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डॉ. रमेश ठाकुर
देशभर में झूठे, भ्रामक, फरेब, जालसाज जैसे विज्ञापनों का मामला गर्माया हुआ है। चाहे टीवी हों, अखबार हों या सोशल मीडिया हर जगहे झूठे विज्ञापन भरे हैं। झूठे विज्ञापनों पर रोकथाम के लिए तमाम सख्त नियम मौजूद हैं। कानून भी हल्के नहीं, कठोर हैं। लेकिन, सभी हाथी के सफेद दांत जैसे निष्क्रिय ही हैं? निष्क्रिय क्यों हैं या किए हुए हैं। इस गणित को भी आसानी से समझ सकते हैं। दरअसल, ‘झूठा विज्ञापन तंत्र’ कइयों की जेबें भर रहा है। एक पूरी चेन है इस खेल में? विज्ञापन कंपनियों से लेकर नामचीन हस्तियों, आर्टिस्ट व सरकारों का सीधा वास्ता है, सभी मिलकर मोटा माल काट रहे हैं। ताज्जुब होता है कि ऐसी फिल्मी हस्तियां जो शराब नहीं पीतीं, लेकिन दारू का विज्ञापन करती हैं। ऐसे क्रिकेटर जो गुटखा-खैनी को हाथ तक नहीं लगाते? पर पैसों की चाह में उसका विज्ञापन करते हैं। ऐसे भ्रामक विज्ञापनों पर प्रतिबंध और हस्तियों पर जुर्माने का दिखावा-डर कैसे दिखाया जाता है, जिसका एक ताजा उदाहरण सामने हैं। आज से 5 वर्ष पहले, जब उपभोक्ता संरक्षण कानून-1986 को रिफार्म करके केंद्र सरकार ने लोकसभा और राज्यसभा दोनों में नए कानून उपभोक्ता संरक्षण कानून-2019 के रूप में इस नियत से पारित किया था कि अब झूठे विज्ञापनों पर पूर्ण विराम लगेगा। लेकिन दुर्भाग्य वैसा हो न सका। तब, नियम तो ऐसे बनाए गए थे कि किसी ब्रांड का अगर कोई नामचीन व्यक्ति झूठा एड करेगा, उस पर 10 लाख रुपये का जुर्माना या पांच वर्ष तक की जेल भी हो सकती है। वो बदला हुआ कानून भी कराह रहा है।
मौजूदा समय में टीवी के पर्दे झूठे विज्ञापनों से भरे पड़े हैं। सवाल उठता है, क्या उन्हें सरकार की निगरानी समिति नहीं देखती? जरूर देखती है, लेकिन देखकर अपनी आंखें मूंद लेती हैं। बीते कुछ महीनों में भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण की विज्ञापन निगरानी समिति ने खाद्य व्यवसाय ऑपरेटरों के जरिए भ्रामक दावों वाले करीब तीन दर्जन केसों की पहचान की, और ये सिलसिला रुका नहीं, बल्कि तेजी से आगे बढ़ रहा है। समिति केंद्र सरकार को अप्रोच करती है कि रोकथाम लगाएं, लेकिन उनकी भी कोई नहीं सुनता? झूठे विज्ञापन के लिहाज से हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अब तक का सबसे बड़ा मामला एक्सप्रोज किया। भ्रामक विज्ञापन प्रसारित करने पर बाबा रामदेव द्वारा संचालित कंपनी ‘पतंजलि आयुर्वेद’ को तगड़ी फटकार लगाई, उनकी मार्केटिंग गतिविधियों पर प्रतिबंध भी लगाया। सरकार को कमर कसना होगा इस समस्या को रोकने के लिए, वरना चीजें और बिगडेंगी। बाएं हाथ का खेल है हुकूमतों का? हर्जाना और सजा दोनों बिना देर किए एक्टिव की जाएं। हालांकि, कंपनियां और हुकूमतें भी अच्छे से जानती हैं कि ये धंधा गंदा हैं, जनता परेशान है। पर, क्या करें, अंधी कमाई के सामने वो भी नतमस्तक हैं।
पतंजलि केस को सुप्रीम कोर्ट में ‘इंडियन मेडिकल एसोसिएशन’ ने दायर किया था। उनका आरोप है कि पतंजलि ने एलोपैथिक चिकित्सा को बदनाम किया है। कोविड-19 के दौरान टीकों के बारे में गलत जानकारी देश में फैलाई। हालांकि, इस मामले में चारों तरफ से जब बाबा फंसे तो उन्होंने सार्वजनिक रूप से मांफी भी मांगी। पर, कायदे से देखें तो उनकी माफी इस बात पर मुहर लगाती है कि उनकी मंशा झूठे दावों की आड़ में क्या करने की रही होगी? पंतजलि का मामला इसलिए उजागर हुआ, क्योंकि उसे ‘इंडियन मेडिकल एसोसिएशन’ ने कोर्ट में खदेड़ा। वरना, शिकायतें और भी बहुतेरे पीड़ित करते हैं, जिनकी सुनवाई कोई करना मुनासिब नहीं समझता? एक बात पल्ले नहीं पड़ती कि पढ़ा लिखा और जागरूक समाज भी भ्रामक विज्ञापनों के चंगुल में फंस रहा है। ये सोची समझी साजिश ही है।
बहरहाल, झूठे और भ्रामक विज्ञापनों पर जैसे ही हमले होने शुरू हुए, उन्होंने अपना रास्ता बदल लिया है। सोशल मीडिया की घेराबंदी कर ली। सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्मों पर भद्दे, अश्लील और अशोभनीय विज्ञापनों की मौजूदा समय में भरमार है। लिंग वृद्धि, स्टेमिना बढ़ाना, मर्दाना जोश बढ़ाना, लंबा-ऊंचाई में वृद्धि करने जैसे तमाम असभ्य विज्ञापन इस वक्त दिखाई पड़ते हैं। इन पर प्रतिबंध लगाना केंद्र सरकार के लिए कोई बड़ी बात नहीं? लेकिन इससे जो रेवेन्यू प्राप्त होता है, उस आमदनी को देखते हुए, सरकार भी अपने हाथ पीछे खींच रही हैं। इन सभी परेशानियों से मुकाबला केवल दर्शक कर रहे हैं। वित्तीय नुकसान भी उनका होता है और प्यार से ठगे भी जा रहे हैं। भ्रामक विज्ञापनों को लेकर दर्शक रिपोर्ट भी करते हैं लेकिन कोई एक्शन नहीं होता। ऐसे विज्ञापनों पर तत्काल प्रभाव से प्रतिबंध की सख्त दरकार है। अगर दिक्कत है तो इस आफत को भी ‘एआई’ तकनीक से काबू करना चाहिए।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)/मुकुंद