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मनोज कुमार मिश्र
राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की तरफ से मुख्यमंत्री पद के दावेदार तेजस्वी यादव के साथ पूरे बिहार का दौरा करने के बाद कांग्रेस के सबसे बड़े नेता माने जाने वाले राहुल गांधी अपने लोगों में यह जताने का प्रयास कर रहे हैं कि उन्होंने बिहार जीत लिया। बिहार विधानसभा का चुनाव आने वाले दिनों में होने वाला है। जिसमें इस बार भी मुख्य रूप से राजद-कांग्रेस की अगुवाई वाले महागठबंधन बनाम भाजपा-जनता दल (एकी) की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के बीच चुनावी मुकाबला होना लगभग तय है। जिस कांग्रेस ने आजादी के बाद से बिहार में करीब चालीस साल शासन किया है, उसके नेता बड़े गर्व के साथ एक तरह से राजद का पिछलग्गू बनना स्वीकार लिया।
देश में राजग, भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पराजित करने का सपना देखने वाले कांग्रेस नेता राहुल गांधी दिल्ली समेत उन राज्यों में भी पार्टी को नहीं खड़ी कर पा रहे, जहां अतीत में कांग्रेस सालों तक शासन में रही है। वास्तविकता तो यह है कि कुछ अपवादों को छोड़कर जिन-जिन राज्यों में कांग्रेस एकबार पराजित हुई, वहां उसकी वापसी ही नहीं हो पाई। साल 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की अगुवाई में विपक्ष ने भाजपा पर संविधान बदलने के बेबुनियाद आरोप लगा कर मुद्दा बनाने की कोशिश की। उससे कुछ भ्रम की स्थिति बनी लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में लगातार तीसरी बार राजग केन्द्र में सरकार बनाने में कामयाब हुआ और राजग का दायरा बढ़ता गया।
लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सात सीटों की स्थिति देखें तो आम आदमी पार्टी (आआपा) के साथ सीटों के तालमेल के साथ यहां उतरी कांग्रेस ने 3 और आआपा ने 4 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे। चुनाव में सभी 7 सीटें भाजपा लगातार तीसरी बार जीती। कांग्रेस को 18.50 फीसद वोट मिले। आआपा को लगा कि उसके साथ तालमेल से कांग्रेस मजबूत हो जाएगी और देर-सबेरे आआपा को ही नुकसान पहुंचाएगी। इसलिए उसने दिल्ली विधानसभा चुनाव अकेले लड़ना तय किया। नतीजा यह हुआ कि भाजपा को जीत मिली और 27 साल बाद दिल्ली की सत्ता में उसकी वापसी हुई। दस साल से दिल्ली में सरकार चला रही आआपा को उससे केवल दो फीसदी वोट कम मिले लेकिन सीटों का फासला काफी रहा। 70 सदस्यों वाली दिल्ली विधानसभा में भाजपा 45.86 वोट के साथ 48 और आआपा 43.57 फीसद वोट के साथ 22 सीटों पर जीत पाई। कांग्रेस को करीब 6 फीसदी वोट मिले।
खास बात यह है कि चुनाव नतीजों के बाद भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस के नेता भी प्रसन्न थे। उन्हें लगता था कि आआपा की पराजय के साथ कांग्रेस की वापसी होगी लेकिन अभी तक एक भी कार्यक्रम ऐसा न हुआ जिससे लगे कि कांग्रेस दिल्ली में वापसी के लिए कोई प्रयास कर रही है। न ही आआपा में कोई भगदड़ मची।
साल 2006 के परिसीमन में पूर्वी दिल्ली सीट दो हिस्सों में (पूर्वी दिल्ली और दिल्ली उत्तर पूर्व) बंटी। उससे पहले पूर्वी दिल्ली सीट से दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पुत्र संदीप दीक्षित सांसद थे जो परिसीमन के बाद 2009 में उसकी एक सीट से सांसद बने और साल 2014 में पराजित हुए। 2019 में पूर्वी दिल्ली की दूसरी सीट दिल्ली उत्तर पूर्व से उनकी मां और दिल्ली की 15 साल मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित चुनाव लड़ी और पराजित हुई। शीला दीक्षित साल 2019 में आआपा से समझौते का विरोध किया तो उन्हें पार्टी प्रदेश अध्यक्ष के साथ जबरन लोकसभा चुनाव लड़वाया गया। सत्ता सुख भोगने की आदत पड़ जाने के चलते एक ही चुनाव की हार ने कांग्रेस को संकट में ही ला दिया। अपनी चिंता में लगे नेताओं ने पार्टी को हाशिए पर ला दिया।
साल 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनाव की हार के बाद से पार्टी लगातार बिखरती ही गई। साल 2015 के चुनाव के समय पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे अरविंद सिंह लवली और मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बना दिया गया अजय माकन को। इससे नाराज लवली ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया। उसके बाद प्रदेश अध्यक्ष बने अजय माकन ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव में आआपा से तालमेल की मुहिम चलाई। बताया गया कि कांग्रेस का एक वर्ग सात में से दो सीटों पर भी समझौता करने को तैयार हो गया था। जिस पार्टी ने कांग्रेस को हाशिए पर पहुंचाया उससे समझौता करने का शीला दीक्षित ने कड़ा विरोध किया। समझौता न होने पर भारी मन से अजय माकन नई दिल्ली सीट से चुनाव लड़कर हारे। उन्होंने भी बिना प्रदेश अध्यक्ष तय हुए बीमारी के बहाने पार्टी प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी छोड़ दी।
त्रासदी यह है कि वही अजय माकन आज की तारीख में राहुल गांधी के बेहद करीबी हैं। उन्हें लोकसभा चुनाव हारने के बाद पहले हरियाणा से और वहां से पराजित होने के बाद कर्नाटक से राज्यसभा का सदस्य बनाया गया। वे पार्टी के कोषाध्यक्ष हैं और बिहार चुनाव के सुपर प्रभारी। साल 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनाव हारने के बाद से कांग्रेस का दिल्ली में प्रयोग ही चल रहा है। साल 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कोई सीट नहीं मिली और कांग्रेस का वोट औसत घटकर 4.26 हो गया। साल 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद जुलाई में शीला दीक्षित के निधन के बाद चौधरी अनिल कुमार प्रदेश अध्यक्ष बने। लवली थोड़े ही समय भाजपा में रहकर कांग्रेस में लौट आए और 2019 का लोकसभा चुनाव पूर्वी दिल्ली सीट से मजबूती से लड़े। उन्हें 2023 में अनिल कुमार के इस्तीफा देने पर दोबारा अध्यक्ष बनाया गया था लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में टिकटों के बंटवारे में अपनी भूमिका न होने से नाराज होकर उन्होंने फिर कांग्रेस छोड़ कर भाजपा का दामन पकड़ लिया। अब विधायक बनने के बाद भाजपा ने उन्हें यमुना पार विकास बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया है। उसी दौरान बड़ी तादाद में कांग्रेस के नेता भाजपा में शामिल हुए। अब आर्थिक रूप से संपन्न पूर्व विधायक देवेन्द्र यादव दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष हैं।
दिल्ली में कांग्रेस वहीं पहुंच गई जहां भाजपा और कांग्रेस के अलावा मजबूत तीसरे दल वाले राज्य में पहुंच गई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा ने गुजरात, मध्य प्रदेश में कांग्रेस को सालों से सत्ता से बेदखल कर दिया। तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, झारखंड उत्तराखंड, बिहार और पंजाब इत्यादि में तो उसकी सत्ता में वापसी संभव नहीं लग रही है। हर राज्य में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों की कृपा से कुछ सीटें पा जाती है। देश में भाजपा का विकल्प बनने का सपना देख रही कांग्रेस अपने शासित राज्यों कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के अलावा शायद ही किसी राज्य में अपने बूते सरकार बना पाएगी- इसकी भविष्यवाणी करना बहुत कठिन नहीं है। राजस्थान या छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के भी समीकरण बदल गए हैं। कांग्रेस के इस कदर बुरे दिन आ गए हैं कि वह उन दलों के साथ उनसे कम सीटों पर चुनाव लड़कर अपने को धन्य मान रही है, जिनके वजूद ने उसे हाशिए पर पहुंचा दिया है। सीधे शब्दों में कहें तो कांग्रेस इन्हीं क्षेत्रीय दलों के बूते भाजपा के मुकाबले बड़ी राष्ट्रीय पार्टी बनी हुई है और इसी के भरोसे देश पर राज करने का सपना देख रही है।
पहले ईवीएम (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) के खिलाफ कांग्रेस काफी समय से अभियान चला रही है। जबकि ईवीएम से चुनाव कांग्रेस राज में ही शुरू हुआ था। इतना ही नहीं जब कांग्रेस किसी राज्य में जीतती है तब ईवीएम पर कुछ नहीं बोलती। केवल हारने पर ईवीएम मुद्दा होता है। अब चुनाव आयोग पर भाजपा के इशारे पर वोट चोरी के मनगढ़ंत आरोप लगाकर केन्द्र सरकार को कटघरे में खड़ा करने का जबरन प्रयास कर रही है। यह उसी तरह से उठाया जा रहा है जैसे लोकसभा चुनाव के दौरान संविधान के खतरे में होने का झूठा प्रचार किया जा रहा था। बताया जा रहा था इसे ही मुद्दा बनाकर राहुल गांधी, तेजस्वी यादव और विपक्षी नेता बिहार चुनाव को प्रयोगशाला बनाने का प्रयास कर रहे हैं। अगर यह सफल हुआ तो बाकी राज्यों में भी इसे मुद्दा बनाएंगे।
इस दौरान अति उत्साह में विपक्ष की तरफ से गलती हो गई। बिहार के दरभंगा में विपक्षी मंच से प्रधानमंत्री की मां के लिए अपशब्द बोले गए। इसे प्रधानमंत्री और राजग नेताओं ने उसी तरह मुद्दा बनाया जिस तरह साल 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस नेता सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को नीच कहना बन गया था। प्रधानमंत्री ने जिस भावनात्मक शैली में इस मुद्दे को उठाया है, विपक्ष अभी से सफाई देने लगा है।
यह प्रमाणित हो चुका है कि देशभर में भाजपा के वोट बैंक में प्रधानमंत्री के प्रभाव से एक नया वोट बैंक जुड़ा है। इसी वोटबैंक ने 27 साल बाद दिल्ली में भाजपा की सत्ता में वापसी कराई है और अनेक राज्यों में भाजपा की लगातार सरकारें बनवाई हैं। इसने ऐसे हालात बना दिए हैं कि कांग्रेस के लिए सही मायने में सत्ता का मुकाम बहुत दूर और दूभर है।
(लेखक, जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश