अमेरिकी टैरिफ को निष्‍फल करने के दो ही उपाय, स्‍वदेशी और डॉलर पर निर्भरता को कम करना
- डॉ. मयंक चतुर्वेदी पहले राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के “पंच परिवर्तन” अभियान में “स्‍व” और “स्‍वदेशी” पर जोर, फिर एक बार देशभर में “स्‍वदेशी जागरण मंच” का पुन: तेज गति से सक्रिय होना, उसके बाद स्‍वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का “स्‍वदेशी” पर बोलना
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- डॉ. मयंक चतुर्वेदी

पहले राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के “पंच परिवर्तन” अभियान में “स्‍व” और “स्‍वदेशी” पर जोर, फिर एक बार देशभर में “स्‍वदेशी जागरण मंच” का पुन: तेज गति से सक्रिय होना, उसके बाद स्‍वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का “स्‍वदेशी” पर बोलना और देश की जनता से आह्वान करना कि भारत को सशक्‍त बनाने के लिए “स्‍वदेशी” को जीवन में अपनाएं, इसके बाद केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी का यह कहना कि सबसे बड़ी राष्ट्रभक्ति यह है कि हम “इम्पोर्ट” को कम करें और “एक्सपोर्ट” को बढ़ाएं। विश्वगुरु बनने के लिए यह जरूरी है। और इस सब के बीच वैश्‍विक आर्थ‍िक मोर्चे पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के भारत पर 50% टैरिफ लगाने का एलान करना, जिसके बाद से लगातार भारतीय शेयर मार्केट एवं “रुपए” के सामने चुनौतियों का अंबार लगा हुआ दिखाई देता है।

वस्‍तुत: इन सभी परिदृश्‍यों से यही समझ आता है कि आप कमजोर राष्‍ट्र के रूप में रहेंगे तब तक आपको कोई अंतरराष्‍ट्रीय चुनौती नहीं। आप दूसरों के लिए एक बाजार के रूप‍ में इस्‍तेमाल होते रहेंगे और आपके संसाधनों पर दूसरे देशों का प्रभुत्‍व एवं नीति निर्माण में दूसरे देशों का हस्‍तक्षेप रहेगा। खासकर उन देशों का जो दुनिया में अपना वर्चस्‍व चाहते हैं, किंतु जैसे ही आप मजबूत स्‍थ‍िति में आएंगे आपको चुनौती मिलना शुरू हो जाएंगी। तब क्‍या कमजोर बना रहना चाहिए? क्‍या दुनिया के ताकतवर देशों की दया पर निर्भर रहना चाहिए? निश्‍चित ही एक स्‍वाभिमानी 'मनुष्‍य' की तरह ही एक 'राष्‍ट्र' का भी उत्‍तर यही आएगा कि बिल्‍कुल नहीं। सशक्‍त और सामर्थ्‍यवान होना प्रत्‍येक मनुष्‍य और राष्‍ट्र की आवश्‍यकता है। जिसमें कि कोई भी राष्‍ट्र चरणबद्ध तरीके से सबलता की ओर आगे बढ़ता है, पहले व्‍यक्‍ति, फिर परिवार, समाज और उसके बाद किसी भी राष्‍ट्र का शक्‍ति सम्‍पन्‍न होने का समय आता है।

अब दुनिया के देशों के बीच भारत अपनी तुलना करें और देखे कि वह कहां हैं? स्‍वभाविक है कि विश्‍व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था बनते ही सबसे अधिक उसके सामने परेशानी खड़ी करने का प्रयास उस देश की तरफ से हो रहा है जोकि विश्‍व के आर्थ‍िक आंकड़ों में नंबर एक पर (अमेरिका) बैठा है। भारत दुनिया की तीसरी अर्थव्‍यवस्‍था जल्‍द बनने जा रहा है, यह भी आंकड़े आ रहे हैं और तभी य‍ह अमेरिका अचानक से 50 प्रतिशत का टैरिफ बम भारत पर छोड़ देता है और उसके बाद की सभी स्‍थ‍ितियां सामने हैं हीं। भारत का रुपया, शेयर मार्केट सभी पर इसका भयंकर नकारात्‍मक असर दिख रहा है।

विश्‍व की जितनी भी आर्थिक विश्‍लेषक एजेंसियां है, उनका कहना है कि अमेरिका के द्वारा भारत पर 50 प्रतिशत तक टैरिफ बढ़ाने का प्रभाव भारत के लिए एक बड़ा संकट लेकर आने जैसा है। क्‍योंकि भारत का निर्यात जोखिम $30–35 बिलियन का हो गया है। जीडीपी पर असर 0.2% से लेकर 0.8% (विभिन्न अनुमान) के अनुसार सामने दिखाई दे रहा है। निर्यात कटौती लगभग $8.1 बिलियन की अनुमानित है। ज्वेलरी और टेक्सटाइल्स व्यापार पर ₹6,000 करोड़ से भी ऊपर का जोखिम मंडरा रहा है और जीडीपी ग्रोथ में 25–80 बेसिस प्वाइंट तक गिर जाने का अनुमान है। क्‍योंकि अमेरिकी 50% टैरिफ की घोषणा के बाद, बीएसई सेंसेक्‍स लगभग 765 अंक (लगभग 0.95%) और निफ्टी 50 लगभग 233 अंक (लगभग 0.95%) टूटे। यह गिरावट सितम्बर-मई के बाद तीन महीने की सबसे बड़ी थी। विदेशी संस्थागत निवेशकों ने ₹4,997 करोड़ ($571 मिलियन) नगद निकाला। यह केवल एक दिन का आंकड़ा है, अगले दिनों बिक्री जारी रही।

आर्थिक रिपोर्ट के अनुसार, सिर्फ प्रमुख कॉर्पोरेट शेयरों के मूल्य में ₹24,000 करोड़ तक का मूल्य घटा। यदि हम सेंसेक्‍स की 765-इंर्नट अंक की गिरावट को बाजार पूंजीकरण के संदर्भ में देखें, तो यह गिरावट ट्रिलियन्स (लाखों करोड़ों रुपये) के स्तर पर हो सकती है। हालांकि, सटीक राशि का आकलन बीएसई और एनएसई और संबंधित कंपनियों की कुल बाजार पूंजीकरण से गणना करने पर निर्भर होगा। लेकिन निम्नलिखित दो प्रमुख निष्कर्ष सामने आते हैं, रीअल-टाइम नुकसान- ₹24,000 करोड़ (एक्‍सपोर्ट स्‍पेसिफिक सेक्‍टर्स) और निवेश बहिर्वाह- ₹4,997 करोड़ विदेशी संस्‍थागत निवेशक (एक दिन में एफआईआई निकासी)।

आज के संदर्भ में यह एक आंकड़ा है; अगस्त माह की शुरुआत से अब तक विदेशी निवेशकों ने भारतीय इक्विटीज़ से लगभग ₹18,000 करोड़ की निकासी की है। जुलाई में वैश्विक निवेशकों ने भारतीय शेयर बाजार से $2 बिलियन निकाले और अगस्त की शुरुआत में यह आंकड़ा $900 मिलियन तक पहुँच गया है। कुल तथ्‍य यह है कि टैरिफ की घोषणा के बाद भारत के शेयर बाजार ने केवल अंक-आधारित गिरावट नहीं देखी, बल्कि इस दौरान बहुत अधिक ही एफआईआई बहिर्वाह हुआ।

अब प्रश्‍न यह है कि अमेरिका इतना सब कुछ करने में सफल कैसे हो रहा है? डोनाल्‍ड ट्रंप ने बोला कि वह 50 प्रतिशत टैरिफ भारत पर लगा रहे हैं और उनके ये कहते ही भारत पर इसका असर होना शुरू हो गया। निवेशकों का भरोसा टूटने लगा तथा रुपया कमजोर होने लगा? देखा जाए तो इसका एक ही उत्‍तर है, डॉलर में वैश्‍विक व्‍यापार का होना। स्‍वभाविक है इतना भारी भरकम टैरिफ लगाने से भारतीय वस्‍तुएं महंगी हो जाएंगी, इसलिए जहां व्‍यापार डॉलर में करना है तो वहीं अपना धन लगाया जाए, यहां से इस डॉलर की शुरूआत है और अब दुनिया में जो भी भारत से निवेशक बाहर जा रहे हैं, उनमें ज्‍यादातर अमेरिका में निवेश कर रहे हैं। इसलिए आज की सबसे बड़ी आवश्‍यकता डॉलर को चुनौती देने की है।

वर्तमान में अमेरिका की अर्थव्यवस्था अब भी दुनिया की सबसे बड़ी और स्थिर अर्थव्यवस्था मानी जाती है, क्‍योंकि डॉलर का वैश्विक मुद्रा भंडार में हिस्सा करीब 58% है और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में इसका उपयोग 80% से ज्यादा लेनदेन में होता है, और यही डॉलर का प्रभुत्व अमेरिका को अपार भू-राजनीतिक और आर्थिक शक्ति देता है। अमेरिका आर्थिक प्रतिबंधों के जरिये अपने विरोधी देशों की अर्थव्यवस्था को समय-समय पर कमजोर करता रहा है रूस, ईरान, वेनेजुएला, क्यूबा जैसे देशों पर लगाए गए प्रतिबंध इसी का उदाहरण हैं। निश्‍चित ही यह शक्ति डॉलर आधारित वैश्विक वित्तीय व्यवस्था से आती है, जिसमें अमेरिका की मंजूरी के बिना बड़े लेनदेन कर पाना लगभग असंभव हो जाता है।

तब फिर भारत के सामने अमेरिका से अचानक आई इस विपदा का सामना करने के दो ही उपाय बचते हैं, पहला- स्‍वदेशी और दूसरा- अपने रुपए में अन्‍य देशों के साथ सीधे व्‍यापार करना। साथ ही ऐसा करने के लिए परस्‍पर अन्‍य देशों को भी तैयार करना। स्‍वभाविक है कि अमेरिकन डॉलर का वर्चस्‍व विश्‍व के आर्थिक जगत से कम होगा, तो जो उथल-पुथल मची है, जिसमें कि मुख्य गिरावट भारतीय मार्केट में देखने को मिली, वह इतने बड़े स्‍तर पर भविष्‍य में होने से रोकी जा सकती है। हालांकि हाल के वर्षों में ब्रिक्स देशों ने डॉलर के विकल्प तलाशने के लिए ठोस पहल की है। रूस और चीन अपने द्विपक्षीय व्यापार में स्थानीय मुद्राओं का इस्तेमाल बढ़ा रहे हैं। भारत ने भी रूस से कच्चा तेल खरीदने के लिए रुपये-रूबल लेनदेन की व्यवस्था अपनाई है। सऊदी अरब और चीन के बीच तेल व्यापार में युआन के इस्तेमाल की चर्चाएं तेज हैं। ईरान और रूस ने अपने बैंकिंग सिस्टम को अमेरिकी स्विफ्ट नेटवर्क से अलग कर वैकल्पिक पेमेंट सिस्टम शुरू किए हैं। इन कदमों का मकसद यही है कि व्यापारिक और वित्तीय लेनदेन के लिए डॉलर पर निर्भरता घटाई जाए।

यहां भारत को रूस की तरह अन्‍य देशों के साथ रुपए में व्‍यापार करने के लिए उस देश को मनाने की दिशा में अब तेज गति से आगे बढ़ने की जरूरत इसलिए भी है, क्‍योंकि इससे वह अपनी आर्थिक संप्रभुता को मजबूत करेगा, जोकि आज की आवश्‍यकता है। रुपये को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य बनाना, विदेशी व्यापार में इसका इस्तेमाल बढ़ाने से ही भारत की वैश्विक स्थिति मजबूत होगी। इसके साथ ही समझने वाली बात यह भी है कि डॉलर के प्रभुत्व को चुनौती देना केवल मुद्रा की लड़ाई नहीं है, यह आर्थिक स्वतंत्रता और राजनीतिक संप्रभुता की लड़ाई भी है। जिसके लिए अब भारत को अपने “स्‍व” और “स्‍वदेशी” के आधार पर मजबूती से खड़ा रहना आवश्‍यक है, ताकि वह अपनी आनेवाली पीढ़ि‍यों को भी बता सके कि “निर्भयता” उसके स्‍वभाव में है।

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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी