Enter your Email Address to subscribe to our newsletters
- डॉ. सत्यवान सौरभ
मोबाइल खेलों की बढ़ती लत बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डाल रही है। इंदौर में एक तेरह वर्षीय बालक ने “फ्री फायर” खेल में 3000 रुपये हारने के बाद आत्महत्या कर ली, जो बताता है कि आज की पीढ़ी में हार सहने की क्षमता घटती जा रही है। यह केवल एक खेल की हार नहीं, बल्कि संवादहीनता, अभिभावकों की अनदेखी और भावनात्मक असुरक्षा की परतें खोलती है। बच्चों को तकनीकी उपकरणों से पहले भावनात्मक समर्थन, शिक्षा तंत्र में मानसिक स्वास्थ्य और परिवार में संवाद की ज़रूरत है। हार को जीवन की समाप्ति नहीं, सीख बनने देना होगा।
जिस उम्र में बच्चों के हाथों में किताबें, आँखों में सपने और जीवन में उमंग होनी चाहिए, उस उम्र में इंदौर के एक तेरह वर्षीय बालक ने आत्महत्या कर ली। कारण -एक मोबाइल खेल “फ्री फायर” में तीन हज़ार रुपये हार जाना। यह घटना केवल एक बालक की मृत्यु नहीं, बल्कि समाज की चुप्पी, माता-पिता की अनभिज्ञता और डिजिटल अंधकार की सच्चाई है।
यह बालक सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था। एक दिन पहले ही उसका जन्मदिन मनाया गया था। घर में मिठाई की खुशबू, गुब्बारों की चमक और मासूम हँसी की गूँज बाकी थी। लेकिन अगले ही दिन उसने अपने ही घर में फाँसी लगाकर जीवन समाप्त कर लिया। क्यों? क्योंकि उसने एक मोबाइल खेल में तीन हज़ार रुपये गँवा दिए थे, जो उसने अपनी माँ के बैंक खाते से ऑनलाइन निकाल कर खर्च किए थे।
इस घटना ने बहुत गहरे सवाल खड़े किए हैं- क्या मोबाइल खेल केवल मनोरंजन हैं या वे हमारे बच्चों की मानसिक शांति और आत्मसम्मान को निगलते जा रहे हैं? क्या हम बच्चों को तकनीकी ज्ञान तो दे रहे हैं, पर मानसिक सहारा, संवाद और संस्कार नहीं? बाल मन अत्यंत कोमल और संवेदनशील होता है। जब हम बच्चों को बिना दिशा-निर्देश और निगरानी के मोबाइल फोन थमा देते हैं, तो हम उन्हें एक ऐसी आभासी दुनिया में छोड़ देते हैं जहाँ हार का मतलब केवल हार नहीं, बल्कि आत्मसम्मान की समाप्ति बन जाता है। फ्री फायर, पबजी, बीजीएमआई जैसे युद्धक खेलों में हर क्षण जीतने का दबाव, प्रतिस्पर्धा की भावना और नकली पहचान की दौड़ बच्चों के मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालती है। इन खेलों में हर 'विजय' एक नकली आनंद देती है और हर 'पराजय' एक गहरे दुःख का कारण बनती है। बच्चों को यह अनुभव नहीं हो पाता कि यह केवल एक खेल है, असली जीवन नहीं। जब वे इन खेलों में हारते हैं, तो वे इसे अपने जीवन की हार मान लेते हैं। यही हुआ अक्लंक के साथ।
माता-पिता की भूमिका इस पूरी घटना में सबसे महत्वपूर्ण है। माता-पिता बच्चों को मोबाइल देते समय यह समझने में असफल हो जाते हैं कि वह उपकरण केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि आज की पीढ़ी के लिए संपूर्ण संसार बन चुका है। बच्चा जब मोबाइल पर खेल में हारता है, और उस पर叱कार पड़ती है, तो वह डबल आघात सहता है — एक हार का और दूसरा उपेक्षा का। बालक की माँ ने जब उसे डांटा, तो वह उसके लिए सामान्य माँ की झिड़की नहीं थी, वह उसके लिए स्वयं के मूल्यहीन होने की मुहर थी। हम भूल जाते हैं कि बालक केवल हमारे शब्द नहीं, हमारे भाव भी ग्रहण करते हैं। माता-पिता यदि संवाद के स्थान पर केवल डाँट और आदेश देंगे, तो बच्चे डर और अपराधबोध में जीने लगते हैं।
आज हर घर में मोबाइल है, पर क्या हर घर में भावनात्मक संवाद है? क्या माता-पिता दिन में पाँच मिनट भी यह पूछते हैं कि बेटा, तुम कैसा महसूस कर रहे हो? क्या स्कूल में कोई शिक्षक बच्चों से यह पूछता है कि तुम्हें कोई बात मानसिक रूप से परेशान तो नहीं कर रही? हम परीक्षा में अंकों पर ध्यान देते हैं, पर बच्चे के मन में उठते तूफानों पर नहीं। मोबाइल खेलों के माध्यम से बच्चों में जो मानसिक विकृति उत्पन्न हो रही है, वह केवल मनोरंजन की बात नहीं रह गई है। यह अब मानसिक स्वास्थ्य का गंभीर संकट बन चुकी है। इन खेलों में लगातार खेलने से मस्तिष्क में डोपामिन नामक रसायन का उत्सर्जन होता है, जो आनंद की अनुभूति कराता है। लेकिन यह आनंद क्षणिक होता है, और उसकी लत लग जाती है। बच्चा फिर वास्तविक जीवन में संतोष नहीं पाता, और आभासी दुनिया में ही अपनी पहचान खोजने लगता है। इन खेलों में जब पैसे भी जुड़ जाते हैं, तो स्थिति और भी खतरनाक हो जाती है। एक बार मोबाइल में बैंक खाता या भुगतान माध्यम जुड़ जाए, तो बच्चा जाने-अनजाने में हजारों रुपये खर्च कर देता है। माता-पिता को इसकी जानकारी तब होती है जब नुकसान हो चुका होता है।
इसका समाधान केवल तकनीकी नियंत्रण नहीं है। समाधान है- संवाद, स्नेह, समझ और सतर्कता। माता-पिता को चाहिए कि मोबाइल में पालक नियंत्रण अनुप्रयोग, खेल समय सीमा, ऑनलाइन भुगतान रोकथाम, जैसे साधनों का प्रयोग करें। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वे अपने बच्चों के जीवन में भागीदार बनें- उनसे बात करें, उनके साथ समय बिताएँ और उन्हें यह महसूस कराएँ कि वे केवल अंकों, उपलब्धियों या जीत से नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व से प्रिय हैं।
विद्यालयों की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्रत्येक विद्यालय में मानसिक स्वास्थ्य परामर्शदाता होना अनिवार्य किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम में भावनात्मक शिक्षा, हार-जीत की समझ, आत्मसम्मान और आत्मरक्षा जैसे विषयों को स्थान दिया जाना चाहिए। बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि हार कोई अभिशाप नहीं, बल्कि सीखने का अवसर है। सरकार को भी मोबाइल खेलों पर नियंत्रण के कठोर नियम बनाने चाहिए। बारह वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए भुगतान वाले खेल प्रतिबंधित किए जाएँ, भुगतान प्रणाली में माता-पिता की स्वीकृति आवश्यक हो, और हर मोबाइल सेवा में बाल संरक्षण प्रणाली लागू की जाए।
यदि हम इन बातों पर समय रहते ध्यान नहीं देंगे, तो ऐसी घटनाएँ सामान्य होती जाएँगी। वर्ष २०२३ में भी कई राज्यों से ऐसी घटनाएँ सामने आई थीं, जहाँ बच्चों ने केवल खेल में हारने के कारण आत्महत्या कर ली थी। यह एक राष्ट्रीय चिंता का विषय है। आइए, हम यह संकल्प लें कि हमारे घरों में मोबाइल भले हो, पर उससे बड़ी चीज़ संवाद हो। हम बच्चों को केवल उपकरण न दें, उन्हें अपना समय, सहारा और साथ दें। हम उन्हें बताएं कि कोई भी खेल, कोई भी परीक्षा, कोई भी गलती- जीवन से बड़ी नहीं होती। एक बालक की आत्महत्या से यदि हम सबक नहीं लेंगे, तो हम आने वाले पीढ़ियों के साथ अन्याय करेंगे। इसीलिए, आइए, एक नई शुरुआत करें- जहां मोबाइल हो, पर उस पर माता-पिता की दृष्टि हो; जहां खेल हो, पर जीत-हार से परे प्रेम हो और जहां बच्चे हों, वहाँ केवल मौन नहीं, संवाद भी हो।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
---------------
हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश