कार्य स्थल पर तनाव का बढ़ता संकट
- डॉ प्रियंका सौरभ भारत जिस तेज़ी से डिजिटल कार्य-संस्कृति की ओर बढ़ा है, उतनी ही तेज़ी से कर्मचारियों पर कार्य-संबंधी तनाव का बोझ भी बढ़ा है। स्मार्टफोन, ईमेल, टीम कम्युनिकेशन ऐप्स और वर्क-फ्रॉम-होम मॉडल ने कार्य और निजी जीवन की रेखा लगभग मिटा दी
प्रियंका सौरव


- डॉ प्रियंका सौरभ

भारत जिस तेज़ी से डिजिटल कार्य-संस्कृति की ओर बढ़ा है, उतनी ही तेज़ी से कर्मचारियों पर कार्य-संबंधी तनाव का बोझ भी बढ़ा है। स्मार्टफोन, ईमेल, टीम कम्युनिकेशन ऐप्स और वर्क-फ्रॉम-होम मॉडल ने कार्य और निजी जीवन की रेखा लगभग मिटा दी है। इसी संदर्भ में प्रस्तावित ‘राइट टू डिसकनेक्ट बिल, 2025’ न केवल कानूनी प्रयास है, बल्कि आधुनिक कार्य-संस्कृति के लिए भावी नैतिक व्यवस्था भी। इस बिल का मूल उद्देश्य सरल है- कर्मचारी को उसके कार्य समय के बाद डिजिटल तरीकों से काम से जोड़ने की बाध्यता को सीमित करना। किन्तु भारत जैसा विशाल, विविध और प्रतिस्पर्धी श्रम-परिदृश्य इस अधिकार के वास्तविक क्रियान्वयन को जटिल बनाता है।

दरअसल, आज की कार्यशैली ‘ऑलवेज ऑन’ मानसिकता पर आधारित है, जहाँ यह मान लिया जाता है कि कर्मचारी हमेशा उपलब्ध रहेंगे। पहले काम कार्यालय के दरवाज़े पर रुक जाता था; अब काम जेब में रखा मोबाइल बन गया है- हर पल साथ, हर पल सक्रिय। इस मनोवैज्ञानिक दबाव ने कर्मचारियों के तनाव स्तर, नींद की गुणवत्ता, पारिवारिक संबंधों और मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। कई अंतरराष्ट्रीय सर्वे बताते हैं कि लगातार डिजिटल उपलब्धता से बर्नआउट की दर तेज़ी से बढ़ती है और भारत जैसे देशों में यह प्रभाव अधिक तीव्र दिखाई देता है क्योंकि यहाँ कार्य-संस्कृति में ‘अधिक काम करना’ अक्सर ‘अच्छा कर्मचारी’ होने का पर्याय मान लिया गया है।

राइट टू डिसकनेक्ट इसी असंतुलन को सुधारने का नैतिक और कानूनी प्रयास है।

यह बिल कर्मचारियों को यह अधिकार देता है कि वे निर्धारित कार्य समय के बाद ईमेल, संदेश या कॉल का उत्तर देने के लिए बाध्य न हों। यह अवधारणा कई यूरोपीय देशों में कानूनी हकीकत बन चुकी है और इससे सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं- उच्च उत्पादकता, संतुलित मानसिक स्वास्थ्य और कम कर्मचारी पलायन। भारत में भी यह कदम कर्मचारी कल्याण के लिए महत्वपूर्ण आधार बना सकता है।

इस अधिकार का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षा है। लगातार जुड़े रहने से मस्तिष्क को विश्राम नहीं मिल पाता, जिससे तनाव हार्मोन लगातार सक्रिय रहते हैं। अनेक अध्ययनों में पाया गया है कि डिजिटल अधिभार के कारण नींद की गुणवत्ता घटती है, चिड़चिड़ापन बढ़ता है और दीर्घकालीन स्वास्थ्य जटिलताएँ उत्पन्न होती हैं। भारत के आईटी और बीपीओ क्षेत्र में विशेष रूप से यह समस्या गहरी है, जहाँ समय-क्षेत्र (टाइम जोन) आधारित काम की प्रकृति के कारण कर्मचारी अक्सर देर रात तक उपलब्ध रहने को मजबूर होते हैं। यदि इस बिल को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए तो यह मानसिक शांति, व्यक्तिगत समय और पारिवारिक जीवन को संरक्षित करने की दिशा में बड़ा कदम होगा।

कार्य-जीवन संतुलन इस बिल की दूसरी सबसे बड़ी उपलब्धि हो सकती है। भारत की युवा कार्यशक्ति अत्यधिक महत्वाकांक्षी है, परंतु अनियंत्रित कार्य-समय उसके व्यक्तिगत विकास, सामाजिक संबंधों और शारीरिक स्वास्थ्य को क्षति पहुँचा रहा है। ‘राइट टू डिसकनेक्ट’ कर्मचारियों को यह सुरक्षा देता है कि उनके पास अपने लिए सुरक्षित समय होगा, जो किसी भी आधुनिक समाज की उत्पादक क्षमता के लिए बुनियादी शर्त है। विश्राम पाकर कर्मचारी केवल खुश नहीं होते बल्कि अधिक रचनात्मक, अधिक सतर्क और अधिक उत्पादक भी बनते हैं।

कानूनी दृष्टि से यह बिल एक महत्वपूर्ण शून्य को भरता है। भारत के मौजूदा श्रम कानून अभी तक डिजिटल युग की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं हैं। इस बिल के लागू होने से एक औपचारिक ढाँचा तैयार होगा, जिसमें यह स्पष्ट हो पाएगा कि नियोक्ता की अपेक्षाएँ कार्य-समय के बाहर कितनी वैध हैं। इससे श्रमिक अधिकारों को मजबूती मिलेगी और कार्यस्थलीय शोषण की कई अनदेखी समस्याओं पर अंकुश लगेगा।

हालाँकि, इस बिल की राह उतनी आसान नहीं है जितनी नज़र आती है।

भारत की कार्य-संस्कृति स्वभावतः विविध है- बड़ी कंपनियों से लेकर छोटे स्टार्टअप, औपचारिक क्षेत्रों से लेकर लाखों अनौपचारिक और गिग वर्कर तक-सभी की कार्य-जरूरतें अलग-अलग हैं। एक समान नियम सभी क्षेत्रों पर लागू करना व्यवहारिक चुनौती बन सकता है। विशेषकर लघु व मध्यम उद्योगों (एमएसएमई) में, जहाँ कर्मचारियों की संख्या कम और कार्य का बोझ अधिक होता है, बिल को लागू करना नियोक्ता के लिए कठिन हो सकता है।

सबसे बड़ी जटिलता भारत के आईटी क्षेत्र में उभरती है, जहाँ अंतरराष्ट्रीय ग्राहकों के कारण समय-सीमाएँ वैश्विक होती हैं। काम का स्वभाव ही ऐसा है कि कई बार कर्मचारियों को नियमित कार्य-समय से बाहर मीटिंग या ईमेल का उत्तर देना आवश्यक होता है। इसी तरह, पत्रकारिता, आपदा प्रबंधन, स्वास्थ्य सेवाएँ, परिवहन और सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में 24×7 उपलब्धता नौकरी का मूल हिस्सा है। इन स्थितियों में ‘राइट टू डिसकनेक्ट’ का शत-प्रतिशत अनुपालन संभव नहीं है। इसलिए यह बिल तभी प्रभावी होगा जब इसे लचीले क्षेत्र-विशिष्ट दिशा-निर्देशों के साथ लागू किया जाए।

एक अन्य चुनौती भारतीय कॉर्पोरेट संस्कृति में निहित है- यहाँ कर्मचारी का मूल्यांकन अक्सर उसकी उपलब्धता से जोड़ा जाता है। कई कर्मचारी आशंका में रहते हैं कि वे यदि ऑफ-ड्यूटी संदेशों या कॉल का उत्तर नहीं देंगे तो उनकी छवि खराब होगी या करियर प्रभावित होगा। यह समस्या भय और दबाव की संस्कृति को जन्म देती है, जिसे बदलने के लिए केवल कानून पर्याप्त नहीं; बल्कि मानसिकता में दीर्घकालीन बदलाव आवश्यक है।

इसके अतिरिक्त, तकनीकी दृष्टि से यह भी चुनौतीपूर्ण है कि नियोक्ता किस हद तक कर्मचारियों के डिजिटल उपकरणों की निगरानी कर सकते हैं। यदि कंपनियाँ निगरानी बढ़ाती हैं तो यह निजता के अधिकार का उल्लंघन कर सकती है। इसलिए बिल के साथ डिजिटल गोपनीयता के स्पष्ट मानक भी अनिवार्य होंगे।

इन चुनौतियों के बावजूद, यह बिल कर्मचारी कल्याण की दिशा में ऐतिहासिक कदम है। इसका वास्तविक प्रभाव तब दिखेगा जब कंपनियाँ इसे केवल ‘अनुपालन’ के रूप में न देखें बल्कि इसे मानव-केंद्रित कार्य-संस्कृति का आधार बनाएं। कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण, नियोक्ताओं के लिए संतुलित दिशा-निर्देश और सरकार के लिए प्रभावी क्रियान्वयन तंत्र- ये तीन स्तंभ इस बिल को सफल बना सकते हैं। यदि भारत मानसिक स्वास्थ्य और कार्य-जीवन संतुलन को आधुनिक विकास का मूल मानता है तो यह बिल एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है।

(लेखिका, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश