आखिर कब सुनिश्चित होंगे श्रमिकों के समग्र हित
अरुण कुमार दीक्षित भारत को स्वाधीन हुए 76 वर्ष हो गए हैं। श्रमिकों को अभी तक उनके अधिकार नहीं मिले
अरुण कुमार दीक्षित


अरुण कुमार दीक्षित

भारत को स्वाधीन हुए 76 वर्ष हो गए हैं। श्रमिकों को अभी तक उनके अधिकार नहीं मिले । मजदूरों के जीवन स्तर में सुधार नहीं आए। मई दिवस अर्थात मजदूर श्रमिक दिवस इस परिश्रमी में वर्ग को समर्पित है। मई दिवस अमेरिका में मजदूरों के आंदोलन से शुरू हुआ था। भारत में इसे 1मई 1923 को मद्रास चेन्नई में मनाया गया। यहां पर भी मजदूर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान ने मजदूरों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी। उन्होंने ही मजदूर दिवस का शुभारंभ किया। मजदूर को काम करने के घंटे निर्धारित नहीं थे। समय निर्धारित न होने के कारण श्रमिक वर्ग के सामने बड़ा संकट था। 1 मई 1886 को अमेरिकी मजदूरों द्वारा आंदोलन किया गया। इस आंदोलन से पूरे विश्व के मजदूर वर्ग का लाभ हुआ।

भारत में अनेक मजदूर संगठन है। भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) सबसे बड़ा संगठन है। मजदूरों को उनके अधिकार दिलाने में बीएमएस की बड़ी भूमिका है। पूंजीपतियों, उद्योगपतियों द्वारा मजदूर श्रमिकों को आदर भाव से नहीं देखा जाता। उन्हें समय से मजदूरी नहीं मिलती। उद्योग परिसरों में मजदूरों को उनके रहने की ठीक व्यवस्था नहीं है। पीने का पानी भी ठीक नहीं मिलता। इतना ही नहीं, इन उपेक्षित और राष्ट्र निर्माता कामगार वर्ग से उद्योगों के मालिक उनके अधिकारी सम्मानजनक ढंग से बात भी नहीं करते।मजदूरों के बीमार होने पर वह इलाज का समुचित प्रबंध भी नहीं करते। प्राथमिक इलाज देने में भी यह उद्योगपति पीछे रहते हैं। मशीन से दुर्घटनाग्रस्त हो जाने या मृत्यु होने पर भी यह उद्योगों के स्वामी मजदूर को किसी भी अस्पताल में बमुश्किल पहुंचा कर गायब हो जाते हैं। परिजनों को सूचना नहीं देते हैं। बीमार होने पर मजदूर को अपनी कंपनी से सीधे निकाल देते हैं ।

अनेक ऐसे उद्योग हैं जो शरीर के लिए घातक हैं। इस तरह के उद्योगों द्वारा शारीरिक सुरक्षा के उपकरण भी नहीं दिए जाते हैं । अनेक प्रकार के एसिड केमिकल शीशा आदि की कंपनियों में काम करने वाले मजदूरों को घातक कैंसर जैसी बीमारियां जकड़ लेती हैं। बीमार हो जाते हैं। कई बार मृत्यु तक हो जाती है। परिणाम स्वरूप पीड़ित मजदूर की नौकरी जाना तय होता है। उद्योग में काम करने वाले मजदूरों की स्थिति भयावह है। इसमें महिला मजदूरों के सामने अपने छोटे बच्चों के पालन पोषण के साथ काम करना भारी कठिनाई भरा है। कृषि क्षेत्र में लगे मजदूरों की भी बड़ी समस्याएं हैं। यह कार्य अल्प समय का होता है। फसल काटने से खलिहान तक काम मिलता है । इसके बाद मजदूर बेकार हो जाते हैं। अब आधुनिक मशीनों का खेती में प्रयोग बढ़ा है । धान और गेहूं, सरसों कपास आदि की फैसले ऐसी हैं जिन्हें मशीन खेत में काटकर काम समाप्त कर देती है। खलिहान अब सूने हो गए हैं ।

कुशल, अकुशल, अर्ध कुशल, संगठित असंगठित आदि कई श्रेणी के मजदूर हैं। कुछ का अनुबंध होता है । शेष बिना अनुबंध के काम करने को मजबूर होते हैं। एक जानकारी के अनुसार भारत में 38 करोड़ असंगठित निर्माण क्षेत्र के मजदूर हैं। इनमें रेहड़ी-पटरी घरेलू कामगारों को पंजीकृत करने की योजना भारत सरकार ने चला रखी है। इस योजना में ई, श्रम कार्ड 12 अंकों का जारी किया जाता है । बाल श्रमिकों की अधिकता है। बाल श्रमिकों को जहां केंद्र राज्य सरकारें काम करने से रोकती हैं, वहीं उद्योगों और कार्य स्थलों को चिह्नत कर उन्हें मुक्त भी करवाने की जिम्मेदारी है। वहीं दूसरी ओर बाल श्रमिकों के सामने बड़े संकट हैं। किसी बच्चे के पिता-भाई और माता नहीं है तो पीड़ित बच्चों के सामने मजदूरी करना मजबूरी है। एक तरफ बीमार मां को दवा के लिए रुपये जुटाने हैं। दूसरी तरफ बाल मजदूरी अपराध है।

ऐसे में केंद्र राज्य सरकार में बाल श्रमिकों को चिह्नित कर उनके आश्रितों की मदद भी करें तो बाल श्रमिकों की समस्याएं हल हो सकती हैं। कई बाल श्रमिक ऐसे होते हैं जिनके माता-पिता जेल में हैं । कुछ दुर्घटनाओं में अपने मां-बाप को खो चुके हैं। ऐसे बाल मजदूर हैं जो मजदूरी के लिए रात-दिन कड़ा परिश्रम करते हैं। बाल मजदूरी रोकने का अधिनियम 1986 बाल श्रम निषेध बना था, इसमें कहा गया कि किसी कारखाने, खतरनाक खदानों, उद्योगों आदि में 14 वर्ष के उम्र के बच्चों को काम निषेध है। बाद में केंद्र सरकार ने यह उम्र 14 से 18 से कम उम्र पर इसे लागू किया। समान पारिश्रमिक अधिनियम 1951 में पारित हुआ। इसमें कहा गया कि रोजगार या वेतनमान में जाति धर्म लिंग देश के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा ।महिलाओं के सरकारी रोजगार में पदोन्नति के समान औसत दिए जाएंगे।इसमें अब तक कई बार संशोधन भी हो चुके हैं। वर्ष 1976 में बंधुआ मजदूरी में उन्मूलन अधिनियम लागू हुआ। धीरे-धीरे यह अमानवीय मजदूरी प्रथा समाप्त हुई।

खेतिहर मजदूरों के अलावा उद्योगों में कार्य करने वाले कुशल मजदूरों की समस्याएं बड़ी हैं। उद्योगपतियों-पूंजीपतियों के शोषण से श्रमिक वर्ग पीड़ित था। तभी किसान नेता चिंतक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने इस विषय पर गहन अध्ययन किया। 23 जुलाई 1955 को श्री ठेंगड़ी ने भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की। भारतीय ग्रंथों में श्रम को प्रतिष्ठा दी गई है। कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहा गया है कि किसी भी श्रमिक को कम से कम इतना पारिश्रमिक मिलना चाहिए, जिससे उसका जीवनयापन हो सके।

अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत विषय में प्रसिद्ध दार्शनिक विचारक कार्ल मार्क्स कहता है कि वस्तुओं की तरह श्रम शक्ति का भी मूल्य होता है । उसे बाजार में बेचा-खरीदा जाता है। मजदूर को अपने भरण-पोषण निर्वाह के लिए कुछ वस्तुओं की आवश्यकता होती है। मशीन की तरह मजदूर भी जर्जर हो जाता है। उसकी जगह नए आदमी की जरूरत पड़ती है। मजदूर से पूरी क्षमता के अनुसार काम लिया जाता है। मजदूर को रहन-सहन के बहुत नीचे स्तर पर रहना पड़ता है। वह आगे कहता है कि वर्ग संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक स्वयं कामगार वर्ग समाज की बागडोर नहीं संभालेगा।

मगर भारत के वैदिक ग्रंथों में यह धारणा नहीं है। यहां प्रत्येक तरह के कला शिल्प को विशिष्ट बताया गया है। रथकार , मूर्तिकार , कृषि कर्म करने वालों को, लकड़ी के काम करने वालों को, मंदिर बनाने वालों को पुष्पमाला बनाने वाले को , मिट्टी के कलश निर्मित करने वाले कुम्हार को भी आदर दिया गया है। कोई वर्ग संघर्ष की बात नहीं आई। भारत में वस्तुओं का उत्पादन कर्ता ही प्रायः उपभोक्ता रहा है। तब बेरोजगारी की बात न थी। चित्रकारों को यह चिंता नहीं रहती थी कि मूर्तियां, चित्र नहीं बिके, तब क्या होगा। भारत में बाजार हावी नहीं था। संगीतकार ,कथाकार वाद्य यंत्रों को बनाने वाले पूरी तरह से लोक पर निर्भर थे। इतना ही नही स्वयं के द्वारा बनाई गई वस्तुओं के मूल्य शिल्पकार ही तय करते थे । भारत की शिल्पी संस्कृति को अंग्रेजों ने नष्ट किया। अंग्रेजों ने भारत के शिल्पियों को उनकी गौरवशाली संस्कृति से अलग किया। मात्र मजदूर बनकर छोड़ दिया । सवाल यह है कि क्या मई दिवस मनाने से मजदूरों के जीवन स्तर में सुधार आएगा।

सच यह है कि श्रमिकों के जीवन में तभी सुधार आएगा जब हम राष्ट्र की संस्कृति के अनुरूप प्रत्येक कामगार श्रमिक को न्याय और समता के आधार पर जीवन जीने का, उनके अधिकारों की रक्षा का संकल्प श्रमिक दिवस में नहीं लेते। श्रमिकों का शोषण रुकने वाला नहीं है। तत्कालीन कांग्रेस के नेतृत्व सरकारों ने काम के बदले अनाज, जवाहर रोजगार योजनाओं के साथ महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम 2006 बनाया। इसमें एक मजदूर को वर्ष में सौ दिन काम की गारंटी है। यह गारंटी उस व्यक्ति के द्वारा लिखित काम मांगने पर लागू होती है। मनरेगा योजना में भी बड़ी कठिनाइयां हैं। एक-एक वर्ष तक मजदूरी नहीं मिलती है। अति महत्व की बात यह भी है कि इन मजदूरों की देर में मजदूरी मिलने से इन्हें दवा पानी भोजन के लिए परेशान होना पड़ता है ।

गौरतलब है कि इस योजना की देरी में मजदूरों के भुगतान में जनप्रतिनिधि और शीर्ष अधिकारी भी उपेक्षा ही करते दिखाई पड़ते हैं। अभी वर्ष 2024 में मजदूरी बढ़ाई गई है। विचार कर सकते हैं चार से दस प्रतिशत मजदूरी बढ़ने में कितना लाभ होगा । यह अलग-अलग राज्यों के आधार पर लागू होगी, यह दुर्भाग्य है कि भारत के लाखों मजदूरों की चिंता सरकारी मशीनरी ठीक से नहीं कर पा रही है।

(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

हिन्दुस्थान समाचार/मुकुंद