शिक्षा का अधिकार, सुप्रीम कोर्ट और अल्‍पसंख्‍यक संस्‍थाएं
- डॉ. निवेदिता शर्मा भारत का लोकतांत्रिक संविधान नागरिकों को केवल राजनीतिक अधिकार ही नहीं देता, बल्कि उन्हें गरिमामय जीवन जीने की बुनियादी गारंटी भी प्रदान करता है। शिक्षा इस गारंटी की केंद्रीय धुरी है। अनुच्छेद 21ए के तहत छह से चौदह वर्ष तक के सभी
डॉ निवेदिता शर्मा


शिक्षा का अधिकार, सुप्रीम कोर्ट


- डॉ. निवेदिता शर्मा

भारत का लोकतांत्रिक संविधान नागरिकों को केवल राजनीतिक अधिकार ही नहीं देता, बल्कि उन्हें गरिमामय जीवन जीने की बुनियादी गारंटी भी प्रदान करता है। शिक्षा इस गारंटी की केंद्रीय धुरी है। अनुच्छेद 21ए के तहत छह से चौदह वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान इसीलिए किया गया था ताकि कोई भी बच्चा वर्ग, धर्म या आर्थिक स्थिति के कारण ज्ञान के अवसर से वंचित न रह जाए। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि शिक्षा के इस सार्वभौमिक अधिकार की सबसे मजबूत दीवार को ही वर्षों पहले एक न्यायिक निर्णय ने दरका दिया। 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रमति एजुकेशनल एंड कल्चरल ट्रस्ट बनाम भारत संघ प्रकरण में यह कह दिया गया कि अल्पसंख्यक संस्थान आरटीई अधिनियम से मुक्त रहेंगे। यानी निजी स्कूलों की तरह उन्हें 25 प्रतिशत सीटें वंचित बच्चों के लिए आरक्षित करने की बाध्यता नहीं होगी। देखा जाए तो यह फैसला अपने आप में शिक्षा के अधिकार की सार्वभौमिकता पर प्रश्नचिह्न था।

अब, ग्यारह वर्ष बाद, शीर्ष अदालत ने स्वयं यह महसूस किया है कि उस निर्णय से व्यापक अन्याय हुआ है। 1 सितंबर 2025 को न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति मनमोहन की पीठ ने बेहद गंभीर टिप्पणी करते हुए इस मुद्दे को संविधान पीठ के पास भेजने की सिफारिश की है। पीठ ने साफ कहा, “यह फैसला अनजाने में अनुच्छेद 21ए के मकसद को कमजोर करता है और समान स्कूल प्रणाली की अवधारणा को चोट पहुँचाता है।” आज न्यायालय ने यह भी इंगित किया कि आरटीई केवल सीट आरक्षण भर नहीं है, बल्कि इसके साथ कई आवश्यक प्रावधान जुड़े हैं; बच्चों को मुफ्त यूनिफॉर्म, किताबें, मिड-डे मील, प्रशिक्षित शिक्षक और बुनियादी ढाँचा उपलब्ध कराना। इन सबसे अल्पसंख्यक संस्थानों को छूट देकर अब तक न जानें कितने लाख बच्चों को इन बुनियादी सुविधाओं से वंचित किया गया है।

अभी 2025 तक का इस संबंध में कोई आंकड़ा उपलब्‍ध नहीं है, हालांकि सरकारी आँकड़ों (यूडीआईएसई+ 2021-22) के अनुसार, देश में 51,627 अल्पसंख्यक प्रबंधित स्कूल हैं। इनमें मुस्लिम संस्थान; 27,259, ईसाई संस्थान; 15,808, जैन संस्थान; 1,140, बौद्ध संस्थान; 720, पारसी संस्थान;126 और शेष में अन्‍य शामिल हैं। पिछले तीन साल में इस संख्‍या में और अधिक इजाफा हुआ है। अनुमान है कि उक्‍त संख्‍या 55 हजार तक पहुंच गई होगी। ऐसे में यह स्‍वभाविक है कि यह संख्या अपने आप में बहुत बड़ी है। जब इतने बड़े हिस्से को आरटीई की बाध्यता से छूट मिल जाए, तो स्पष्ट है कि लाखों वंचित बच्चों को समान शिक्षा का अवसर नहीं मिल पाया ।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने 23,487 अल्पसंख्यक स्कूलों का विश्लेषण किया था। यह रिपोर्ट बताती है कि इन विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्‍चों में केवल 38% विद्यार्थी संबंधित अल्पसंख्यक समुदाय से हैं, शेष 62% गैर-अल्पसंख्यक। महज 8.76% विद्यार्थी सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित पृष्ठभूमि से आते हैं। स्पष्ट है कि अधिकांश अल्पसंख्यक संस्थान अपने ही समुदाय के उत्थान के बजाय शिक्षा को व्यवसाय बना चुके हैं। यदि वे सचमुच अपने वर्ग के बच्चों को प्राथमिकता देते, तो न केवल अपने समुदाय का बड़ा भला करते, बल्कि संविधान की भावना के अनुरूप भी चलते।

यहां उदाहरण स्‍वरूप सबसे छोटा एक आंकड़ा मान लें कि एक औसत स्कूल में 200–300 विद्यार्थी पढ़ते हैं। यदि 25 प्रतिशत सीटें वंचित वर्ग के लिए आरक्षित होतीं, तो प्रति स्कूल लगभग 50 सीटें आरटीई के अंतर्गत आतीं। 51,627 स्कूल × 50 सीटें = लगभग 25.8 लाख सीटें प्रति वर्ष। 2010 से 2025 तक यानी 15 वर्षों में यह संख्या करीब 3.8 करोड़ अवसरों के बराबर है। इस मोटे अनुमान से ही स्पष्ट है कि कितने विशाल पैमाने पर वंचित बच्चों को शिक्षा से अब तक इन स्‍कूलों द्वारा अल्‍पसंख्‍यक के नाम पर वंचित रखा गया!

राजस्थान के जयपुर में ही इस साल 2025 में 30,000 बच्चों को आरटीई के तहत दाखिला नहीं मिला, जबकि 80,000 सीटों पर 3.8 लाख आवेदन आए। देश की राजधानी दिल्ली में 2023-24 में 2.09 लाख परिवारों ने 35,000 सीटों के लिए आवेदन किया, लेकिन 6,500 सीटें खाली रह गईं। अहमदाबाद में तीसरे राउंड में भी 6,946 सीटें खाली रहीं, खासकर अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में। दक्षिण कर्नाटक; 2025-26 में 326 सीटों में से केवल 31 भरी गईं। यानी अल्‍पसंख्‍यक स्‍कूलों को यदि ये छूट नहीं दी जाती तो जो बच्‍चे आरटीई के तहत प्रवेश लेने से वंचित रह गए, उनमें किसी एक को भी वंचित नहीं रहना पड़ता। वस्‍तुत: यह तो कुछ राज्‍यों की स्‍थ‍िति है, इस तरह से प्रत्‍येक राज्‍य के आंकड़े को जोड़ा जाएगा तो लाखों बच्‍चों की संख्‍या सामने आती है जो हर साल आरटीई के तहत स्‍कूल प्रवेश से वंचित रह जाते हैं। यह सब दिखाता है कि समस्या केवल नाम की नहीं, बल्कि व्यावहारिक है, बच्चे अवसर से वंचित हो रहे हैं।

यह दिलचस्प तथ्य यह है कि 2009 में आरटीई लागू होने के बाद अल्पसंख्यक संस्थानों की संख्या में अचानक उछाल आया। 2012 तक हर साल लगभग 2000 नए संस्थान अल्पसंख्यक दर्जा लेने लगे। यहाँ तक कि दिल्ली पब्लिक स्कूल, बेंगलुरु जैसी संस्थाओं ने भी इस दर्जे का लाभ उठाने की कोशिश की। यह प्रवृत्ति बताती है कि आरटीई से बचने के लिए अल्पसंख्यक टैग को एक ढाल की तरह इस्तेमाल किया गया। सवाल उठता है, आखिर ये आरटीई से बचने की होड़ क्‍यों मची है ?

मूल प्रश्न यह है कि क्या शिक्षा का उद्देश्य वंचित बच्चों को अवसर देना है या केवल मोटा पैसा कमाना? जब अल्पसंख्यक संस्थान आरटीई से मुक्त होकर भारी फीस लेते हैं, तो वे न तो अपने वर्ग का उत्थान कर रहे होते हैं और न ही समाज के वंचित वर्ग का। वे केवल शिक्षा को व्यापार बना रहे होते हैं। यदि ये संस्थान केवल अपने समुदाय के गरीब बच्चों को प्रवेश देते, तो लाखों अल्पसंख्यक बच्चे पढ़-लिखकर आगे बढ़ सकते थे। लेकिन जब ऐसा नहीं किया गया, तो साफ है कि मकसद शिक्षा नहीं, बल्कि आर्थिक लाभ है।

जब वंचित वर्ग के लाखों बच्चे आरटीई सीटों से वंचित रहते हैं, तो इसका असर केवल शिक्षा तक सीमित नहीं रहता। इसका असर उनके भविष्य, रोजगार, सामाजिक गतिशीलता और लोकतांत्रिक भागीदारी पर पड़ता है। एक ओर समृद्ध वर्ग के बच्चे महंगे निजी या अल्पसंख्यक स्कूलों में पढ़ते हैं, दूसरी ओर गरीब बच्चे सरकारी स्कूलों की कमजोर व्यवस्था में सिमट जाते हैं। यह विभाजन समाज में असमानता की खाई को और चौड़ा करता है।

संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 30 के जरिए अल्पसंख्यकों को संस्थान चलाने की स्वतंत्रता दी थी ताकि वे अपनी संस्कृति और पहचान बचा सकें। लेकिन क्या इस स्वतंत्रता का मतलब यह है कि वे बच्चों के बुनियादी अधिकारों से मुकर जाएँ? वास्‍तव में अनुच्छेद 21ए की आत्मा सार्वभौमिकता है। यानी हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार देना है। स्‍वभाविक है ऐसी स्‍थ‍िति में हमें अनुच्छेद 30 स्‍थान पर अनुच्छेद 21ए को ही अधिक महत्‍व देना होगा। क्‍योंकि यहां प्रश्‍न एवं जवाबदेही अपनी पीढ़‍ियों के निर्माण की है।

भारत ने यूनेस्को एजुकेशन फॉर ऑल और सतत विकास लक्ष्य 4 (एसडीजी-4) जैसे वैश्विक समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं। इनका लक्ष्य है, 2030 तक हर बच्चे को समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्‍ध करा देना है। ऐसे में फिर स्‍वभाविक तौर पर अल्पसंख्यक संस्थानों को आरटीई से छूट देना इन अंतरराष्ट्रीय वचनों के भी विपरीत है। अब जबकि सुप्रीम कोर्ट स्वयं इस निर्णय पर पुनर्विचार के लिए तैयार है, तो समय आ गया है कि शिक्षा को फिर से अधिकार की तरह देखा जाए, न कि व्यवसाय की तरह।

कुछ ठोस कदम आवश्यक हैं। यहां हम सभी समझें, यदि शिक्षा अधिकार है, तो कोई भी संस्था, चाहे वह अल्पसंख्यक क्यों न हो, वह बच्‍चे से उसका ये मौलिक अधिकार नहीं छीन सकती है, क्‍योंकि वह इस अधिकार से कभी ऊपर नहीं हो सकती।

(लेखिका मप्र बाल अधिकार संरक्षण आयोग की सदस्‍य हैं)

---------------

हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी