विशेष :: विद्यासागर यूनिवर्सिटी के प्रश्न पत्र में जिस क्रांतिकारी हेमचंद्र को बताया गया आतंकवादी वे स्वतंत्रता सेनानियों के लिए थे प्रेरणा, खौफ खाते थे अंग्रेज
कोलकाता, 11 जुलाई (हि.स.) । विद्यासागर विश्वविद्यालय के इतिहास (ऑनर्स) के प्रश्नपत्र में स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों को आतंकवादी बताए जाने पर तीखा विवाद छिड़ गया है। विश्वविद्यालय के छठे सेमेस्टर में ‘मॉडर्न नैशनलिज़्म इन इंडिया’ विषय के अं
मेदिनीपुर के तीन क्रांतिकारी


कोलकाता, 11 जुलाई (हि.स.) ।

विद्यासागर विश्वविद्यालय के इतिहास (ऑनर्स) के प्रश्नपत्र में स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों को आतंकवादी बताए जाने पर तीखा विवाद छिड़ गया है। विश्वविद्यालय के छठे सेमेस्टर में ‘मॉडर्न नैशनलिज़्म इन इंडिया’ विषय के अंतर्गत पूछे गए एक प्रश्न में 1930 के दशक के उन युवाओं को ‘आतंकवादी’ कहा गया, जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की बाज़ी लगा दी थी। सवाल यही है — क्या आज़ादी के दीवानों को इस तरह की शब्दावली में लपेटा जाना एक अकादमिक भूल भर है, या वे हमारी स्मृतियों से सचमुच मिटते जा रहे हैं?

विश्वविद्यालय के कुलपति दीपक कर ने इस गलती को ‘अनजानी चूक’ बताते हुए माफ़ी मांग ली है। प्रश्नपत्र तैयार करने वाले दो शिक्षकों को जिम्मेदारी से हटा दिया गया है और पूरे मामले की जांच के आदेश दिए गए हैं। लेकिन यह प्रश्न अब भी अनुत्तरित है — क्या किसी भी सूरत में हेमचंद्र घोष जैसे क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहा जा सकता है? प्रश्न में एक अंग्रेज अधिकारी की हत्या करने वाले क्रांतिकारी के बारे में पूछा गया था जो हेमचंद्र थे।

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जब अंग्रेज अफसर को गोलियों से भून दिया गया

यह प्रसंग वर्ष 1931 का है। अंग्रेज हुकूमत की रीढ़ समझे जाने वाले मिदनापुर के डिस्ट्रीक्ट मजिस्ट्रेट जेम्स पेडी को सात अप्रैल के दिन गोलियों से छलनी कर दिया गया। उसकी उम्र सिर्फ 38 साल थी, पर निर्दयता इतनी कि दीघा में सत्याग्रहियों पर उसने बेहरमी से लाठियां बरसवाई थीं। उस दमन का जवाब देने का बीड़ा उठाया 'बंगाल वॉलंटियर्स' ने। योजना बनी कि जेम्स पेडी को सबक सिखाया जाएगा। इस मिशन की कमान संभाली हेमचंद्र घोष ने, और इसे अंजाम दिया बिमल दासगुप्त और ज्योतिजीवन घोष ने।

मिदनापुर कॉलेजिएट स्कूल में एक प्रदर्शनी के दौरान जेम्स पेडी जैसे ही पहुंचा, ठीक उसी समय वहां अंधेरा कर बिमल और ज्योतिजीवन ने गोलियों की बौछार कर दी। अंग्रेज अफसर मौके पर ही ढेर हो गया। लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात ये रही कि दोनों क्रांतिकारी वहां से सुरक्षित निकल भागने में सफल रहे। पहले दौड़कर, फिर साइकिल से होते हुए वे शालबनी की ओर निकल गए। बिमल ने बाद में झरिया की कोयला खदानों में छिपकर काम भी किया।

हालांकि पेडी की हत्या के मामले में वे पकड़े नहीं गए, पर 1932 में एक और अंग्रेज अधिकारी वेलियर्स की हत्या के मामले में बिमल को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें सेल्युलर जेल, अंडमान भेजा गया। वर्ष 1942 में उनकी रिहाई हुई। 2000 में जब वे 90 वर्ष के हुए, तब उन्होंने अंतिम सांस ली।

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तीन-तीन ब्रिटिश अफसरों का अंत — मिदनापुर की धरती थी प्रतिरोध की प्रतीक

पेडी की हत्या मिदनापुर में अंग्रेजी सत्ता की चूलें हिलाने के लिए काफी नहीं थी। इसके बाद दो और मजिस्ट्रेट रॉबर्ट डगलस और बी. ई. जे. बर्ज भी बंगाल वॉलंटियर्स के निशाने पर आए। डगलस की हत्या प्रभांशुशेखर पाल और प्रद्युत कुमार भट्टाचार्य ने की, जबकि बर्ज को अनाथबंधु पांजा, निर्मलजीवन घोष, मृगेंद्रनाथ दत्त, रामकृष्ण राय और ब्रजकिशोर चक्रवर्ती ने मार गिराया।

इन सभी घटनाओं का ज़िक्र जिस प्रश्नपत्र में हुआ, उसी में क्रांतिकारियों के लिए ‘आतंकवादी’ शब्द का प्रयोग कर दिया गया। नतीजतन माफी, हटाना, जांच — ये सब तो हो रहा है, लेकिन इससे ज़्यादा ज़रूरी सवाल अब भी हवा में है — क्या हम अपनी ही आज़ादी के इतिहास को भूलने की गलती कर रहे हैं?

इतिहास कभी सिर्फ तिथियों और नामों का क्रम नहीं होता, यह आस्था, बलिदान और पहचान की गाथा होता है

जिस समय भारत की बहुसंख्य जनता दमन और गुलामी को भाग्य मानकर जी रही थी, उस समय हेमचंद्र घोष जैसे युवाओं ने आगे बढ़कर बंदूक उठाई। उन्होंने यह जानकर भी कि मौत तय है, अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती दी। उनके इस साहस ने सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं को भी प्रेरित किया था। ऐसे में इन्हें ‘आतंकवादी’ कहना न केवल ऐतिहासिक भूल है, बल्कि राष्ट्रीय अस्मिता के साथ भी अन्याय है।

यह सिर्फ शब्दों की चूक नहीं, बल्कि उन बलिदानों की स्मृति के प्रति असंवेदनशीलता है, जिनकी वजह से आज हम स्वतंत्र भारत में सांस ले पा रहे हैं। इतिहास की ये परछाइयां हमें बार-बार याद दिलाती हैं कि आज़ादी कोई उपहार नहीं, बल्कि लहू से लिखी गई एक अमर गाथा है — जिसे कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।

हिन्दुस्थान समाचार / ओम पराशर

 

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