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भीलवाड़ा, 30 अक्टूबर (हि.स.)। शाहपुरा में अगर अतीत की बात करें तो यहां दशहरा से दीपावली के बीच सुनाई देने वाले लोकगीत हीड़ गुड़लिया का राग अब कहां सुनने को मिलता है। इसकी गूंज अब कम ही सुनाई देने लगी है। पहले बस यही सुनने को जी करता था। ऐसा भी नहीं है कि यह लोकगीत बिल्कुल समाप्त हो गए हैं। परंतु इनको गाने वालों की संख्या में दिन प्रतिदिन कमी आती जा रही है। यह लोकगीत स्वयं ही दीपावली का अहसास कराते हैं। शाहपुरा कभी लोकगीत काफी प्रचलन में था। धीरे-धीरे यह परंपरा खत्म होने लगी है। अभी बाजार में कुछ बच्चे ही नजर आते हैं। पहले सैकड़ों बच्चे इस परंपरा का निर्वाह करते थे। पहले तहनाल गेट, कलिंजरीगेट, उदयभान गेट, गाडरी खेड़ा रामपुरा सहित गावों में दीपावली की दस्तक के रूप में गुड़लिया को देखा जाता था।
हीड़ गुड़लिया जैसे गीतों की सुमधुर आवाज से दिवाली के आने का आभास हो जाता था। दशहरा से दीपावली के अगले दिन तक क्षेत्र के बालक-बालिकाएं दीपावली का आभास दिलाती संध्या होते ही गुड़लिया का गीत.... गुड़लिया म्हारो लाड़लो, शहर में भाग्यो जाय रे भाई, शहर में भाग्यो कांटलो नाई के घर जाय रे भाई गाते हुए घर घर जाती है। इस गायन के दौरान एक छुगली (छोटी मटकी) में छोटे-छोटे छेद कर उसमें दीपक प्रज्जवलित कर उसे सिर पर रखा जाता है। सिर पर छुगली रखकर बच्चे घर और व्यवसायिक प्रतिष्ठानों पर दस्तक देकर गुड़लिया गाती हैं।
लोकगीत का महत्व
कुछ वर्ष पहले तक लोक गीतों का खूब गायन होता था। यों गुड़लिया हीड़ ग्रामीण संस्कृति में दीवाली का पारपंरिक उत्सव के रूप में माना जाता है। ग्रामीण संस्कृति की गंध से सुवासित गीत इस दौरान गाये जाते है। गुड़लिया लोकगीत सरस भावपूर्ण माहौल में गाने के पीछे भी रहस्य छिपा हुआ है। इन लोकगीतों में पशुओं की खुशहाली के लिए ईश वंदना प्रमुख होती है। इस गुड़लिया को गाने में अनूठी लय का प्रयोग होता है। गुड़लिया गाने के पीछे कहा जाता है कि अब दीपावली गई है लोगों को अपनी प्रतिभा को दिखाना चाहिए। इस दौरान कुम्हार के चाक पर उतारी गई मिट्टी की बड़ी मशाल में तिल का तेल और काकड़े डालकर उसे जलाया जाता है। ग्रामीण क्षेत्र में ग्वाले रात्रि में हीड़ रे हीड़, चंदा सूरज ने याद करो, धरती रो भार झेल्यो, जोयड़ा श्याम ने सुमरो, गऊ री रखवाली उठो नी कान ग्वाला, पटेला की गायां डूंगरा चढ़ती, हीड़ रे हीड़ लो तेल डालो हीड़ गाते हुए गोपालकों के घर जाते थे।
पाश्चात्य संस्कृति से ओत प्रोत पॉप म्यूजिक डीजे साउंड के दौर में दशहरा से दिवाली के बीच सुनाई देने वाले लोकगीत ‘हीड़ गुड़लिया’ का राग अब लुप्त हो गया है। इसकी गूंज अब कम ही सुनाई देती है। इस लोकगीत को गाने वालों की संख्या में दिन प्रतिदिन कमी आती जा रही है। बुजुर्गों के कान इन गीतों को सुनने के लिए अब तरस गए हैं। बुजुर्गों का मानना है कि इसके बिना दीपावली का अहसास ही नहीं हो रहा है। गुड़लिया के बगैर दीपावली अधूरी सी लगती है।
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हिन्दुस्थान समाचार / मूलचंद