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छिन्दवाडा, 14 दिसंबर (हि.स.)। मप्र शासन संस्कृति विभाग द्वारा सुप्रतिष्ठित फिल्म विश्लेषकों श्रीराम ताम्रकर एवं सुनील मिश्र के अवदान पर केंद्रित दो दिवसीय स्मृति प्रसंग समारोह का रविवार को छिंदवाड़ा के शासकीय मेडिकल कॉलेज ऑडिटोरियम में समापन हुआ। समारोह के अंतिम दिन फिल्म प्रदर्शन, धर्मेन्द्र के जीवन अवदान पर केंद्रित व्याख्यान और नाटक “ऐसे रहो की धरती” का मंचन किया गया।
संस्कृति संचालक एन.पी. नामदेव ने बताया कि ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में 1969 में बनी फिल्म “सत्यकाम” में धर्मेन्द्र, संजीव कुमार, शर्मिला टैगोर एवं अशोक कुमार ने मुख्य भूमिका निभाई है। यह फिल्म एक बंगाली उपन्यास पर आधारित है। फिल्म में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने संगीत दिया है। फिल्म में अभिनेता धर्मेन्द्र के निभाए किरदार को भारतीय सिनेमा में सर्वेश्रेष्ठ किरदारों में से एक माना जाता है। इस फिल्म ने हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता था।
अगले सत्र में इंदौर के समय ताम्रकर ने “ए.आई. और सिनेमा का भविष्य- कला एवं तकनीक” विषय पर एवं इंदौर के अरुण ठाकरे “धर्मेन्द्र – संघर्षों से सुपरस्टार तक” विषय पर उद्बोधन दिया। ताम्रकर ने कहा कि एआई जितना बड़ी चुनौती के रूप में आज खड़ा है, उतना सिनेमा ने अपने 100 साल के इतिहास में पहले कभी नहीं देखा। यह दौर कला और तकनीक के बीच सिर्फ बहस का नहीं, टकराव का समय है। उन्होंने कहा कि एआई अब केवल उपकरण नहीं रहा, ये स्क्रिप्ट लिखता है, चेहरे बनाता है, आवाजें पैदा करता है, सेट रचता है और पूरा कैमरा शॉट जेनरेट कर देता है।
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि आज एआई से टीवी सीरियल और छोटी फिल्में बन रही हैं। आज वो प्रोजेक्ट्स हमें कमजोर लगते हैं, लेकिन दो साल बाद यही हमारी बराबरी करेंगे और चार साल बाद प्रतियोगी बन जाएंगे। इससे नौकरियों, पहचान और कॉपीराइट पर गहरा संकट होगा। खतरे की बात करते हुए उन्होंने एक दूसरी, उलटी सच्चाई भी सामने रखी कि पहली बार ऐसा हुआ है कि बिना पैसे वाला आदमी भी फिल्म बना सकता है। गाँव का बच्चा भी एआई से शॉर्ट फिल्म बना सकता है, लेखक अपनी कल्पना को पूरा विजुअल रूप दे सकता है। उन्होंने कहा कि एआई ने फिल्म निर्माण को लोकतांत्रिक बना दिया है जो संसाधन पहले सिर्फ बड़े प्रोड्यूसर्स के पास थे, अब हर क्रिएटर की जेब में हैं।
भारत में जेम्स बॉन्ड बनती तो धर्मेन्द्र ही सर्वश्रेष्ठ नाम होते, उनके अभिनय में स्वाभिकता थीः अरुण ठाकरेअगले सत्र में अरुण ठाकरे ने “धर्मेन्द्र – संघर्षों से सुपरस्टार तक” विषय पर कहा कि धर्मेन्द्र ने पहली फिल्म शहीद देखी तो वे विस्मय से भर उठे और कहा कि यही मेरी जिंदगी होनी चाहिए। अनेक सपने लेकर वे बंबई चले आए। धर्मेन्द्र जी बंबई आए तब भारतीय सिनेमा पर दिलीप कुमार, राजेन्द्र कुमार और मनोज कुमार जैसे महान अभिनेताओं का गहरा प्रभाव था, लेकिन उन्होंने किसी अभिनेता की नकल नहीं की। उन्होंने अपनी लकीर खींची और उसी पर आगे बढ़ते रहे। भारत में यदि जेम्स बॉन्ड फिल्म बनती तो धर्मेन्द्र ही सर्वश्रेष्ठ नाम होते। उनका मर्दाना सौंदर्य उनकी ही-मैन छवि इतनी बड़ी हो गई उनके अभिनय के अनंत विस्तार और स्वाभिकता पर उसकी छवि आ पड़ी जबकि जीवन के हर रंग को पर्दे पर बखूबी उतारा।
अंतिम प्रस्तुति नाटक “ऐसे रहो की धरती” का मंचन हुआ। नाटक एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो परिस्थितियो के कारण हिंसक बन जाता है और वह समाज को ही परेशान करने लग जाता है। जो उसे बचपन से जानते हैं वह भी दया करने के बजाय उसे घृणा की दृष्टि से देखते हैं। नाटक का आरंभ नानी के घर से होता है, जिनके पड़ोस में तिलकू नाम का बदमाश रहता है। रात को वह घर में आता है और अपने घर का दरवाजा बंद कर चुपचाप सो जाता है। जब सुबह उठता है तो उसके तीन-चार आदमी उसके पीछे-पीछे चलने लगते हैं। दिनभर बाजार में घूमते हैं और लोगों से लूट-खसोट करते हैं। डर के कारण किसी व्यक्ति की हिम्मत नहीं होती कि उनके खिलाफ बोल सकें। एक पुलिस ऑफिसर तिलकू के पीछे लग जाता है, लेकिन उसे रंगे हाथों पकड़ नहीं पाता। घर में नानी बताती है कि उसका बचपन बहुत मुश्किलों में बीता है, जिसके कारण वह ऐसा बन गया।
हिन्दुस्थान समाचार / मुकेश तोमर