इलाहाबाद हाईकोर्ट ने ‘लॉ पब्लिशर्स’ विवाद में राहत  देने से किया इनकार
इलाहाबाद हाईकाेर्ट


--कोर्ट ने कहा, जो 27 वर्षों तक चुप रहा, उसे अब न्याय की आकस्मिक मांग का अधिकार नहीं

प्रयागराज, 24 जुलाई (हि.स.)। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मेसर्स ला पब्लिशर्स नामक प्रतिष्ठित कानूनी प्रकाशन व्यवसाय को लेकर चल रहे पारिवारिक समझौता विवाद में दायर अपील खारिज कर दी है। अपील में अंतरिम आदेश जारी करने की मांग की गई थी, जिसे कोर्ट ने 27 वर्षों की अनुचित चुप्पी और देरी के आधार पर अस्वीकार कर दिया।

मुख्य न्यायाधीश अरुण भंसाली और न्यायमूर्ति क्षितिज शैलेन्द्र की खंडपीठ ने कहा कि अपीलकर्ता स्मृति ‘स्लीपिंग पार्टनर’ के रूप में स्वयं को दर्शाने में असफल रही, और उनकी याचिका में न तो प्रथमदृष्टया बल था, न ही संतुलन का आधार और न ही कोई अपूरणीय क्षति की सम्भावना थी।

मामला पारिवारिक व्यापार में हिस्सेदारी के दावे का है। तीन दशक की चुप्पी के बाद बिना ठोस कानूनी पक्ष के अदालत का दरवाजा खटखटाया है।

विभा सागर ने दावा किया था कि वह 1976 से मेसर्स ला पब्लिशर्स की साझेदार रही हैं। उन्होंने यह आरोप लगाया कि उनके पारिवारिक सहयोगी, जिनमें वीरेंद्र सागर और उनके परिवारजन शामिल हैं। वे इलाहाबाद की बहुमूल्य अचल संपत्तियों को उनकी अनुमति के बिना स्थानांतरित करने की योजना बना रहे हैं।

उन्होंने आर्बिट्रेशन एवं कंसिलिएशन एक्ट की धारा 9 के अंतर्गत अंतरिम राहत की मांग की थी जिसमें किराये की आय को कोर्ट में जमा कराने और सम्पत्ति के स्थानांतरण पर रोक की प्रार्थना की गई थी। जब निचली वाणिज्यिक अदालत ने इस याचिका को खारिज कर दिया, तब उन्होंने धारा 37 के तहत हाईकोर्ट में अपील की।

कोर्ट ने कहा कि अपीलकर्ता अपने अधिकारों को लेकर दशकों तक मौन रहीं और अब अचानक उत्पन्न हुई। उनकी मांग को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।“27 वर्षों की अनुचित और अकारण देरी यह सिद्ध करती है कि अपीलकर्ता के पक्ष में कोई प्रथमदृष्टया केस नहीं बनता।”

कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि अपीलकर्ता की भविष्य में किसी अन्य कार्यवाही में साझेदारी सिद्ध होती है, तो वे आर्थिक मुआवजा प्राप्त कर सकती हैं और इसलिए वर्तमान में किसी प्रकार की अपूरणीय क्षति का प्रश्न नहीं उठता।

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हिन्दुस्थान समाचार / रामानंद पांडे