दंड आदेश में कारण बताओ नोटिस की सभी बातों का उल्लेख न करने से दंड आदेश अमान्य नहीं : उच्च न्यायालय
इलाहाबाद हाईकाेर्ट


--कोर्ट ने कहा, “न्याय प्रारूप का दास नहीं, बल्कि सत्य का सेवक है।“

प्रयागराज, 31 जुलाई (हि.स.)। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में कहा कि जब तक कोई स्पष्ट अवैधता न हो, दंड आदेश को केवल इसलिए अवैध नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि इसमें कारण बताओ नोटिस की सभी विशिष्ट बातें शामिल नहीं हैं।

न्यायमूर्ति मंजू रानी चौहान की पीठ ने कहा कि किसी दंड आदेश को केवल इस आधार पर अमान्य नहीं ठहराया जा सकता कि उसमें कारण बताओ नोटिस या याची द्वारा प्रस्तुत लिखित उत्तर का विवरण स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं है। बशर्ते आदेश में दोनों के सार पर विधिवत विचार और चर्चा की गई हो। न्यायालय ने कहा कि जब तक रिकॉर्ड में कोई स्पष्ट प्रक्रियात्मक अनियमितता या स्पष्ट अवैधता स्पष्ट न हो, ऐसी छोटी-मोटी चूक आदेश को कानून की नजर में अस्थिर नहीं बनाएगी।

याचिकाकर्ता धर्वेन्द्र पाल सिंह के वकील ने दलील दी कि 2007 में याची को सहायक अध्यापक के पद पर नियुक्त किया गया था। 2013 में उसको प्रधानाध्यापक, जूनियर प्राथमिक विद्यालय, ब्लॉक-जैथरा, जिला-एटा के पद से सहायक अध्यापक के पद पर उच्च प्राथमिक विद्यालय, खंगरपुर, ब्लॉक-मरहेड़ा, जिला-एटा में स्थानांतरित कर दिया गया था। 27 अगस्त 2024 को संस्थान का निरीक्षण किया गया, जहां वे अनुपस्थित पाए गए। इसके बाद, 30 अगस्त 2024 को जांच लम्बित रहने तक उन्हें निलम्बित कर दिया गया। निलम्बन आदेश के विरुद्ध याचिका दायर की गई। हालांकि, निलम्बन आदेश में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया, फिर भी न्यायालय ने निर्देश दिया कि जांच 3 महीने में पूरी की जाए।

इस बीच 04 नवम्बर 2024 का आरोप पत्र 25 नवम्बर को न्यायालय में तामील किया गया और उसका उत्तर 26 नवम्बर को जांच अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किया गया। 19 नवम्बर को जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी ने खंड शिक्षा अधिकारी-जांच अधिकारी को 15 दिनों के भीतर जांच पूरी करने का निर्देश दिया। जांच अधिकारी ने याची को एक पत्र जारी कर 2 दिनों के भीतर उत्तर प्रस्तुत करने को कहा। जब याची ने समय-सीमा बढ़ाने का अनुरोध किया, तो अनुरोध अस्वीकार कर दिया गया।

जांच अधिकारी द्वारा 28 दिसम्बर को एक पक्षीय जांच रिपोर्ट प्रस्तुत की गई, जो याची को उपलब्ध नहीं कराई गई। बुलाए जाने पर याची जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी के समक्ष व्यक्तिगत रूप से उपस्थित हुए और जांच रिपोर्ट की एक प्रति मांगी, जो उन्हें उपलब्ध नहीं कराई गई। जब जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी ने जांच अधिकारी से याचिकाकर्ता द्वारा उठाई गई आपत्ति पर जांच करने को कहा, तो उन्होंने कहा कि उस पर पहले ही विचार किया जा चुका है।

इसके बाद, एक आदेश पारित किया गया जिसके तहत याची की एक वेतन वृद्धि रोक दी गई और उसे उच्च प्राथमिक विद्यालय, कांगरपुर, एटा से संयुक्त संस्था, नावर, जिला एटा में स्थानांतरित कर दिया गया। इस आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों का हवाला दिया, जिनमें यह माना गया था कि अनुशासनात्मक कार्रवाई को केवल इसलिए अमान्य नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि मामले के तथ्यों पर विचार करते हुए दंड के क्रम में कारण बताओ नोटिस का पुनः उल्लेख नहीं किया गया है। न्यायालय ने इस स्थापित कानून का भी हवाला दिया कि मामूली प्रक्रियागत चूक के कारण अनुशासनात्मक कार्यवाही अमान्य नहीं मानी जा सकती।

उच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायिक प्रक्रिया न्याय के सार द्वारा निर्देशित होती है। आदेश में मूल कानूनी और तथ्यात्मक विवादों को सम्बोधित किया जाना चाहिए और न्यायसंगत समाधान प्रदान करने के लिए कानून का प्रयोग किया जाना चाहिए। चूंकि विवादित आदेश व्यापक था और सभी मुद्दों पर विचार किया गया था तथा कानून का उचित सावधानी और तत्परता से प्रयोग किया गया था, इसलिए न्यायालय ने इसे रद्द नहीं किया। न्यायालय ने माना कि याची ने यह नहीं कहा कि दण्ड आदेश में प्रतिवादी द्वारा की गई चूक के कारण न्याय में चूक हुई है।

न्यायालयों से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि वे न्याय को दरकिनार करते हुए प्रारूप में तकनीकी सटीकता प्रदर्शित करें। ऐसी परिस्थितियों में पर्याप्त अनुपालन का सिद्धांत पूरी शक्ति से लागू होता है। कोर्ट ने कहा कि “न्याय प्रारूप का दास नहीं, बल्कि सत्य का सेवक है।“ कोर्ट ने इसी के साथ याचिका खारिज कर दी।

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हिन्दुस्थान समाचार / रामानंद पांडे