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-विद्यानिवास मिश्र के लेखन का केंद्र बिंदु भारतीयता : विश्वनाथ प्रसाद तिवारी-विद्यानिवास मिश्र के लेखों में लोकल से ग्लोबल तक का विवरण
नई दिल्ली, 18 जून (हि.स.)। पंडित विद्यानिवास मिश्र के जन्मशतवार्षिकी के अवसर पर दो दिवसीय संगोष्ठी का आज आयोजन किया गया। साहित्य अकादेमी ने इस दो दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन अपने सभाकक्ष रवींद्र भवन में किया।
संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए प्रख्यात आलोचक, साहित्य अकादेमी के महत्तर सदस्य एवं पूर्व अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि विद्यानिवास मिश्र ललित निबंधकार के रूप में विख्यात थे परंतु उनका कृतित्व व्यापक है। उनके लेखन के केंद्र में सदैव भारतीयता रही है। उन्होंने कहा कि बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पंडित जी का उदय हुआ और उनके लेखों और पत्रकारिता ने भारतीय साहित्य को एक नई दिशा दी।
संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष माधव कौशिक ने कहा कि जब पूरा भारत फ्रॉयड और माकर्स की आंधी में बह रहा था तो दो-चार लोग ही ऐसे थे जिन्होंने भारतीयता के परचम को बुलंद रखा उनमें पंडित विद्यानिवास मिश्र अग्रणी थे। उन्होंने कहा कि विद्यानिवास मिश्र के लेखों में लोकल से ग्लोबल तक का विवरण देखने को मिलता है। यदि भारत को समझना है तो विद्यानिवास मिश्र को समझना आवश्यक है। उन्होंने यह भी कहा कि विद्यानिवास मिश्र ने यह सिद्ध किया कि सरल होना कितना कठिन कार्य है। पंडित जी जैसे लोगों ने ही पत्रकारिता की साख को बचाए रखा।
कार्यक्रम के आरंभ में अकादेमी के सचिव के श्रीनिवासराव ने स्वागत वक्तव्य प्रस्तुत किया और विद्यानिवास मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला। आरंभिक वक्तव्य साहित्य अकादेमी हिंदी परामर्श मंडल के संयोजक गोविंद मिश्र ने दिया तथा पंडित विद्यानिवास मिश्र के सरल हृदय व्यक्तित्व पर अपने विचार प्रस्तुत किया।
संगोष्ठी में बीज-भाषण प्रतिष्ठित हिंदी विद्वान गिरीश्वर मिश्र ने प्रस्तुत किया। उन्होंने विस्तार से पंडित विद्यानिवास मिश्र के साहित्य में आत्मीयता से भरपूर लेखों पर अपने विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने बताया कि मिश्र जी को अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान था इसलिए उन्होंने हिंदी-अंग्रेजी के बीच सेतु का कार्य किया और कई महत्त्वपूर्ण कृतियों के अंग्रेजी अनुवाद भी किए। वे मूलरूप से संस्कृत के विद्वान थे परंतु उन्होंने जीवन भर हिंदी की सेवा की। साहित्य का आस्वादन उनका स्वभाव था। वह दूसरों को भी प्रेरित किया करते थे। उनका हमेशा यह प्रयास रहा कि साहित्य को जीवन से कैसे जोड़ा जाए। सत्र के अंत में अकादेमी की उपाध्यक्ष एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की कुलपति, कुमुद शर्मा ने समाहार वक्तव्य दिया और पंडित जी के साथ बिताए क्षणों को याद किया।
उन्होंने कहा कि मिश्र जी ने एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से जोड़ने वाली भावना को परखा और अपने लेखों में उसे प्रस्तुत किया। उनका जीवन खुला आकाश था। चाहे कोई किसी विचारधारा का हो, सबके लिए उनका दरवाजा हमेशा खुला रहता था। उन्होंने यह भी कहा कि पंडित जी जीवन एवं साहित्य सब में अमृत बांटते रहे। अपने गांव की संस्कृति से उनको बहुत लगाव था जिसकी धड़कन उनके निबंधों में महसूस होती है।
आज का प्रथम सत्र जो ललित निबंधकार एवं संपादक के रूप में विद्यानिवास मिश्र शीर्षक से था, कि अध्यक्षता श्याम सुंदर दुबे ने की एवं चंद्रकला त्रिपाठी और दयानिधि मिश्र ने अपने आलेख प्रस्तुत किए। चंद्रकला त्रिपाठी ने उनके निबंधों में लोकतत्व के बारे में बोलते हुए कहा कि उनका लोक भी जनतांत्रिक है। आगे उन्होंने उनके संपादन कला की चर्चा करते हुए कहा कि उन्होंने अपने श्रम से नए पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी तैयार की। वे भारतीय मेधा के एक गतिशील स्वरूप थे और उनकी विद्वता के अनेक पृष्ठ अभी भी अध खुले है। दयानिधि मिश्र ने विद्यानिवास मिश्र की 21 खंडों में रचनावली के संपादन के अनुभव सभी के साथ साझा करते हुए बताया कि इस दौरान उन्हें विद्यानिवास मिश्र जी के विस्तृत पाठक मंडल का ज्ञान हुआ जो पूरे देश और विदेश में फैला हुआ है। उनके निबंधों की चर्चा करते हुए कहा कि उनके निबंधों का धरातल बहुत व्यापक था और निबंध की कला को वह पश्चिम से जोड़ने के सख्त विरुद्ध थे।
अध्यक्षता कर रहे श्याम सुंदर दुबे ने कहा कि विद्यानिवास मिश्र शास्त्रपक्ष एवं लोकपक्ष को अपनी दायीं और बाईं आंख समझ कर ही दोनों के बीच में ऐसा संतुलन बनाते थे, जिससे उनका लेखन दोनों के महत्त्व को प्रतिपादित करता था। कार्यक्रम के अंत में साहित्य अकादेमी द्वारा विद्यानिवास मिश्र पर निर्मित वृत्तचित्र का प्रदर्शन भी किया गया। कल चार सत्रों में विद्यानिवास मिश्र के कला चिंतन, आलोचना साहित्य लोक संस्कृति पर बात होगी।
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हिन्दुस्थान समाचार / धीरेन्द्र यादव