गीताः कर्म प्रेरणा का ग्रंथ
हृदयनारायण दीक्षित गीता एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय चर्चा में है। इसी माह आगे पीछे एक साथ दो घटनाएं हुईं। एक बार फिर गीता की चर्चा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही है। गीता भारतीय दर्शन का प्रतिनिधि दर्शन है। प्रधानमंत्री ने रूस के राष्ट्रपति को गीता भें
हृदयनारायण दीक्षित


हृदयनारायण दीक्षित

गीता एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय चर्चा में है। इसी माह आगे पीछे एक साथ दो घटनाएं हुईं। एक बार फिर गीता की चर्चा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही है। गीता भारतीय दर्शन का प्रतिनिधि दर्शन है। प्रधानमंत्री ने रूस के राष्ट्रपति को गीता भेंट की है। पुतिन यहां भारत यात्रा पर आए हुए थे। मोदी इसके पहले चीन, अमेरिका, जापान आदि के राष्ट्र प्रमुखों को गीता की प्रति भेंट कर चुके थे। इधर एक मजेदार घटना हुई। कोलकाता में गीता को लेकर विशाल सम्मेलन हुआ। कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को ने गीता को प्रतिष्ठित ग्रंथ घोषित किया था।

गीता कर्म प्रेरणा का ग्रंथ है। गीता विशालकाय महाभारत का हिस्सा है। लेकिन महाभारत के भीष्मपर्व के मूल कथानक से इसकी पर्याप्त संगति है। ऋग्वेद के रचनाकाल के समय से लेकर आज तक समय का बड़ा फासला है। गीता में ऋग्वेद का दर्शन और अनुभूतियाँ हैं। अथर्ववेद का कालसूक्त गीता में भयानक काल होकर प्रकट हुआ है। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा कि, ”हे भगवान, आप उग्र रूप वाले कौन हैं?” कृष्ण ने उत्तर दिया, ”कालोअस्मि लोकोक्षय प्रवृत्ते-मैं काल हूं और लोकों को समाप्त करने के लिए, प्राण लेने के लिए प्रवृत्त हूं।

गीता में विश्व दर्शन की लगभग सारी अनुभूतियां हैं। महात्मा गांधी गीता पर मोहित थे। उन्होंने अपने अखबार यंग इंडिया में लिखा था, ”जब निराशा मेरे सामने आ खड़ी होती है और जब बिल्कुल एकाकी मुझको प्रकाश की कोई किरण नहीं दिखाई देती, तब मैं गीता की शरण लेता हूं। कोई न कोई श्लोक मुझे ऐसा दिखाई पड़ जाता है कि मैं विषम विपत्तियों में भी मुस्कुराने लगता हूं। मेरा जीवन विपत्तियों से भरा रहा और यदि वे मुझ पर अपना कोई दृश्यमान अमिट चिह्न नहीं छोड़ सके तो इसका श्रेय भगवद्गीता की शिक्षाओं को ही है। गांधीजी की बात भावनात्मक है लेकिन तथ्य भी यही है कि गीता प्रभावित करती है और सुख-दख में समान भाव की दृष्टि का विकास करती है।

प्रसिद्ध यूरोपीय विद्वान एडविन अर्नाल्ड ने गीता पर ग्रंथ लिखा था ’सैलेशियल सॉन्ग’। उसने गीता की व्याख्या करने वाले अनेक पूर्ववर्ती विद्वानों की प्रशंसा की और लिखा कि इस ग्रंथ के अभाव में अंग्रेजी साहित्य अधूरा रह जाता है। बंगाल में सन 1784 में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना हुई। सोसाइटी की प्रेरणा से चाल्र्स विलकिंस ने गीता का अनुवाद किया। ईस्ट इंडिया कंपनी की मदद से यह अनुवाद लंदन में छपा। तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग ने इस कृति की लिखित प्रशंसा की थी।

भारत के राष्ट्रपति रहे प्रख्यात दर्शनशास्त्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे। उन्होंने लिखा, ”भगवद्गीता एक दर्शन ग्रंथ है और एक प्राचीन धर्म ग्रंथ भी है।” उन्होंने गीता का भाष्य किया। गीता ने सारी दुनिया को प्रभावित किया। इसका प्रभाव चीन और जापान तक पड़ा। जर्मन धर्म के अधिकृत भाष्यकार जे. डब्लू. होवर ने लिखा, ”यह सब कालों में सब प्रकार के धार्मिक जीवन के लिए प्रमाणिक है। इसमें इंडो जर्मन धार्मिक इतिहास के महत्वपूर्ण दौर का प्रमाणिक निरूपण है।” लोकमान्य तिलक ने भी गीता की व्याख्या की और गीता रहस्य नामक ग्रंथ लिखा। गीता रहस्य में प्रवृत्तिमार्गी दृष्टि है। गीता रहस्य को बहुत प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है।

गीता का आनंद किसी भी पृष्ठ से लिया जा सकता है। विश्व रूप को ही देखिए, संजय ने धृतराष्ट्र को बताया, ”रोमांचित विस्मित अर्जुन ने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और कहा मैं आपके शरीर में सभी देवताओं और तमाम जीवों को देख रहा हूं। मैं कमलासीन ब्रह्मा, शिव और सभी ऋषियों को व सर्पों को देख रहा हूं। आपके अनेक हाथ हैं, अनेक मुख हैं और अनेक आंखें हैं।”

एक ही केन्द्र पर समूचे ब्रह्माण्ड को देखना बड़ी बात है। श्रीकृष्ण द्वारा दिखाए गए दिव्यरूप ऋग्वेद के पुरुष से मिलते हैं। ऋग्वेद का पुरुष भी सहस्त्रशीर्षा, सहस्त्र पैरों वाला है। गीता में अर्जुन द्वारा देखे गए विश्वरूप का वर्णन है। अर्जुन इस रूप को देखकर कांप उठा और बोला अनेक मुखों, आंखों, भुजाओं, पैरों, पेटों, बड़े-बड़े दांत वाले इस भयानक रूप को देखकर सब डर गए हैं। अर्जुन ने पूछा, ”आप कौन हैं? भयानक उग्र रूप वाला तू कौन है? आपको नमस्कार है। मैं जानना चाहता हूं कि तू आदिदेव कौन है?” श्रीकृष्ण ने कहा, ”मैं लोकों का क्षय करने वाला काल हूं।”

काल अपना काम करता है। इस मान्यता को नियतिवाद कहते हैं। कर्म से संपन्नता आती है। कर्म से यश मिलता है। कर्म से युद्ध है। युद्ध कर्म से विजय मिलती है। राज्य के सुख मिलते हैं। यह पुरुषार्थवाद कहलाया। पुरुषार्थवादी कर्म पर भरोसा करते हैं और नियतिवाद से इनकार करते हैं। गीता में दोनों हैं। कर्मयोग गीता का केन्द्रीय विचार है। वैदिक काल भी कर्म प्रधान था। ऋग्वेद के एक मंत्र में कहते हैं कि, ”देवता परिश्रम करने वाले के मित्र बन जाते हैं। आलसी और अकर्मण्य लोगों की सहायता देवता नहीं करते।” यही विश्वास भारतीय दर्शन में व उपनिषद् आदि ग्रंथों में उपस्थित है। भारत के दर्शन का आकर्षण सारी दुनिया में है।

रूस के राष्ट्रपति पुतिन के लिए इससे बेहतर क्या हो सकता है कि उन्हें सत्कार देने वाला व्यक्ति भारत का प्रधानमंत्री है। गीता की प्रतिष्ठा बढ़ रही है। ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमीन के नेता वारिस पठान ने कहा है कि अगर मोदी ने गीता की जगह कुरान भेंट की होती तो ज्यादा बेहतर होता। एआईएमआईएम का कुरान भेंट करने का बयान निंदनीय है। कुरान और गीता की तुलना नहीं की जानी चाहिए थी। सत्यनिष्ठ तुलना में मृदु शब्द ही नहीं निकलते। ऐसे बयान देश को कमजोर करते हैं।

दुर्भाग्य से इस्लामी राजनीति में कट्टरपंथ है। उनके यहां कोई कृष्ण नहीं हुआ। इस राजनीति में अलगाववाद है। इस्लामी राजनीतिक चिंतन में दुर्भाग्य से कोई दार्शनिक नहीं हुआ। इसीलिए इस्लाम पर बहस नहीं हो सकती। गीता का जन्म ही कुरुक्षेत्र में दो सेनाओं के मध्य खड़े अर्जुन के विषाद से हुआ। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान, कर्म और भक्ति की धाराएं समझाईं। जीवन को कर्म प्रधान बताया। सब बताने के बाद श्रीकृष्ण ने प्रश्न किया कि, ”यह सब सुनने के बाद आपका मन कैसा है?” अर्जुन ने उत्तर दिया, ”आपकी कृपा से हमारा मोह नष्ट हो गया-नष्टो मोहा। स्मृति लौट आई-स्मृति लब्धा”।

हिन्दुओं पर बहुदेवपूजक होने के आरोप लगाते हैं। हिन्दू बहुदेववादी नहीं एकेश्वरवादी और बहुत देव उपासक हैं। इस आलेख की अंतिम बात, पूरी गीता पढ़ते समय बार-बार ऐसा प्रतीत होता है कि बस अब हो गया लेकिन गीता के अंतिम अंश में विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लेख है। दुनिया का कोई भी पंथ, मजहब, रिलिजन ऐसे उपदेश नहीं देता। श्रीकृष्ण कहते हैं, ”मैंने सभी रहस्यों से बड़े रहस्य वाला ज्ञान बताया है। इस पर गहन विचार करो और जैसी इच्छा हो वैसा करो-यथेच्छसि तथा कुरु।”

भारतीय चिंतन और ज्ञान परंपरा में कहीं भी असहमत को पीड़ित करने या मार देने की बात नहीं है। सहमत और असहमत दोनों विकल्प यहां व्यवहारिक रूप में भी सुस्पष्ट हैं। बड़ी बात है कि युद्ध से अलग होने की घोषणा करने वाले अर्जुन से कृष्ण कहते हैं, ”यथेच्छसि तथा कुरु-जो इच्छा हो सो करो।”

(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश