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राजेंद्र बहादुर सिंह
भारत की सांस्कृतिक धारा इतनी विशाल और गहन है कि इसमें जीवन और मृत्यु दोनों के रहस्यों की गहन व्याख्या मिलती है। यहाँ केवल वर्तमान या भविष्य ही नहीं, बल्कि अतीत और स्मृति भी उतनी ही पवित्र स्थान रखती है। इन्हीं परंपराओं में से एक है पितृपक्ष, जिसे श्राद्ध पक्ष भी कहा जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन अमावस्या तक चलने वाला यह कालखंड भारतीय समाज में विशेष महत्व रखता है। यह सिर्फ धार्मिक अनुष्ठानों का समय नहीं, बल्कि अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने, अपनी जड़ों को याद करने और पारिवारिक-सांस्कृतिक मूल्यों को संजोने का अवसर है।
'पितृपक्ष' अर्थात् पितरों को समर्पित पक्ष। हिंदू परंपरा में यह विश्वास है कि इस पखवाड़े में हमारे पूर्वज धरती पर अपने वंशजों से मिलने और आशीर्वाद देने आते हैं। यह कालमान केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यंत संवेदनशील है। जिस तरह एक वृक्ष अपनी जड़ों से रस पाकर हरा-भरा रहता है, उसी प्रकार मनुष्य भी अपने पितरों की स्मृति और आशीष से शक्ति पाता है। इस दृष्टि से पितृपक्ष को भूतकाल और वर्तमान का सेतु कहा जा सकता है।
पितृपक्ष में श्राद्ध करना अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। 'श्राद्ध' का शाब्दिक अर्थ है—श्रद्धा से किया गया कार्य। इसका उद्देश्य है—पूर्वजों को जल, अन्न और तिल अर्पित कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना। गरुड़ पुराण और महाभारत जैसे ग्रंथों में श्राद्ध और तर्पण का विस्तृत विवरण मिलता है। लोकविश्वास है कि इस दौरान किए गए तर्पण और दान से पितरों की आत्मा तृप्त होती है और वे वंशजों को सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं।
हिंदू दर्शन में जीवन और मृत्यु को एक निरंतर चक्र के रूप में देखा गया है। शरीर नश्वर है किंतु आत्मा अमर। पितृपक्ष इस सत्य की गहरी याद दिलाता है। जिस प्रकार देवताओं को यज्ञ में आह्वान किया जाता है, उसी प्रकार पितरों के लिए भी विशेष अनुष्ठान किए जाते हैं। गीता में भी कहा गया है कि “पितृ यज्ञ” मनुष्य के पाँच महायज्ञों में से एक है। अर्थात् पूर्वजों का संमार्ग स्मरण, केवल व्यक्तिगत आस्था का विषय नहीं बल्कि सामाजिक कर्तव्य भी है।
यदि केवल धार्मिक रीति-रिवाज के परे देखा जाए, तो पितृपक्ष एक सांस्कृतिक अनुशासन है। यह वह काल है जब परिवार के सभी लोग एकत्र होकर अपने पूर्वजों की स्मृति में अनुष्ठान करते हैं। यह सामूहिकता, पारिवारिक एकता और पीढ़ियों के बीच जुड़े रहने की भावना को मजबूत करती है।
आज के समय में जब परिवार बिखरते जा रहे हैं, बुज़ुर्गों के अनुभव को पर्याप्त महत्त्व नहीं मिल रहा और नई पीढ़ी तेजी से वैश्वीकरण की चकाचौंध में अपनी जड़ों से दूर हो रही है, तब पितृपक्ष हमें यह स्मरण कराता है कि हम केवल वर्तमान नहीं हैं, बल्कि पीढ़ियों की वह कड़ी हैं जिन्हें मिलाकर हमारी अस्मिता बनती है।
भारत की परंपराएं कभी भी केवल आध्यात्मिकता तक सीमित नहीं रही हैं। इन अनुष्ठानों के माध्यम से पर्यावरणीय संतुलन और सामूहिक कल्याण का संदेश भी मिलता है। श्राद्ध के समय ब्राह्मण, गौ, कुत्ते, कौवे और अन्य प्राणियों को अन्न अर्पित करने की प्रथा है। यह केवल धार्मिक विधान नहीं, बल्कि प्रकृति और समाज के विभिन्न घटकों को 'परिवार' मानने की भावना है। कौए को पितरों का प्रतीक मानकर अन्न डालना दरअसल जैव विविधता और साझा जीवन के प्रति सम्मान का द्योतक है।
आज का समाज तेजी से आधुनिकता और उपभोक्तावादी दृष्टिकोण की ओर अग्रसर है। परिणामस्वरूप परंपराओं को अंधविश्वास समझकर उपेक्षित किया जाने लगा है। लेकिन यह समझना आवश्यक है कि पितृपक्ष अंधविश्वास नहीं है, बल्कि आत्म-जागरूकता और स्मृति की परंपरा है। इसके माध्यम से हम अपने पूर्वजों से प्रेरणा लेने के साथ-साथ यह सीखते हैं कि परंपरा केवल अतीत की धरोहर नहीं बल्कि भविष्य का मार्गदर्शन भी है।
वर्तमान समय में जब सामाजिक जीवन में तेजी से बदलाव हो रहा है। लोगों का अपने बुजुर्गों से संवाद घट रहा है और अकेलेपन की समस्या गहराती जा रही है। तब पितृपक्ष हमें सामूहिकता, पारिवारिकता और सांस्कृतिक आत्मीयता का महत्व याद दिलाता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश