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डॉ. अंसार अहमद
कोरोना (कोविड-19) की नई लहर भारतीय स्वास्थ्य तंत्र के लिए एक गंभीर परीक्षा है। हालांकि टीकाकरण, जांच, और जनसंचार के स्तर पर उल्लेखनीय प्रगति हुई है, फिर भी अवसंरचनात्मक कमिया, असमान पहुंच और सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां अभी बनी हुई हैं। यदि अतीत से मिले सबक को अपनाते हुए निरंतर निवेश और ठोस रणनीति को अपनाएं तो भारत न केवल वर्तमान संकट से निपट सकता है बल्कि एक समावेशी, लचीले और भविष्य के लिए तैयार स्वास्थ्य तंत्र की स्थापना भी कर सकता है।
एसएआरएस-सीओवी-2 वायरस से फैली कोविड-19 महामारी वैश्विक स्तर पर भारी तबाही मचा चुकी है। मई 2025 तक भारत में 4.5 करोड़ से अधिक पुष्टि किए गए मामले और 5.33 लाख से अधिक आधिकारिक रूप से दर्ज की गई मौतें हो चुकी हैं। अब नए वेरिएंट्स के साथ कोविड-19 की एक नई लहर ने भारतीय स्वास्थ्य तंत्र को एक बार फिर गंभीर दबाव में ला खड़ा किया है। भारत में कोविड-19 का पहला मरीज 30 जनवरी 2020 को सामने आया था। वुहान (चीन) से लौटे तीन मेडिकल छात्रों में वायरस की पुष्टि हुई थी। इसके बाद विभिन्न वेरिएंट्स, जैसे बी.1.617 (डेल्टा) और बी.1.1.7 (अल्फा) ने खासकर 2021 की दूसरी लहर के दौरान व्यापक तबाही मचाई।
मई 2025 में सोशल मीडिया रिपोर्ट्स और सरकारी अलर्ट के अनुसार, जेएन.1 जैसे नए वेरिएंट्स की उपस्थिति ने स्वास्थ्य तंत्र को फिर से सतर्क कर दिया है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च और भारतीय एसएआरएस-कोव-2 जीनोमिक्स कंसोर्टियम (आईएनएसएसीओजी) ने जीनोमिक निगरानी तेज कर दी है। अस्पतालों में गंभीर श्वसन रोग और फ्लू जैसे लक्षणों वाले मरीजों पर बारीक नजर रखी जा रही है। हालांकि इस लहर में अस्पताल में भर्ती और मृत्यु दर अपेक्षाकृत कम है, फिर भी मास्क पहनने की सलाह और सतर्क निगरानी इस वायरस के लगातार खतरे की पुष्टि करती है।
इस लहर के उभरने के प्रमुख कारणों में वेरिएंट्स की जेनेटिक परिवर्तनशीलता है। एसएआरएस-कोव-2 की निरंतर उत्परिवर्तन क्षमता ने मौजूदा वैक्सीन और उपचारों की प्रभावशीलता को कम कर दिया है। आईएनएसएसीओजी लगातार नए वेरिएंट्स की पहचान में जुटा है, लेकिन 1.3 अरब की आबादी में समग्र जीनोमिक निगरानी करना एक जटिल चुनौती बना हुआ है। दूसरा टीकाकरण की अपनी सीमा है। भारत ने अब तक अरबों वैक्सीन डोज वितरित की हैं, लेकिन बूस्टर खुराक की कम दर और ग्रामीण क्षेत्रों में सीमित पहुंच से प्रतिरक्षा क्षमता कम हो गई है, जिससे पुनः संक्रमण का खतरा बढ़ गया है। इसके सामाजिक औरआर्थिक कारक भी हैं। पिछली लहरों से क्षतिग्रस्त अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, और अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं ने जनता की भेद्यता को और बढ़ाया है, जिससे नई स्वास्थ्य पहलों की सफलता सीमित होती जा रही है।
भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली के सामने कई तरह की चुनौतियां हैं। इनमें स्वास्थ्य अवसंरचना पर बोझ का बढ़ना है। 2021 की दूसरी लहर ने भारतीय स्वास्थ्य तंत्र की कमजोरियों को उजागर किया है। ऑक्सीजन, आईसीयू बेड और वेंटिलेटर की भारी कमी सामने आई। सरकार ने 600 से अधिक विशेष कोविड-19 केंद्र स्थापित किए और रेलवे कोच को आइसोलेशन वार्ड में परिवर्तित किया, फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं आज भी अपर्याप्त हैं। भारत में डॉक्टर से मरीज का अनुपात 1:1700 है और कई ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों में आवश्यक स्टाफ की भारी कमी है। जांच और निगरानी की सीमाएं भी हैं। 2020 के मध्य तक भारत में लगभग 49 लाख नमूनों की जांच की जा चुकी थी, लेकिन राज्यों के बीच जांच क्षमता में असमानता बनी रही। बिहार जैसे राज्यों में जांच दर दिल्ली की तुलना में बहुत कम रही। जीनोमिक निगरानी के बावजूद, त्वरित निदान और एकत्रित परीक्षण जैसी रणनीतियों की आवश्यकता बनी हुई है ताकि संक्रमण पर समय रहते काबू पाया जा सके।
स्वास्थ्यकर्मियों की सुरक्षा और थकावट से सब परिचित हैं। स्वास्थ्यकर्मी कोविड-19 की सबसे अग्रिम पंक्ति में रहे हैं। वैश्विक आंकड़ों के अनुसार, कुल मामलों में से 4–12 प्रतिशत मामले स्वास्थ्यकर्मियों में दर्ज हुए और 2020 तक भारत में 90 से अधिक डॉक्टर अपनी जान गंवा चुके थे। हालांकि रोजाना छह लाख पीपीई किट का उत्पादन शुरू हुआ, फिर भी गुणवत्ता और वितरण संबंधी समस्याएं बनी रहीं। स्वास्थ्यकर्मियों की शारीरिक और मानसिक थकावट स्वास्थ्य प्रणाली की लचीलापन क्षमता के लिए खतरा है। सामाजिक और व्यवहारिक अवरोध की दिक्कतें अलग हैं। शहरी इलाकों की घनी आबादी और अस्वच्छ परिस्थितियां सामाजिक दूरी का पालन करना मुश्किल बना देती हैं। 2020 का लॉकडाउन प्रवास, बेरोजगारी, और खाद्य संकट का कारण बना। गलत जानकारी और सामाजिक कलंक ने लोगों को जांच या उपचार से हतोत्साहित किया। जागरुकता अभियान शुरू किए गए, लेकिन व्यवहार में बदलाव धीमा और असमान रहा।
भारत ने दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान चलाया, जिसमें सीरम इंस्टीट्यूट द्वारा निर्मित कोविशील्ड प्रमुख रही। हालांकि बूस्टर डोज की कम दर और ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंच की समस्या आज भी बरकरार है। आईसीएमआर ने आरटी-पीसीआर किट को मंजूरी दी और रैपिड एंटीबॉडी टेस्ट शुरू किए। एकत्रित परीक्षण और स्व-परीक्षण किट जैसे उपाय संक्रमण की शृंखला को तोड़ने में सहायक हो सकते हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय ने मास्क पहनने, सामाजिक दूरी बनाए रखने और पोस्ट-कोविड देखभाल पर जोर दिया। हालिया दिशा-निर्देशों में सतर्कता और संतुलन की रणनीति को प्रमुखता दी गई है। 2021 के बजट में वन हेल्थ कार्यक्रम की शुरुआत की गई, जो मनुष्य, पशु और पर्यावरण की संयुक्त स्वास्थ्य दृष्टिकोण को महत्व देता है। इसके लिए नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एनिमल बायोटेक्नोलॉजी ने एक विशेष केंद्र की स्थापना की है।
हालांकि कुछ महत्वपूर्ण कमियां अब भी मौजूद हैं। मसलन राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में जूनोटिक महामारियों की आशंका को समुचित रूप से शामिल नहीं किया गया। टीबी नियंत्रण और टीकाकरण कार्यक्रमों पर असर पड़ा, जैसे कि 2019 से 2020 के बीच टीबी के मामलों में 24 फीसद की गिरावट आई। कोरोना महामारी ने लैंगिक असमानता को और गहराया। महिलाओं को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा और देखभाल का बोझ भी अधिक पड़ा।
सबक और आगे की राह
स्वास्थ्य बजट को जीडीपी के न्यूनतम 2.5 फीसद तक बढ़ाना समय की मांग है। डिजिटल तकनीक और विकेंद्रीकृत मॉडल अपनाकर प्रतिक्रिया को अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है। उच्च गुणवत्ता वाले पीपीई, पर्याप्त स्टाफिंग और मानसिक स्वास्थ्य सुविधाएं दी जानी चाहिए। पारदर्शी संदेशों और सांस्कृतिक संवेदनशीलता पर आधारित अभियानों से गलतफहमियां दूर की जा सकती हैं। आयुर्वेद और अन्य पारंपरिक पद्धतियों को रोकथाम में सम्मिलित कर सामुदायिक प्रतिरक्षा को मजबूत किया जा सकता है। वैक्सीन वितरण और वेरिएंट निगरानी में अंतरराष्ट्रीय सहयोग भारत की तैयारी को सुदृढ़ कर सकता है।
(लेखक, नीमा यूनानी फोरम, दिल्ली के महासचिव हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद