गिरीश्वर मिश्र
समकालीन ज़िन्दगी में निरंतर बढ़ती वैयक्तिकता के दौर में अतिव्यस्त होता हुआ आज आदमी अपने ही अंदर सिकुड़ता चला जा रहा है। रिश्तों की उपेक्षा और उनका हाशियाकरण जिस तेजी से हो रहा है वह उस समाज के ताने-बाने को झटका देने वाला साबित हो रह
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