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डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
यह तो भविष्य के गर्व में छिपा है कि रुस-यूक्रेन युद्ध को लेकर दोनों देशों का क्या निर्णय होगा या युद्ध कब तक समाप्त होगा या सहमति के हालात बनेंगे या नहीं- पर एक बात साफ हो गई है कि अमेरिका के लोगों को ही राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के निर्णय को लेेकर भरोसा नहीं है। अमेरिका मेेें राष्ट्रपति पद के चुनाव के समय 81 प्रतिशत अमेरिकियों को भरोसा था कि ट्रंप द्वारा जो निर्णय लिया जाएगा वह भरोसे लायक होगा। यानी वह सोच समझ भरा निर्णय होगा। कहने का अर्थ यह है कि अमेरिका के 81 फीसदी नागरिक यह मानकर चल रहे थे कि ट्रंप द्वारा रुस-यूक्रेन युद्ध को लेकर लिया जाने वाला निर्णय भरोसे लायक होगा।
राष्ट्रपति बनने के बाद जिस तरह से ट्रंप द्वारा एक के बाद एक तुगलकी निर्णय लिए जा रहे हैं और जिस तरह से विश्व के देशों को धमकाना शुरु किया है उससे ट्रंप ने स्वयं के साथ अमेरिका की फजीहत ही अधिक कराई है। विश्व का दादा बनने के प्रयास में ट्रंप और अमेरिका दोनों की साख में तेजी से गिरावट आई है। ट्रंप-पुतिन मुलाकात के बाद भी साफ हो गया है कि कोई ठोस निर्णय नहीं हो पाया है और भले ही जेलेंस्की को ट्रंप ने चर्चा के लिए अमेरिका बुलाया हो और बातचीत भी हुई हो पर लब्बोलुबाव यही रहेगा कि इस मुलाकात के बाद अमेरिका की हेठी साफ दिखाई दे ही रही है। इससे पहले जेलेंस्की और ट्रंप की गत मुलाकात के समय जिस तरह से अमेरिका की हेठी हुई वह भी सबके सामने है। भले पुतिन-जेलेंस्की मुलाकात को राजी हो गये हों पर सीजफायर भी हो गया तो वह स्थाई सीजफायर होगा, इसमें पूरी तरह से संदेह है।
इन हालातों में प्यू रिसर्च द्वारा हाल ही किये गये सर्वे में जो परिणाम सामने आये हैं वह इसके पीछे की तस्वीर साफ करते हैं। 81 प्रतिशत भरोसे लायक नेता पर 40 प्रतिशत अमेरिकियों का भरोसा और इनमें से भी 25 प्रतिशत का थोड़ा भरोसा तो फिर देखा जाए तो केवल 15 प्रतिशत अमेरिकी ही ट्रंप पर पूरी तरह से भरोसा जता रहे हैं। 59 प्रतिशत अमेरिकियों का तो ट्रंप पर अब बिलकुल भरोसा नहीं रहा है। देखा जाए तो दुनिया के देश तो ट्रंप की बेजा हरकतों से परेशान हैं ही वहीं अमेरिकावासियों को भी अमेरिका का भविष्य कोई अच्छा संकेत देता नहीं लग रहा है। राष्ट्रपति ट्रंप के एक के बाद लिए गए फैसलों ने उन्हें दुनिया का सबसे बड़ा खलनायक बना दिया है। ट्रंप की हर धमकी हवा हवाई बनकर रह गई है। इसके साथ ही ट्रंप द्वारा कही जाने वाली बात कब तक रहेगी इस पर भी दुनिया के लोगों को संदेह होने लगा है।
टैरिफ वार सामने हैं। टैरिफ के नाम पर देशों को धमकाना ज्यादा नहीं चल सकता, यह अमेरिका को समझना होगा। भारत पर 50 प्रतिशत टैरिफ लगाने से उलटा मोदी को मजबूत बनाने का काम ही अमेरिकी राष्ट्रपति ने किया है। इससे पहले जिस तरह से कनाडा को अपना 51 वां राज्य कहना दादागिरी का बड़ा नमूना है। भारत-पाकिस्तान के बीच ऑपरेशन सिन्दूर के दौरान सीजफायर करने के दावे की पोल खुल चुकी है। देखा जाए तो ट्रंप तानाशाही रवैया अपनाते हुए दुनिया के देशों को ड़राने धमकाने में लगे हुए हैं। हांलाकि चाहे टैरिफ नीति हो या उपनिवेशवादी सोच, देर-सबेर इसका खामियाजा अमेरिका को ही भुगतना पड़ेगा और गत बैठक के दौरान व्हाइट हाउस में ट्रम्प और जेलेंस्की के बीच तीखी बहस और नोकझोंक से दुनिया के देशों में साहस का संचार हुआ है। व्हाइट हाउस की घटना का तात्कालिक परिणाम ही यह सामने आ गया है कि यूरोप के देश एक स्वर में यूक्रेन के साथ खड़े होने लगे तो दूसरी ओर अपना नया नेता चुनने पर विचार करने लगे हैं।
हालांकि जेलेंस्की ने देश हित को पहली वरियता दी है और अमेरिका से अब भी खनिज संपदा के अधिकार देने पर सहमति समझौता करने को लगभग तैयार है। पर अमेरिका दबाव बनाकर और डरा-धमकाकर समझौता करना चाहता है। यही कारण है कि समझौते के प्रारुप पर चर्चा करने आये जेलेंस्की को ही रुस -यूक्रेन युद्ध का जिम्मेदार बताते हुए तीखी नोंकझोंक तक हालात पहुंच गए और जेलेंस्की की हिम्मत की इसलिए सराहना करनी होगी कि अमेरिका के आगे नाक रगड़ने की जगह वार्ता छोड़ कर यूरोपीय देशों की यात्रा पर आ गये।
भविष्य में क्या होता है यह तो अलग बात हैं पर चाहे रुस यूक्रेन युद्ध हो, चाहे इजरायल हमास या फिर भारत-पाक, ट्रंप एक्सपोज हो गए हैं। इससे रुस और पुतिन का विश्व राजनीति में उभार का अवसर मिला है वहीं दुनिया के देशों की कोरोना व अन्य नीतियों के कारण चीन के प्रति बनी सोच में भी बदलाव आने लगा है। इसके साथ ही दुनिया के देशों में आज भारत की छवि भी बदलाव आया है और भारत को सशक्त और दुनिया का नेतृत्व करने में सक्षम देश के रुप में देखा जाने लगा है। टैरिफ वार के नाम पर भारत को धमकाना और पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष के साथ लंच करने से अमेरिका और ट्रंप दोनों की साख नकारात्मक रुप से प्रभावित हुई है।
ट्रंप के सलाहकारों को यह समझाना होगा कि डराने-धमकाने या दादागिरी का समय नहीं रहा। छोटे- से-छोटा देश अपनी अस्मिता के लिए लंबा संघर्ष करने में पीछे हटने या झुकने वाला नहीं है। रुस-यूक्रेन युद्ध इसका जीता जागता उदाहरण है। ट्रंप को अपनी हैसियत बनाये रखनी है तो उसे अपनी कार्यशैली में बदलाव लाना होगा नहीं तो वह अपने देश मेें ही बदनामी के शीर्ष पर पहुंच जाएगा। ट्रंप को अपने पराये की पहचान करनी होगी।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश