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जयपुर, 24 जून (हि.स.)। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक और लोकतंत्र रक्षक सेनानी माणकचंद ने कहा कि 25 जून 1975 की रात देश के लोकतांत्रिक इतिहास में एक ऐसा अध्याय दर्ज हुआ, जिसे 'काले अध्याय' के रूप में याद किया जाता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल ने भारतीय लोकतंत्र, नागरिक स्वतंत्रताओं और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर गहरा आघात किया था। विरोध के स्वरों को कुचला गया, हजारों विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया। मीडिया पर सेंसरशिप थोप दी गई और सत्ता का केंद्रीकरण चरम पर पहुंच गया था।
इसी क्रम में हिन्दुस्थान समाचार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक और लोकतंत्र रक्षक सेनानी माणकचंद से बातचीत की। उन्होंने आपातकाल के दौर को याद करते हुए बताया कि उस समय वह तानाशाही के विरुद्ध सक्रिय भूमिका में रहे। उन्होंने कहा कि आज, जब आपातकाल को 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं, तब यह आवश्यक हो जाता है कि हम न केवल उस दौर की पुनर्समीक्षा करें, बल्कि यह भी जानें कि उस अनुभव ने देश, समाज और राजनीति को किस प्रकार प्रभावित किया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक और पाथेय कण के सरंक्षक 85 वर्षीय माणकचंद ने बताया कि आपातकाल में स्वयंसेवकों ने जेल रहकर भी कैदियों के हक लिए लड़ाई लड़ी। उन्होंने बताया कि जेल मैनुअल के अनुसार कैदियों को राशन नहीं दिया जाता था। यह बात जब हमें पता चली तो हमने जेल में ही हड़ताल शुरू कर दी। इसके बाद उन्हें पूरा राशन मिलने लगा।
उन्होंने बताया कि जब देश में आपातकाल लगा तब वह टोंक में जिला प्रचारक थे। वह जयपुर से निवाई जाने के लिए एक ट्रक में बैठकर चाकसू तक गए। जहांरात करीब दो ढ़ाई बजे पहुंचे। वहां पर एक मंदिर में सुंदरकांड का पाठ चल रहा था। वहां थोड़ी देर रूकने के बाद वह पैदल ही निवाई के लिए निकल गएऔर सुबह पहुंचे। दाढ़ी बढ़ी हुई थी। वह संघ कार्यकर्ता रतनलाल के घर रूके थे। उन्होंने दाढ़ी बनवाने के लिए नाई बुलाने की बात कही, इसलिए वह नाई का इंतजार कर रहे थे। कमरे में एक कोने में कांतिकारी चिंगारी बुलेटिन के बंडल रखे हुए थे, वह इनको देखने के लिए उठने ही वाले थे कि इतने में एक पुलिस वाला अंदर आ गया, वह समझे कि नाई आया होगा। लेकिन देखा तो बाहर और भी पुलिस वाले खड़े थे। उन्हें तत्काल गिरफ्तार कर लिया गया। वहां मकान मालिक रतनलाल भी पहुंच गए। पुलिस उन्हें भी गिरफ्तार करने लगी। इतने में हम जोर जोर से नारे लगाने लगे। यह सुनकर मोहल्ले के कई लोग एकत्रित हो गए, इसलिए पुलिस वाले उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सके।
इसके बाद उन्हें टोंक पुलिस लाइन ले जाया गया। वहां से उन्हें कोतवाली ले गए। उनके पास कपड़े भी नहीं थे। टोंक में कोतवाली के पास एक कार्यकर्ता महावीर जो तत्कालीन नगर पालिका उपाध्यक्ष भी थे। उन्होंने धोती और कुर्ता लाकर दिया। उन दिनों में उनको पेट की तकलीफ थी, मैंने जेल कर्मियों से कहा कि उन्हें हवालात के बाहर रखा जाए ताकि शौच वगैरह में परेशानी नहीं हो। लेकिन पुलिस वालों ने साफ इनकार कर दिया। इसके पीछे भी बड़ी दिलचस्प घटना है। वहां जो थानेदार आए थे, वे पहले अलवर में थे। उस दौरान ज्ञानदेव आहूजा पुलिस को चकमा देकर थाने से फरार हो गए थे। इसलिए थानेदार कहता था कि दूध का जला हुआ हूं, इसलिए छाछ को भी फूंक-फूंककर पीऊंगा।
उन्होंने बताया कि जेल में हमारे साथ मुस्लिम संगठनों के लोग भी थे, उनके रमजान का महीना चल रहा था। जेल में हमारे यहां से उनको जलेबियां और खाना बनाकर भिजवाया जाता था। उन्होंने बताया कि जब सब लोग जेल से रिहा हो गए तो उन्हें और भंवरलाल छीदड़ा को 20 जनवरी 1977 को जयपुर जेल में भेज दिया गया। यहां से वे 22 मार्च 1977 को बाहर निकले। उन्होंने बताया कि जेल में हमारी शाखा चलती थी। उस दौरान क्षेत्र संघचालक ओमप्रकाश आर्य हमें बौद्धिक देते थे और गंगानगर के रहने वाले किशनलाल वकील हमें पत्र और समाचार लेखन सिखाते थे।
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हिन्दुस्थान समाचार / ईश्वर