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डॉ. मयंक चतुर्वेदी
राष्ट्र जीवन की संघत्व धारा अपने शताब्दी मोड़ की ओर बढ़ रही है। आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ठीक उस पथ पर खड़ा है, जहां से अब कुछ ही दिनों बाद उसकी शताब्दी वर्ष की एक नई यात्रा आरंभ हो रही है। वस्तुत: यह संगठन केवल शाखाओं में खेलते बच्चों या गणवेशधारी स्वयंसेवकों तक सीमित नहीं है, आज यह इससे कहीं आगे भारतीय समाज की आत्मा, संस्कृति और चेतना को जागृत करने वाली जीवंत धारा के रूप में दिखाई देता है।
जब जोधपुर में 5 से 7 सितंबर तक संघ की अखिल भारतीय समन्वय बैठक संपन्न हुई, तो वहां का वातावरण केवल संगठनात्मक विमर्श तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उसमें भविष्य का भारत गढ़ने का उत्साह और ऊर्जा भी साफ महसूस की जा सकती थी। सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत और सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने भारत माता के चित्र पर पुष्प अर्पित करते हुए इस बैठक का आरंभ किया था, जिसके बाद विविन्न सत्रों में देश भर से आए हुए प्रमुख संघ प्रेरित 32 संगठनों के 320 पदाधिकारी तथा महिला कार्यों का समन्वय देखने वाली कार्यकर्ताओं को अन्य संघ पदाधिकारियों का पाथेय एवं विमर्श के सूत्र मिले।
सतत तीन दिवस चली इस बैठक के पश्चात जब पत्रकारों के बीच संगठन के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर द्वारा विचार साझा किए गए तो उन तमाम विचारों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजनाएँ इस तथ्य की पुष्टि करती हैं कि संघ का दृष्टिकोण आज कितना व्यापक, सकारात्मक और राष्ट्रनिर्माणकारी है। शिक्षा, समाज, संस्कृति, परिवार, पर्यावरण, महिला शक्ति, जनजातीय समाज और राष्ट्रीय एकता इन सभी पहलुओं पर संघ ने इस बैठक में गहन विचार किया है। निष्कर्ष रूप में उसका लक्ष्य केवल अपने संगठन को बड़ा बनाना नहीं, बल्कि भारत को हर क्षेत्र में शक्तिशाली बनाना है।
बैठक में सबसे प्रमुख विषय शिक्षा रहा। यह सर्वविदित है कि किसी भी राष्ट्र की वास्तविक शक्ति उसकी शिक्षा व्यवस्था में होती है। यदि शिक्षा सही दिशा में प्रवाहित हो तो वह समाज में आत्मविश्वास, राष्ट्रनिष्ठा और संस्कारों का संचार करती है। संघ ने शिक्षा क्षेत्र को अपने एजेंडे का केंद्र बनाकर यह स्पष्ट किया कि आने वाले भारत की नींव मजबूत करने का उसका पहला प्रयास शिक्षा सुधार ही है। विद्या भारती, भारतीय शिक्षण मंडल, अखिल भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे संगठनों ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन से जुड़े अनुभव प्रस्तुत किए।
मातृभाषा में शिक्षा को प्राथमिक से उच्च स्तर तक प्रोत्साहित करने की पहल को विशेष महत्व दिया गया, क्योंकि मातृभाषा ही वह माध्यम है जो बच्चे के मन और मस्तिष्क को सहजता से जोड़ता है। भारतीय ज्ञान परंपरा को शिक्षा से जोड़ने का प्रयास युवाओं में आत्मगौरव जगाने का साधन बनेगा। योग, आयुर्वेद, गणित, खगोल और दर्शन जैसे विषय केवल इतिहास की थाती नहीं, बल्कि आधुनिक जीवन की आवश्यकता हैं। इसी तरह पाठ्यपुस्तकों का पुनर्लेखन और शिक्षक प्रशिक्षण जैसे कदमों से शिक्षा व्यवस्था और अधिक जीवंत, प्रासंगिक और राष्ट्रीय मूल्यों के अनुरूप बनेगी। यह स्पष्ट है कि शिक्षा पर यह फोकस केवल आज की नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों की तैयारी है।
यहां समाज की चुनौतियों पर भी गंभीर विमर्श हुआ है। पंजाब में बढ़ते मतांतरण और युवाओं में नशाखोरी पर चिंता जताई गई। यह समस्या केवल धार्मिक या सामाजिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और भविष्य की स्थिरता से जुड़ी हुई है। सेवा भारती और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे संगठनों द्वारा चलाए जा रहे नशामुक्ति अभियानों का उल्लेख इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। पश्चिम बंगाल में बांग्लादेशी, रोहिंग्या घुसपैठ के कारण उत्पन्न सुरक्षा संकट और सामाजिक असंतुलन पर भी विचार हुआ। यह मुद्दा केवल सीमावर्ती इलाकों तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे देश की शांति और स्थिरता से जुड़ा है। वहीं, पूर्वोत्तर राज्यों में घटती हिंसा और बढ़ते विकास को सकारात्मक संकेत माना गया। मणिपुर में संवाद-आधारित शांति प्रयासों की सराहना की गई। इससे स्पष्ट है कि रास्वसंघ समस्याओं के समाधान में संवाद और जनसहयोग को सबसे महत्वपूर्ण मानता है।
जनजातीय समाज और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों पर भी विस्तृत चर्चा यहां हुई है। जिसमें यही तथ्य प्रमुखता से उभरे कि भारत की शक्ति तभी पूर्ण मानी जाएगी जब सबसे वंचित और दूरस्थ समाज भी राष्ट्रीय धारा से जुड़ा हो। नक्सली हिंसा में कमी आई है, किंतु गुमराह करने की कोशिशें अभी भी जारी हैं। संघ का मानना है कि शिक्षा, सेवा और संस्कार ही इस समस्या का स्थायी समाधान हैं। वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा छात्रावासों और शैक्षिक गतिविधियों के माध्यम से जनजातीय समाज तक राष्ट्रीय विचार और शिक्षा पहुँचाने की आवश्यकता पर बल दिया गया। यह केवल हिंसा को रोकने की दिशा नहीं, बल्कि आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता से भरे समाज के निर्माण का मार्ग पशस्त करना है।
इस बैठक में संघ के शताब्दी वर्ष की योजनाओं का भी उल्लेख हुआ। यह वर्ष 2025 संघ का शताब्दी वर्ष है, जिसकी औपचारिक शुरुआत नागपुर में 2 अक्टूबर 2025 को विजयादशमी उत्सव के साथ होगी। यह अवसर केवल स्मरण का नहीं, बल्कि नवसंकल्प का होगा। संघ ने तीन प्रमुख विषयों; पर्यावरण संरक्षण, कुटुंब प्रबोधन और नागरिक कर्तव्यों के प्रति जागरूकता को अपनी योजनाओं का केंद्र बनाया है। जल, जंगल और जमीन की रक्षा किए बिना विकास अधूरा है, इसलिए पर्यावरण संरक्षण एक महत्वपूर्ण लक्ष्य लिया गया है। कुटुंब प्रबोधन पर बल देना इसलिए आवश्यक है कि परिवार भारतीय समाज की आत्मा है। यदि परिवार संस्था टूटेगी तो समाज और राष्ट्र दोनों कमजोर होंगे। इसी प्रकार नागरिक कर्तव्यों के प्रति जागरूकता बढ़ाना समय की आवश्यकता है। अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों का पालन ही भारतीय लोकतंत्र को सशक्त बना सकता है।
यहां ध्यान में आया कि संघ विचार से प्रेरित कार्यों में महिला सहभागिता भी लगातार बढ़ रही है। महिला कार्यकर्ताओं की भूमिका अब और प्रभावशाली होती जा रही है। क्रीड़ा भारती द्वारा महिला खिलाड़ियों में योग और अध्ययन को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के अंतर्गत 887 कार्यक्रम आयोजित किए गए, जिनके माध्यम से समाज में सकारात्मक मूल्य और संस्कारों का प्रसार किया गया। यह दर्शाता है कि महिला शक्ति अब केवल सहभागी नहीं, बल्कि नेतृत्वकारी भूमिका में भी सामने आ रही है।विद्या भारती में तो सतत ज्ञान के क्षेत्र में मातृशक्ति का योगदान देखने को मिलता ही है। इसी प्रकार एकल विद्यालय के माध्यम से देश के सुदूर कोने में भी महिलाएं ज्ञान का दीप जला रही हैं।
संघ की इस बैठक में काशी-मथुरा, मतांतरण, घुसपैठ अन्य संवेदनशील मुद्दों पर भी गहन मंथन हुआ और संयुक्त रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि समस्याओं समाधान संघर्ष नहीं, बल्कि कानूनी प्रक्रिया और आपसी संवाद से निकाला जाना चाहिए। वस्तुत: यह दृष्टिकोण संघ के लोकतांत्रिक और समरसता-आधारित विचार दृष्टि को दर्शाता है। भाषा के प्रश्न पर भी संघ ने व्यावहारिक नजरिया रखा है, प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए और सभी भारतीय भाषाओं का सम्मान होना चाहिए। अंग्रेज़ी का विरोध नहीं है, लेकिन भारतीय भाषाओं को शिक्षा और प्रशासन में प्राथमिकता मिलनी चाहिए। देखा जाए तो यह सोच न केवल सांस्कृतिक आत्मविश्वास को दर्शाती है, बल्कि व्यवहारिक संतुलन का भी उदाहरण है।
बैठक का सांस्कृतिक आयाम भी उल्लेखनीय रहा। 6 सितंबर की रात आयोजित कार्यक्रम में प्रसिद्ध लोकगायक अनवर खान ने अपनी प्रस्तुति दी और सरसंघचालक ने उन्हें सम्मानित किया। यह घटना इस तथ्य को रेखांकित करती है कि संघ भारतीय संस्कृति को किसी जाति या धर्म की सीमाओं में नहीं बाँधता। उसके लिए संगीत, कला और संस्कृति पूरे राष्ट्र की साझा धरोहर हैं।
अत: समग्र रूप से देखा जाए तो लालसागर की यह बैठक केवल संघ का आंतरिक आयोजन नहीं थी, बल्कि यह भविष्य का भारत गढ़ने का खाका भी रही। इसमें शिक्षा से लेकर समाज, संस्कृति से लेकर परिवार, महिला शक्ति से लेकर पर्यावरण और संवेदनशील मुद्दों से लेकर राष्ट्रीय एकता तक हर पहलू पर विचार हुआ। कुल मिलाकर संघ का लक्ष्य केवल संगठन को मजबूत करना नहीं, बल्कि भारत को शक्तिसंपन्न, आत्मनिर्भर और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध राष्ट्र बनाना है। उसका दृष्टिकोण संपूर्ण है।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी