन्न विषय
मनोज कुमार मिश्र


मनोज कुमार मिश्र

14 फरवरी,2014 को 49 दिन की सरकार जाने के कुछ ही दिनों बाद आम आदमी पार्टी (आआपा) के अरविंद केजरीवाल के बाद दूसरे नंबर के नेता मनीष सिसोदिया ने अपने मयूर विहार, फेज- दो के घर पर मुझे मिलने के लिए बुलाया। करीब घंटे भर उनसे विभिन्न विषयों पर बात होती रही। उनकी पूरी बातचीत का निचोड़ यह था कि हम और हमारी पार्टी सत्ता के लिए बने हैं। पार्टी के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी छोटी है। हम तो भाजपा नेता डॉ. हर्षवर्धन को अपने साथ लाकर मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाना चाहते हैं, वे इसके लिए तैयार नहीं हैं (वैसे डॉ. हर्षवर्धन ने इसे पूरी तरह से निराधार बताया)।

इस बातचीत के बाद सिसोदिया से अलग मिलने का मौका न मिला लेकिन बाद के घटनाक्रम ने एक बात तो साबित कर दी कि अरविंद केजरीवाल सत्ता के बिना नहीं रह सकते हैं और उनकी महत्वाकांक्षा प्रधानमंत्री बनने की है। भाजपा और कांग्रेस विरोधी अनेक बुद्धिजीवियों के प्रभाव में आकर केजरीवाल ने 2014 में देश भर में लोकसभा चुनाव लड़ना तय किया। भारी पराजय के बाद अपने लोगों के गुस्सा से बचने के लिए जमानत तुड़वाकर जेल गए। 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में भारी सफलता के बावजूद रामलीला मैदान में दूसरी बार मुख्यमंत्री की शपथ लेते हुए कहा कि उन्हें दिल्ली की जनता से जनादेश उनकी सेवा करने के लिए मिला है, वे दिल्ली से बाहर नहीं जाएंगे। तब से लेकर अब तक उनके बयान और दावों में कितनी बार और क्यों बदलाव हुआ, यह लंबा किस्सा है। हर रोज मीडिया की सुर्खियों में रहने वाले अरविंद केजरीवाल दिल्ली में सत्ता से बाहर होने और खुद चुनाव हारने के बाद गाहे-बगाहे दिल्ली में सार्वजनिक रूप से दिख जा रहे हैं।

कहा जा रहा है कि वे राज्यसभा के सदस्य बनने के जुगाड़ में हैं। लेकिन उनके घर बैठने से दिल्ली विधानसभा चुनाव के कुछ ही महीनों में आआपा के वजूद पर ही सवाल उठने लगे हैं। जो हालात बनते जा रहे हैं उसमें केजरीवाल की तुलना विदेशी घुसपैठ के खिलाफ आंदोलन चलाकर सीधे छात्र आंदोलन से असम गण परिषद राजनीतिक दल बनाकर विधानसभा चुनाव जीतकर 1985 में असम के मुख्यमंत्री बने प्रफुल्ल कुमार महंत से की जाने लगी है। आज की तारीख में महंत की असम की राजनीति में कोई चर्चा तक नहीं होती है। 2011 के दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ समाजसेवी अण्णा हजारे के आंदोलन में शामिल अनेक नेताओं ने हजारे के मना करने के बावजूद 26 अक्टूबर, 2012 को आम आदमी पार्टी के नाम से राजनीतिक दल बनाकर 2013 में होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ना तय किया।

अरविंद केजरीवाल की अगुवाई में 2013 का विधानसभा चुनाव लड़ा गया। पहले ही चुनाव में बिजली-पानी फ्री का मुद्दा कारगर हुआ। आआपा को 70 सदस्यों वाली विधानसभा में करीब 30 फीसद वोट और 28 सीटें मिली। भाजपा ने करीब 34 फीसद वोट के साथ 32 सीटें जीती और दिल्ली में 15 साल तक शासन करने वाली कांग्रेस को 24.50 फीसद वोट के साथ महज आठ सीटें मिली। भाजपा के मना करने पर आआपा ने कांग्रेस से बिना मांगे समर्थन से सरकार बनाई। नियम का पालन किए बिना लोकपाल विधेयक विधानसभा में पेश करने से रोके जाने के खिलाफ 49 दिन पुरानी सरकार ने इस्तीफा दिया। दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगा।

2014 के लोकसभा चुनाव में आआपा ने देश भर में चुनाव लड़ना तय किया। खुद केजरीवाल भाजपा के प्रधानमंत्री के घोषित उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के खिलाफ बनारस चुनाव लड़ने पहुंच गए। वे तो बुरी तरह से हारे ही आआपा के ज्यादातर प्रमुख नेता लोकसभा चुनाव लड़े और पराजित हुए। केवल पंजाब में चार सीट आआपा जीत पाई। बाद में उसमें से दो सांसद आआपा से अलग हो गए और 2019 के लोकसभा चुनाव में केवल अभी के मुख्यमंत्री भगवंत मान चुनाव जीते। 2024 में उसे केवल पंजाब में ही तीन सीटें मिली। 2014 के चुनाव में केजरीवाल ने बड़ा सपना देखा था, वे परिणाम से इतने आहत हुए थे कि कार्यकर्ताओं का गुस्सा शांत करने के लिए जबरन जमानत तुड़वाकर जेल गए। इतना ही नहीं एक-एक करके पार्टी के दिग्गजों-पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण, वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, प्रो. आनंद कुमार इत्यादि को पार्टी से बाहर किया। बाद में कुमार विश्वास समेत अनेक दिग्गज नेता बाहर हुए। कहा गया कि आआपा में वही रह सकता है जो केजरीवाल के किसी फैसले पर सवाल न उठाए। बावजूद इसके आआपा को कई बड़ी सफलता मिल गई।

कांग्रेस की कमजोरी और भाजपा की अधूरी तैयारी के चलते और बिजली-पानी फ्री करने के वादे ने आप को 2015 के चुनाव में दिल्ली विधानसभा में रिकार्ड 54 फीसदी वोट के साथ 67 सीटों पर जीत दिलवा दी। उस चुनाव के बाद पार्टी में अरविंद केजरीवाल का राजनीतिक कद और बढ़ गया। दोबारा मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने दिल्ली से बाहर पार्टी को न ले जाने का घोषणा कर दी। उन्होंने यह साबित कर दिया कि पार्टी को वोट उनके नाम से मिलते हैं। 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में फिर उन्होंने रिकार्ड 54 फीसद वोट के साथ 62 सीटें जीती। 2017 के गोवा विधानसभा चुनाव में तो आआपा को कोई सफलता नहीं मिली लेकिन पंजाब में बेहतर नतीजे मिले। 117 सीटों की विधानसभा में कांग्रेस को 77 सीटें और आआपा को 20 सीटें मिली। इस बार आआपा ने शानदार जीत दर्ज की। उसे न केवल 92 सीटें मिली और उसकी दिल्ली से बाहर सरकार बनी। गुजरात और गोवा में चुनाव लड़कर आआपा अखिल भारतीय पार्टी बन गई।

सत्ता ने उन्हें आम आदमी से खास आदमी बना दिया। नेता अरविंद केजरीवाल अपने पुराने वादे ही नहीं भूले, आम नेताओं से आगे निकलकर सरकारी कोठी को भव्य कोठी (विपक्षी दल शीशमहल कहते हैं) बनाकर रहने लगे। दिल्ली सचिवालय के अपने आधुनिक कार्यालय में भी उन्होंने करोड़ों रुपये खर्च करके काफी बदलाव कर उसे भी आलीशान बनवाया। उन्होंने जंतर-मंतर, रामलीला मैदान में लोगों के बीच जाना छोड़ ही दिया था। सुरक्षा के भारी ताम-झाम से उनकी लोगों से दूरी बढ़ी और जिस वीआईपी कल्चर का विरोध करके राजनीति में आए उसी कल्चर के प्रतीक बन गए। कट्टर ईमानदार राजनीति का दावा करने वाले केजरीवाल और उनकी पार्टी के शराब घोटाले आदि भ्रष्टाचार में फंसने के बाद उन्हें उस जंतर-मंतर की याद आई, जहां से उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु अण्णा हजारे के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चलाया था।

शराब घोटाले में कई बड़े नेताओं के जेल जाने के बाद खुद केजरावाल जेल गए।

उन्होंने जेल से सरकार चलाने का अनोखा रिकार्ड बनाया। विधानसभा चुनाव से कुछ ही दिन नया राजनीतिक दांव चलते हुए धुर वामपंथी माता-पिता की संतान आतिशी को पहले मुख्यमंत्री और विधानसभा चुनाव हारने के बाद विपक्ष का नेता बना दिया। भाजपा और कांग्रेस आदि दल आआपा पर शहरी नक्सली होने का आरोप लगाते रहे हैं। आआपा से बागी हो गई राज्यसभा सदस्य स्वाति मालीवाल ने आतिशी के मुख्यमंत्री बनाने पर उनके अभिभावकों और खुद आतिशी के धुर वामपंथी होने का सवाल उठाया। 2025 के विधानसभा चुनाव में एक यह भी मुद्दा बना।

2024 का लोकसभा चुनाव और 2015 के विधानसभा चुनाव में केजरीवाल ने अपने को प्रताड़ित करने का मुद्दा बनाने की असफल कोशिश की। 70 सदस्यों वाली विधानसभा चुनाव में भाजपा 48 सीटों के साथ 27 साल बाद सत्ता में लौटी। आआपा को 22 सीटें मिली।

मतों का अंतर महज दो फीसद का था। पहली बार आआपा 2022 के दिल्ली नगर निगम चुनाव जीती थी। उसे 250 में से134 सीटें मिली थी। भाजपा को 104 सीटें मिली थी। केन्द्र में भाजपा की सरकार होने का लाभ उसे मिलता रहा। बहुमत के बावजूद महीनों की कवायद के बाद आआपा का मेयर बना। इन ढाई सालों में आआपा के पार्षद भाजपा में आते रहे। इतना ही नहीं आआपा में जाकर पार्षद बने 16 निगम पार्षद अलग दल बनाकर आआपा से अलग हो गए। निगम में दलबदल विरोधी कानून नहीं लागू है। अब निगम में भी भाजपा बहुमत में है और पहली बार निगम की सबसे ताकतवर संस्था स्थाई समिति का गठन हो पाया। स्थाई समिति की अध्यक्ष भाजपा की नेता सत्या शर्मा हैं। मेयर तो भाजपा के राजा इकबाल सिंह पहले ही बन गए थे।

आआपा की इस 12 साल की राजनीति में अनेक नेताओं पर आरोप लगे। कुछ को पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल ने ही विदा किया और कुछ को कानूनी तरीके से आरोप लगने के बाद विदा किया गया। फर्जी डिग्री के आरोपी जितेन्द्र सिंह तोमर को तो भारी विरोध के बाद मंत्री पद से हटाया गया और अगर विरोध न होता तो वे 2020 के विधानसभा चुनाव में टिकट पा जाते। सतेन्द्र जैन से भी गिरफ्तारी के महीनों बाद विभाग लिए गए और मंत्री पद से तो सिसोदिया फरवरी,2023 में हटाए गए। केजरीवाल ने अपनी ईमानदार छवि को बचाए रखने के लिए दिल्ली सरकार में मंत्री रहे असीम अहमद खान और संदीप कुमार को भ्रष्टाचार और सेक्स रैकेट के आरोप में हटाया। शराब घोटाले ने तो पूरी पार्टी को ही लपेटे में लेकर उसे नंगा कर दिया। लोगों की नजरों में केजरीवाल के जेल जाने के बाद आप पूरी तरह से भ्रष्टाचारी पार्टी बन गई।

आआपा पूरी तरह से अरविंद केजरीवाल की पार्टी है । वह न तो किसी विचारधारा से जुड़ी है, न जाति आधारित या कैडर आधारित पार्टी है। दिल्ली में सरकार जाने के बाद को पार्टी के साथ मुट्ठी भर लोग दिखते हैं। आतिशी और सौरभ भारद्वाज के भरोसे दिल्ली में पार्टी चल रही है। अब केवल पंजाब में आआपा की सरकार है। पंजाब सरकार के खिलाफ भी पार्टी में आवाज उठने लगी है। आआपा दिल्ली से देश भर में गई है। भले ही आआपा ने बिहार विधानसभा चुनाव में सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है या पार्टी को देश भर में ले जाने के लिए हर राज्य के लिए प्रभारी घोषित कर दिया है, केवल दिल्ली हारने के साथ ही पार्टी और उसके सबसे बड़े नेता अरविंद केजरीवाल की साख खत्म हो गई। उसे वापस लाने के लिए केजरीवाल को फिर से सड़कों पर उतरना होगा।

जो हालात दिख रहे हैं उसमें तो यही लग रहा है कि शराब घोटाले की आंच अभी इस पार्टी को और झुलसाएगी। जो नेता जमानत पर जेल से बाहर हैं, वे वापस कब जेल चले जाएं कहा नहीं जा सकता है। अगर ऐसा हुआ और अन्य नेताओं के साथ केजरीवाल जेल गए तो आआपा का हाल असम गण परिषद से भी बुरा होगा। दो फीसद मतों के अंतर से सरकार बनाने वाली भाजपा दिल्ली में अपनी राजनीतिक हैसियत बढ़ाने में लगी है। कांग्रेस तो हाशिये पर पहुंच गई है। आआपा के लिए खतरा है कि कहीं भाजपा विरोधी मत कांग्रेस में न लौटने लगे जिसके बूते ही आआपा ने दिल्ली में दस साल से ज्यादा समय तक राज किया। अब सत्ता के बिना वह कब तक प्रभावशाली भूमिका में बनी रहेगी, यह कहना कठिन है। जो अब तक का इतिहास है और जमीनी हकीकत दिख रही है वह तो दूसरी ही कहानी बयां कर रही है।

(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद