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गिरीश्वर मिश्र
लोकतंत्र की शासन-विधा जितना उन्मुक्त करती है उतनी ही सतर्कता की भी अपेक्षा करती है। इसके सार्थक संचालन के लिए कुछ मर्यादाओं का पालन आवश्यक होता है। उन मर्यादाओं में जो उसके अस्तित्व की रक्षा करती हैं उसमें आम चुनाव की बेहद ख़ास भूमिका है। चुनाव के माध्यम से जनता के सरोकारों का पता चलता है तथा उसकी पसंद और नापसंद की अभिव्यक्ति होती है। इसी से सरकारें बनती हैं और शासन-प्रक्रिया की नींव भी पड़ती है। हम सब देख रहे हैं कि विश्व में वे देश जो ठीक समय पर आम चुनाव करा पाते हैं और आम चुनाव की गरिमा की रक्षा कर पाते हैं वहाँ लोकतंत्र का स्वास्थ्य प्राय: ठीक रहता है। इसलिये यह जरूरी हो जाता है कि यह सुनिश्चित किया जाय कि चुनाव शांतिपूर्ण हों और उसकी शुचिता सुरक्षित बनी रहे। इसके लिए सभी राजनैतिक दलों को चुनाव की मर्यादाओं का अनिवार्य रूप से पालन करना होगा। साथ ही यह भी आवश्यक होगा कि चुनाव का तंत्र निष्पक्ष रूप से चुनाव का कार्य पूरा करे और उसे काम करने की पूरी छूट दी जाय। निर्वाचन आयोग मुस्तैदी से चुनाव कराने और उसके लिए उचित व्यवस्था बनाये रखने की भरपूर कोशिश करता रहा है। इस काम में उसे सफलता भी मिली है।
चूँकि चुनाव राजनीति के जीवन-चक्र की धुरी होता है और उसके परिणामों पर ही राजनेताओं का भविष्य निर्भर होता है, उसका प्रलोभन भी अत्यन्त आकर्षक होता है। लोग चुनाव को प्रभावित कर अपने पक्ष में करने को लालायित और व्यग्र रहते हैं। इससे जुड़े सब लोगों की नजर अपने लिए प्रतिस्पर्धा के बीच चुनावी सफलता को सुनिश्चित करने पर ही टिकी होती है। राजनैतिक पार्टियां भी उसी उम्मीदवार को चुनावी टिकट देकर अपना दाँव लगाती हैं जिसे जीत सकने की संभावना होती है। आज के दौर में यह चुनौती बहु आयामी हो चली है जिसमें राजनैतिक विचारधारा के साथ प्रतिबद्धता कम और कर्मठता तथा योग्यता पर जनता जनार्दन की ज्यादा नजर होती है। इसके साथ ही जाति, क्षेत्र, और भाषा भी मुख्य किरदार बन कर खास भूमिका निभा रहे हैं।
यह दुर्भाग्य ही है कि जाति आज की राजनीति की प्रमुख भाषा होती जा रही है। जाति को दूर करने के लिए कटिबद्ध राजनेता चुनाव में जाति के प्रति जिस तरह समर्पित दिखते हैं वह निराशाजनक है और जाति की जड़ों को मजबूत करने वाला है। आज इन सबके जटिल समीकरण बिठाने पर ही चुनावी रणभूमि में कामयाबी मिल पाती है। जातियों के छत्रप और बाहुबली इसी तरह चुनाव जीतते हैँ और मंत्री भी होते हैं। हमारे सामने खड़े उम्मीदवारों में ऐसे सफल खिलाड़ी भी दिखते हैं जो धन और बाहुबल की बदौलत आगे बढ़ते हुए अपनी पहचान बना चुके होते हैं। बढ़ती दबंगई इस परिदृश्य को नैतिक रूप से तेजी से प्रदूषित कर रही है। चुनाव आने पर अन्तर सामूहिक हिंसा बढ़ने लगती है और जोर-जबरदस्ती से डरा-धमका कर या फिर रुपये और शराब आदि की लेन-देन के ज़रिए मतदाताओं को रिझाने-फुसलाने और अपने पक्ष में करने का कार्यक्रम चल पड़ता है।
आज राजनीति का पूरा माहौल जिस तरह बदल रहा है सभी दल तरह-तरह के जुगाड़ और तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। चुनावी प्रचार कार्य में तमाम हथकंडे अपनाए जाते हैं। स्टार प्रचारकों को साथ लेकर रैली, रेला, रोड शो और रथारूढ़ जुलूस के साथ भौंडा प्रदर्शन आम होता जा रहा है। इन सब युक्तियों की सहायता से जन-समर्थन जुटाने या जनता पर धौंस जमाने की भरपूर कोशिश की जाती है। जनसभा में प्रत्याशियों के लिए मत बटोरने में सहायता पहुँचाने के लिए पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की आमद होती है जिनके लिए भीड़ जुटाने की जोरदार कवायद होती है। ये दुर्लभ नेता अपने लाव-लश्कर के साथ देर-सबेर जनसभा में उपस्थित होते हैं। जनता उनको देखने और एक झलक पाने को उत्सुक रहती है। अपने संबोधन में ये नेता अवसर भांपते हुए जनता से नाता बना कर जुड़ने की जी तोड़ कोशिश करते हैं। उनके प्रवचनों में विरोधी पार्टियों और उसके नेताओं की छवि को हास्यास्पद बनाते हुए उसे धूमिल करने की कोशिश होती है। यह बड़ा दुखद है कि अपनी बात कहने, विकल्प प्रस्तुत करने और सकारात्मक एजेंडा न पेश कर दूसरों की छवि का हनन करते हुए उसे नुक़सान पहुँचाने के प्रयास ही मुख्य रूप से किए जाते हैं। यह भी गौरतलब है कि कुछ नेताओं के संबोधनों में असंयत भाषा का उपयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। पुराने लोग इस तरह की भाषा को अशिष्ट और असभ्य की कोटि में रखेंगे।
चुनावी दौड़ का एक और खास पहलू यह भी है कि नेता गण अक्सर बड़े-बड़े दावों के साथ तरह-तरह के संभव-असंभव लुभावने वादे करते नहीं थकते। ये वादे उन्हें लोकप्रिय बनाते हैं और जनता के करीब पहुंचाते हैं। फिर अपने दल की उपलब्धियां गिनाते हुए अपने दल के प्रत्याशी के लिए वोट मांगा जाता है। प्रचार के चरम पर पहुचने के करीब राजनैतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्र जिसे कभी संकल्प पत्र तो कभी प्रतिज्ञा या प्रणसूची कहा जाता है, उसे उत्सवपूर्वक जारी करते हैं। इसमें वे यह बताते हैं कि अगर उनकी सरकार बनी तो जनता के लिए क्या क्या किया जाएगा। इसकी फेहरिस्त इतनी बड़ी होती है कि उसे इच्छापूरक कल्पतरु या जादुई पिटारे से किसी भी तरह कम नहीं कहा जा सकता। इसके द्वारा जनता को चित्ताकर्षक और मनोहारी सब्जबाग दिखाया जाता है। स्वर्गलोक को धरती पर उतारने और सबकी ज़िन्दगी संवारने के लिए जरूरी सारी योजनाओं का विवरण देते हुए ये घोषणा पत्र बड़े धूमधाम से जारी किए जाते हैं। यह सब करते हुए इस बात का अता-पता नहीं होता कि वादों को निभाने के लिए जरूरी राजस्व कहाँ से आएगा और इसके लिए क्या व्यवस्था करनी होगी। हाँ, यह जरूर है कि इसमें जनता के सभी वर्गों को संतुष्ट करने के लिए कुछ न कुछ जरूर परोसा जाता है।
चुनावी वादा करते हुए अपने वर्चस्व की स्थापना ही पार्टी का मुख्य प्रयोजन होता है। चुनाव में भाग लेने वाले विभिन्न दलों में यह होड़ लगी रहती है कि वे एक-दूसरे से बढ़-चढ़ कर वादे करें। चूँकि ये वादे भर होते हैं, इसलिए उनको पूरा करने का प्रश्न उनके लिए कोई महत्व नहीं रखता है । आजकल चुनावी वादों की सूची में क्या कुछ नहीं होता- रुपया-पैसा, कर्ज, नौकरी, मकान, खाने के लिए अन्न, खेती के लिए बीज, पानी, बिजली, तीर्थ यात्रा की व्यवस्था और वृद्धावस्था पेंशन आदि सब कुछ देने की बात की जाती है। यह सब देख कर शिक्षा, स्वास्थ्य, चरित्र-निर्माण और विकास के लिए परिश्रम आदि की बात पिछड़ जाती है। उसकी जगह बैठे रहने और सबकुछ पा लेने की बात गुमराह करने वाली हो जाती है। लगता है चुनावी घोषणा पत्र की कोई सीमा नहीं होती और उसमें क्या दिया जा सकता है, क्या प्रावधान हो सकता है इसे लेकर नियंत्रित करने वाला कोई सक्षम विधि-विधान नहीं है। राजनीतिक कल्पनाशीलता और अपनी सूझबूझ के साथ विभिन्न दल कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र रहते हैं। कुछ समय पहले हुए चुनाव में कांग्रेसी और आम आदमी पार्टी ने भविष्य में क्या मिलेगा, इसके लिए मतदाताओं से पूर्व प्राप्ति के फ़ार्म भी भराये थे। और तो और चुनाव के पास आने की आहट आते ही सत्तारूढ़ दल भूली-बिसरी और नई आधिकाधिक कल्याणकारी योजनाओं को लेकर जनता से मुखातिब होने लगता है। नई-नई योजनाओं को शुरू करने की दनादन घोषणा भी शुरू हो जाती है।
चुनाव में मतदाता सूची की अहम भूमिका होती है। अभी हुई मतदाता सूची की जाँच से पता चला कि एक राज्य में मृत और कई स्थानों से मतदाता के रूप में पंजीकरण जैसी गलतियों को सुधारने पर लाखों की तादाद में पंजीकृत मतदाताओं को बाहर करना पड़ा। मतदाता सूची की जांच और सत्यापन लोकतंत्र की रक्षा के लिए बेहद जरूरी है। यह एक अच्छी और स्वागतयोग्य पहल है जो निर्वाचन आयोग द्वारा पूरे देश में जल्दी ही शुरू की जाने वाली है। हालांकि कई राजनेता इसे लोकतंत्र के लिए फौरी तौर पर खतरनाक भी बता रहे हैं। मतदाता सूची में सुधार की मुहिम को लेकर उच्चतम न्यायालय में बहस जारी है। सही ढंग से चुनाव हो इसके लिए जरूरी है कि सूची प्रामाणिक हो और उसमें वास्तविक मतदाता सम्मिलित हों।
भारत जैसे विशाल देश में चुनाव एक पेचीदा, खर्चीला और जटिल उपक्रम होता गया है। इसके लिए समय, शक्ति और व्यवस्था का बहुत बड़े पैमाने पर विनियोग करना होता है। ईवीएम के उपयोग से चुनाव और मतगणना के कम में निश्चित ही सुभीता हुआ है परंतु सालभर चुनाव होते रहने के कई दुष्परिणाम भी होते हैं। इसके लिए एकल चुनाव जिसमें राज्य विधानसभा और लोकसभा दोनों का एक साथ ही चुनाव किया जाय, इसे लेकर सहमति बनाने की कोशिशें चल रही हैं। यह सब देखते हुए भारत में बड़े पैमाने पर चुनावी सुधार जरूरी हो गया है। तभी इसकी मर्यादा प्रतिष्ठित हो सकेगी। जो भी हो चुनावी ऋतु आते ही अदृश्य हुए नेता समाज के क्षितिज पर प्रकट होने लगते हैं। जनसंपर्क अभियान शुरू होता है और लोकमत को अपने पक्ष में लेने की हरसंभव कोशिश शुरू हो जाती है। काश चुनाव के निकट आने पर दिखने वाली लोकोभिमुखता वाली यह प्रवृत्ति नेताओं में पहले भी सक्रिय होती।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश