भारत–रूस संबंध और बदलता वैश्विक समीकरण
- डॉ. प्रियंका सौरभ रूस के साथ भारत के संबंध दशकों से सामरिक साझेदारी, रक्षा सहयोग और राजनीतिक विश्वास की मजबूत नींव पर टिका रहा है। शीतयुद्ध के दौर से लेकर वर्तमान तक रूस उन कुछ देशों में रहा, जिसने कठिन समय में भी भारत के हितों का समर्थन किया। प
प्रियंका सौरव


- डॉ. प्रियंका सौरभ

रूस के साथ भारत के संबंध दशकों से सामरिक साझेदारी, रक्षा सहयोग और राजनीतिक विश्वास की मजबूत नींव पर टिका रहा है। शीतयुद्ध के दौर से लेकर वर्तमान तक रूस उन कुछ देशों में रहा, जिसने कठिन समय में भी भारत के हितों का समर्थन किया। परंतु साल 2022 में शुरू हुए रूस–यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक राजनीति, ऊर्जा बाज़ार, वित्तीय ढांचे और सामरिक गठबंधनों को जिस तरह बदल दिया है, उसने भारत–रूस संबंधों को एक नए मोड़ पर ला खड़ा किया है। पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए कड़े प्रतिबंधों ने न केवल रूस की अर्थव्यवस्था और उसकी रक्षा-उत्पादन क्षमता को प्रभावित किया है, बल्कि भारत जैसे साझेदार देशों के लिए भी अभूतपूर्व कूटनीतिक चुनौतियाँ पैदा की हैं। एक ओर अमेरिका, यूरोप और इंडो-पैसिफिक साझेदार भारत से पश्चिमी मानदंडों का पालन करने की उम्मीद करते हैं, वहीं दूसरी ओर भारत रूस से ऊर्जा, रक्षा और अंतरराष्ट्रीय संतुलन की ज़रूरतों को अनदेखा नहीं कर सकता। इस दोराहे पर भारत की सबसे बड़ी परीक्षा है कि कैसे रूस के साथ संबंधों को बनाए रखते हुए अपनी सामरिक स्वायत्तता को मजबूती से स्थापित किया जाए।

आज की सबसे बड़ी जटिलता यह है कि रूस धीरे-धीरे चीन के करीब जाता दिख रहा है और यह समीकरण भारत के हितों की दृष्टि से पूरी तरह अनुकूल नहीं कहा जा सकता। चीन के साथ रूस का बढ़ता आर्थिक, तकनीकी और सैन्य सहयोग उस क्षेत्रीय संतुलन को प्रभावित कर रहा है, जिसमें भारत अपनी सुरक्षा रणनीति का निर्माण करता है। भारत जानता है कि चीन की मंशा केवल एशिया प्रभुत्व तक सीमित नहीं बल्कि वैश्विक शक्ति-संतुलन को बदलने की है। ऐसे में रूस–चीन निकटता भारत की सामरिक गणना को कठिन बनाती है।

पश्चिम द्वारा लगाए गए प्रतिबंध भी भारत के लिए कम चुनौतीपूर्ण नहीं हैं। रूस से होने वाले रक्षा आयात और महत्वपूर्ण स्पेयर पार्ट्स पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण धीमे पड़ रहे हैं। भारत की वायुसेना और थलसेना जिन कई प्रमुख प्रणालियों पर निर्भर हैं, वे रूस द्वारा निर्मित या रूस के सह-उत्पादन वाले हैं। यूक्रेन युद्ध के चलते रूसी रक्षा उद्योग पर जो दबाव बढ़ा है, उसने भारत को कई सैन्य परियोजनाओं की समय-सीमा को लेकर चिंतित कर दिया है। कुछ हथियार प्रणालियों और मिसाइल डिलीवरी में देरी भी इसे दर्शाती है। यह स्थिति भारत को मजबूर करती है कि वह दीर्घकालिक रूप से अपने रक्षा स्रोतों को विविध बनाए और घरेलू उत्पादन पर अधिक ध्यान दे।

इसी बीच व्यापारिक असंतुलन भी भारत–रूस संबंधों का एक गंभीर पहलू बनकर उभरा है। कच्चे तेल के आयात में भारी वृद्धि ने रूस के साथ भारत के व्यापार को एकतरफा बना दिया है। रूस को भारत से निर्यात बेहद कम है और भुगतान प्रणाली भी स्पष्ट ढंग से स्थिर नहीं हो पाई है। रुपया–रूबल व्यापार व्यवस्था पश्चिमी प्रतिबंधों और अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग नियमों के कारण अपेक्षित दक्षता हासिल नहीं कर पाई है। इससे दोनों देशों के व्यापारिक ढांचों में अनिश्चितता और जोखिम बढ़ा है।

दूसरी ओर पश्चिमी देश भी चाहते हैं कि भारत रूस को समर्थन कम करे और यूक्रेन मुद्दे पर एक नैतिक रुख अपनाए। लेकिन भारत की विदेश नीति का आधार साझा नैतिकता से अधिक राष्ट्रीय हितों पर आधारित है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में कई बार मतदान से दूरी बनाकर यह स्पष्ट किया है कि वह किसी भी पक्ष का सीधा समर्थन नहीं करेगा। भारत का यह संतुलित रुख उसकी सामरिक स्वायत्तता का प्रतीक है। परन्तु पश्चिमी देशों में इसे लेकर मिश्रित प्रतिक्रियाएँ देखने को मिली हैं। कुछ इसे भारत की ‘प्रैगमैटिक डिप्लोमेसी’ कहते हैं, तो कुछ इसे रूस के प्रति ‘अतिरिक्त सहानुभूति’ की तरह देखते हैं। भारत को इन दबावों के बीच अपनी विदेश नीति को चतुराई से साधना होगा।

भारत के सामने एक चुनौती यह भी है कि रूस और अमेरिका दोनों उसके महत्वपूर्ण साझेदार हैं। अमेरिका आज भारत का सबसे बड़ा तकनीकी और आर्थिक भागीदार है, साथ ही क्वाड के माध्यम से एशिया–प्रशांत सुरक्षा ढांचे का अभिन्न हिस्सा भी। वहीं रूस पारंपरिक सहयोगी है और दशकों से भारत के रक्षा ढांचे का मुख्य स्तंभ बना हुआ है। इन दोनों स्तंभों के बीच संतुलन बनाए रखना भारत की कूटनीति के लिए अत्यंत जटिल किंतु आवश्यक कार्य है। भारत को यह दिखाना होगा कि दोनों साझेदारियों में विरोधाभास नहीं बल्कि परस्पर पूरक लाभ हैं।

भारत इस मुश्किल संतुलन को बनाए रखने के लिए कई कूटनीतिक रणनीतियाँ अपना सकता है। सबसे पहले, उसे रक्षा आयात पर निर्भरता कम करके मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत को तेज़ी से आगे ले जाने की नीति अपनानी होगी। रूस के साथ संयुक्त उत्पादन और तकनीकी सहयोग को भारतीय भूमि पर बढ़ाया जा सकता है, जिससे सीधे आयात पर निर्भरता घटेगी और प्रतिबंधों का प्रभाव न्यूनतम होगा। इसके साथ ही भारत को यूरोप, अमेरिका, फ्रांस और इज़राइल जैसे देशों के साथ नई रक्षा साझेदारियों को मजबूत करना होगा।

दूसरा महत्वपूर्ण कदम यह होगा कि भारत रूस के साथ ऊर्जा, कृषि, फार्मा, आईटी और अन्य गैर-रक्षात्मक क्षेत्रों में व्यापारिक विविधता को बढ़ाए। इससे व्यापारिक असंतुलन कम होगा और दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं में स्थिरता आएगी। तीसरा उपाय यह है कि भारत को एक विश्वसनीय और प्रतिबंध-सुरक्षित भुगतान व्यवस्था विकसित करनी होगी। इसके लिए ब्रिक्स, एससीओ और वैकल्पिक वित्तीय प्रणालियों का उपयोग कारगर हो सकता है।

कूटनीतिक स्तर पर भारत को रूस के साथ भरोसेमंद संवाद बनाए रखना होगा, और साथ ही पश्चिमी देशों को यह संदेश भी देना होगा कि भारत की तटस्थता उसकी जिम्मेदार सामरिक सोच का परिणाम है। भारत ने पहले भी यह सिद्ध किया है कि वह किसी ब्लॉक में शामिल हुए बिना भी अपने हितों की रक्षा कर सकता है। आज की वैश्विक परिस्थितियाँ भारत से और भी परिपक्व एवं बहुआयामी दृष्टिकोण की मांग करती हैं।

इन सभी परिवर्तनों के बीच यह भी महत्वपूर्ण है कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करते हुए किसी भी महाशक्ति का अनुसरण न करे। भारत ने हमेशा एक बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का समर्थन किया है, जिसमें किसी एक शक्ति का वर्चस्व न हो। रूस के साथ संबंध बनाए रखते हुए भी भारत को अपनी स्वतंत्र विदेश नीति की दिशा को स्पष्ट रखना होगा—एक ऐसी नीति जो न तो दबाव में निर्णय ले और न ही किसी संघर्ष में अनावश्यक पक्षधरता दिखाए।

अंततः भारत–रूस संबंध आज ऐतिहासिक मोड़ पर खड़े हैं। यूक्रेन युद्ध, प्रतिबंधों की राजनीति और बदलते गठबंधन ढांचे ने इस संबंध को चुनौतीपूर्ण बना दिया है, परंतु इसमें अवसर भी छिपे हैं। भारत को यह समझना होगा कि रूस उसके लिए सिर्फ रक्षा सहयोगी नहीं, बल्कि एक ऐसा साझेदार है जिसके साथ ऊर्जा सुरक्षा, अंतरराष्ट्रीय संतुलन और एशियाई राजनीति के कई पहलू जुड़े हुए हैं। इसी तरह पश्चिम भी भारत के उदय का अनिवार्य साझेदार है। इसलिए भारत का लक्ष्य किसी भी एक ध्रुव की ओर झुकना नहीं, बल्कि संतुलन का वह मार्ग चुनना होना चाहिए जो उसकी सामरिक स्वायत्तता, आर्थिक स्थिरता और वैश्विक भूमिका को अधिक सशक्त बनाता है। भारत के लिए यही वह समय है जब उसे अपने कूटनीतिक कौशल, शांत तर्क और दृढ़ संकल्प का उपयोग करते हुए दुनिया को यह दिखाना होगा कि सामरिक स्वायत्तता केवल नीति नहीं बल्कि भारत की वैश्विक पहचान है।

(लेखिका, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश