Enter your Email Address to subscribe to our newsletters
डॉ. मयंक चतुर्वेदी
जब एक राष्ट्र की सीमाएं उसके पड़ोसी मुल्क की कल्पना में मिटाई जाने लगें और यह कल्पना सिर्फ नक्शों तक सीमित न रहकर उसे व्यवहारिक धरातल पर उतारने के लिए जब शैक्षणिक परिसरों, राजनीतिक मंचों और धार्मिक संस्थानों का उपयोग किया जाने लगे, तब यह केवल एक कल्पना तक सीमित रहनेवाला विषय नहीं रहता, बल्कि एक देश की अपनी पड़ोसी देश के प्रति वैचारिक युद्ध की शुरुआत होती है। इस संदर्भ में वर्तमान भारत अनेक मोर्चों पर वैचारिक और आर्थिक युद्ध का सामना करता हुआ दिखता है, जिसमें से एक उभरता हुआ वैचारिक मोर्चा जो सामने आया है, वह है– “सल्तनत-ए-बांग्ला”। यह कोई साधारण संगठन नहीं, बल्कि एक ऐसी बहुआयामी परियोजना है जो “ग्रेटर बांग्लादेश” की परिकल्पना को आगे बढ़ा रही है और सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि इसके पीछे तुर्किये, कतर और मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे वैश्विक इस्लामी नेटवर्क की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका सामने आई है।
अभी इस घटना को बहुत दिन नहीं बीते हैं, वह तारीख 14 अप्रैल 2025 की है, जब ढाका विश्वविद्यालय में एक पोस्टर प्रदर्शित किया गया। इस पोस्टर में एक काल्पनिक ग्रेटर बांग्लादेश का नक्शा दर्शाया गया था, जिसमें कि भारत के असम, त्रिपुरा, बंगाल, झारखंड, ओडिशा और बिहार के कुछ हिस्सों के अलावा म्यांमार का अराकान क्षेत्र इसमें शामिल किया गया था। वस्तुत: यह केवल एक पोस्टर नहीं था, यह एक ऐसा वैचारिक घोषणापत्र था जो दक्षिण एशिया में इस्लामी राष्ट्रवाद के पुनरुत्थान की कल्पना को जमीनी आधार देने की कोशिश कर रहा है।
इस संबंध में विस्तार से जानकारी अब ओर गहराई से सामने आ सकी है। दरअसल, भारतीय संसद में विदेशमंत्री एस. जयशंकर ने विस्तार से बताया है कि कैसे यह ‘ग्रेटर बांग्लादेश’ का विचार एक सोची-समझी ‘आइडियोलॉजिकल इनसर्जेंसी’ का हिस्सा है। सल्तनत-ए-बांग्ला को तुर्की के गैर-सरकारी संगठन टर्की यूथ फेडरेशन (टीवायएफ) से मिलने वाले सहयोग से आगे बढ़ाया जा रहा है। जिसमें कि ये संगठन ग्रामीण विकास और युवाओं के सशक्तिकरण जैसे उदार कार्यों में लगा दिखाई देता है, लेकिन इसके कामकाज का वास्तविक उद्देश्य ‘इस्लामी जिहाद’ के एजेंडे को विस्तार देना है। यह टीवायएफ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ से वैचारिक रूप से जुड़ा है और इसकी गतिविधियों में शिक्षा के नाम पर धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा देना प्रमुख रणनीति है।
अब आप मुस्लिम ब्रदरहुड के बारे में भी समझ लीजिए; 1928 में मिस्र से इसकी शुरूआत है। संगठन केवल धार्मिक आंदोलन नहीं है, यह राजनीतिक इस्लाम की एक वैश्विक विचारधारा है जो किसी भी लोकतांत्रिक देश में जब पहुंचती है तो वहां के लोकतंत्र के ढांचे में रहकर इस्लामी सोच का पोषण करती है। एक ऐसी स्थिति पैदा करने का प्रयास करती है कि लोकतांत्रिक देश एक समय के बाद पूरी तरह से इस्लाम की सोच में बदल जाए और वहां शरीया कानून लागू हो जाए। वस्तुत: इसी सोच को ये ‘टर्की यूथ फेडरेशन’ के साथ मिलकर भारत और बांग्लादेश में इस्लामिक साम्राज्यवाद के नाम पर आज विस्तारित करता हुआ दिखता है।
बांग्लादेश में 'सल्तनत-ए-बांग्ला' को ‘टर्की यूथ फेडरेशन’ से विचारधारात्मक मार्गदर्शन और वित्तीय सहायता दोनों मिल रही है। बांग्लादेश के मदरसे और विश्वविद्यालय इसके प्रभाव में हैं। टर्की यूथ फेडरेशन ने बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी और हिज्ब-उत-तहरीर जैसे संगठनों को सशक्त किया है, जो भारत-विरोधी और इस्लामिक स्टेट की अवधारणा के हामी हैं। मार्च 2025 में हिज्ब-उत-तहरीर ने बांग्लादेश में एक ‘खिलाफत मार्च’ निकाला था, जिसमें खुलेआम कहा गया था कि दुनिया में मुस्लिमों की राजनीतिक सीमाएं नहीं होनी चाहिए। सल्तनत-ए-बांग्ला इसी ‘सीमाहीन इस्लामी राष्ट्र’ की अवधारणा को बंगाल की जमीन पर उतारने की कोशिश है। जिसमें कि ‘टीवायएफ’ समन्वय की अहम भूमिका निभाता दिखता है।
ये संगठन ‘ग्रेटर बांग्लादेश’ को केवल एक भौगोलिक विस्तार के रूप में नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक-धार्मिक राज्य के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। इसके एजेंडे में केवल क्षेत्रीय विस्तार नहीं, बल्कि भारत के अंदर धार्मिक ध्रुवीकरण और सामाजिक विखंडन पैदा करना भी शामिल है। इससे अधिक गंभीर बात यह है कि आज यह ‘टीवाईएफ’ भारत के भी कुछ कट्टरपंथी समूहों से संवाद करता हुआ नजर आता है। युरोपीय संसद के दस्तावेज़ों में यह उल्लेख है कि टर्की यूथ फेडरेशन (टीवायएफ) सहित कई टर्की के एनजीओस जकात (दान) और छात्रवृत्ति की आड़ में भारतीय मुसलमानों को कट्टरपंथी विचारों की ओर प्रेरित करते हैं। छात्रों को पाकिस्तान या अन्य नेटवर्क से जोड़ा जाता है, जहां उन्हें कट्टरतर विचारधारा से प्रभावित किया जाता है।
तुर्किये भारत में आईएसआईएस सदस्यों की गतिविधियों में धन लगा रहा है, जो भारतीय मुसलमानों को कट्टरपंथी बनाने और 'तकनीकी जानकारी के हस्तांतरण' के माध्यम से बड़े पैमाने पर अस्थिरता पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। अब तक जिन संस्थाओं का प्रमुखता से नाम सामने आया है, उसमें तुर्की सहयोग और समन्वय एजेंसी (टीआईकेए), यूनुस एमरे संस्थान (यूईआई), अंतरराष्ट्रीय मानवीय राहत फाउंडेशन (आईएचएच), तुर्की-पाकिस्तान सांस्कृतिक संघ और तुर्की डायस्पोरा युवा अकादमी (वाईटीबी) के शासी बोर्ड जैसे शैक्षणिक संस्थान और गैर-सरकारी संगठन शामिल हैं। ये सभी भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप को सुगम बनाने के लिए भारत के युवाओं को ही अपना हथियार बना रहे है। तुर्की के गैर-सरकारी संगठन भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त संगठनों को जकात दान के रूप में धन मुहैया करा रहे हैं।
रिपोर्टों में यह भी उल्लेख किया गया है कि बिलाल एर्दोगन के स्वामित्व वाले तुर्की यूथ फ़ाउंडेशन (टीयूजीवीए) के पाकिस्तान स्थित जमात-ए-इस्लामी (जेआई) और उसकी युवा शाखा या स्टूडेंट्स इस्लामिक ऑर्गनाइज़ेशन (एसआईओ) जैसी पार्टियों और संस्थाओं से सीधे संबंध हैं। इसके अलावा, इस्लामी शैली की 'इरास्मस' योजना के तहत, भारतीय मुस्लिम छात्रों को तुर्किये लाया जा रहा है और पाकिस्तानी संगठनों से संपर्क कराया जा रहा है। ताकि वे ‘ग्रेटर बांग्लादेश’ और गजबा-ए-हिंद की सोच के लिए स्लीपर सेल बनकर भारत में रहते हुए काम करें। इन सभी संगठनों का उद्देश्य भारत के मुस्लिम समुदायों में यह भावना पैदा करना है कि उनकी पहचान भारतीय नहीं, इस्लामी है। यह देश की सामाजिक एकता के लिए दीर्घकालिक खतरा है। इस पूरे प्रकरण में सबसे नकारात्मक पक्ष यह है कि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री मोहम्मद यूनुस भी इनके साथ कहीं न कहीं मिले हुए दिखाई देते हैं, पिछले एक साल से यहां जो गैर मुसलमानों (हिंदू एवं अन्य) के विरोध में हिंसा हो रही है, उससे भी पता चल रहा है कि वे कट्टरपंथी तत्वों के इशारे पर काम कर रहे हैं। उनकी बेटी दीना अफरोज यूनुस का नाम ‘सल्तनत-ए-बांग्ला’ से आर्थिक संबंधों के सिलसिले में सामने आया है।
कहना होगा कि भारत के लिए यह एक ऐसे वैचारिक उभार का दौर है, जहां दुश्मन पारंपरिक हथियार नहीं, सोशल मीडिया, शिक्षा, संस्कृति और इतिहास को हथियार बना रहा है। यदि भारत इस चुनौती का सामना केवल आंतरिक नीति से करने की कोशिश करता है और इसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नहीं उठाता, तो यह संदेश जाएगा कि भारत अपने ही पड़ोस से उठती विचारधारात्मक चुनौती से अनभिज्ञ या असहाय है। इसलिए भारत को बांग्लादेश से इस मुद्दे पर स्पष्ट जवाब मांगना चाहिए। यदि जरूरत पड़े, तो इसे संयुक्त राष्ट्र, एसोसिएशन ऑफ साउथईस्ट एशियन नेशंस (आसियान) और इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) जैसे मंचों पर भी उठाना चाहिए।
इसके साथ ही आज यह भी जरूरी हो गया है कि सल्तनत-ए-बांग्ला और ग्रेटर बांग्लादेश जैसी अवधारणाएं भारत को उसकी सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक एकता पर पुनः विचार करने को विवश कर रही हैं। यह लड़ाई महज एक राष्ट्र के खिलाफ नहीं, एक लोकतांत्रिक भारतीय विचार दर्शन के विरोध में है । एक ऐसी इस्लामिक जिहादी लड़ाई जो विविधता को अस्वीकार करती है और धर्म (मजहब) के नाम पर एकरूपता थोपती है। इस समूह का एजेंडा न केवल भारत की भौगोलिक सीमाओं पर सवाल उठाना है, बल्कि उसकी सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक विविधता को चुनौती देना भी है। इसलिए भारत को चाहिए कि ग्रेटर बांग्लादेश की सोच का सफाया वह हर संभव प्रयास कर पूरी तरह से अतिशीघ्र करे, अन्यथा कल को यह सोच भारत के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती बन जाएगी ।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
---------------
हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी