Enter your Email Address to subscribe to our newsletters


—चमोली की हिमनद झील गर्मियों में प्रकट करती है सैकड़ों कंकालों का रहस्य
वाराणसी, 1 दिसम्बर (हि.स.)। उत्तर प्रदेश के वाराणसी स्थित काशी हिंदू विश्वविद्यालय में सोमवार को आयोजित विशेष व्याख्यान श्रृंखला में सीएसआईआर–केंद्र फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी (हैदराबाद) के प्रसिद्ध जेनेटिक वैज्ञानिक विज्ञानश्री डॉ. के. थंगराज ने उत्तराखंड की रहस्यमयी रूपकुंड झील के डीएनए विश्लेषण पर महत्वपूर्ण तथ्य साझा किए। लगभग 5,020 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह हिमनद झील गर्मियों में बर्फ पिघलने पर सैकड़ों मानव कंकालों से भर जाती है, जिसने वर्षों से वैज्ञानिकों और यात्रियों को उलझन में डाले रखा था। डॉ. थंगराज ने बताया कि नवीनतम जीनोमिक अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि झील में पाए गए कंकाल एक ही घटना में नहीं मरे, बल्कि तीन अलग-अलग समूहों से संबंधित हैं, जो लगभग 1,000 वर्षों के अंतराल में वहाँ पहुँचे थे।
तीन समूह, तीन कालखंड
डॉ. थंगराज ने बताया कि पहले समूह में 7वीं–9वीं शताब्दी के दक्षिण एशियाई (भारतीय) मूल के लोग। सभी की मृत्यु एक साथ हुई प्रतीत होती है। कई खोपड़ियों पर मिले गहरे, गोलाकार घाव बेहद बड़े ओलों से हुई संभावित भीषण ओलावृष्टि की ओर संकेत करते हैं। दूसरा समूह 17वीं–20वीं शताब्दी का, जो चौंकाने वाले रूप से पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्र—विशेषकर ग्रीक द्वीप क्रेट के आसपास—से संबंधित पाया गया। तीसरा समूह एकल व्यक्ति, जो दक्षिण-पूर्व एशियाई मूल का था। डॉ. थंगराज के अनुसार, यह खोज इस बात का प्रमाण है कि रूपकुंड सदियों से विभिन्न समुदायों का मार्ग रहा, हालांकि इन यात्राओं के उद्देश्य अब भी रहस्य बने हुए हैं।
ओंगे जनजाति: 65,000 वर्ष पुरानी मानव यात्रा का जीवंत प्रमाण
व्याख्यान माला में डॉ. थंगराज ने अंडमान की संकटग्रस्त ओंगे जनजाति पर नवीन जीनोमिक शोध प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि ओंगे समुदाय के पूर्वज अफ्रीका से लगभग 65 हजार वर्ष पूर्व ‘सदर्न रूट’ से होते हुए भारतीय तटीय क्षेत्रों में पहुँचे थे। यह मानव इतिहास की शुरुआती और सबसे महत्वपूर्ण प्रवासन लहरों में से एक है, जिसने आधुनिक गैर-अफ्रीकी आबादी की नींव रखी। जीनोमिक विश्लेषण से पता चलता है कि ओंगे लोगों की आनुवंशिक समानता पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशियाई निग्रिटो समूहों से मिलती है, जबकि इनमें निएंडरथल डीएनए का प्रभाव बेहद कम है—जो अफ्रीका से सीधे प्रवास की पुष्टि करता है।
विलुप्ति की ओर बढ़ती आबादी
औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों द्वारा सेलुलर जेल निर्माण के दौरान हुई हिंसा, बाहरी संपर्क, बीमारियाँ और पर्यावरणीय दबावों ने इनकी आबादी को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। 1901 में 672 से घटकर आज केवल 135 सदस्य बचे हैं। हाल ही में एक नवजात के जन्म के साथ यह संख्या 136 तक पहुँची है, किंतु समुदाय अब भी विलुप्ति के कगार पर है। जूलॉजी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर सिंगरवेल ने कहा कि ऐसे व्याख्यान छात्रों में प्राचीन मानव प्रवास और संकटग्रस्त जनजातियों के संरक्षण को लेकर वैज्ञानिक समझ का विकास करते हैं।
कार्यक्रम का संचालन ज्ञान लैब की शोधार्थी देबश्रुति दास तथा संयोजन प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे ने किया। इस व्याख्यान को आर्कियोजूलॉजी मल्टीडिसिप्लिनरी कोर्स के छात्रों के लिए विशेष रूप से आयोजित किया गया था।
हिन्दुस्थान समाचार / श्रीधर त्रिपाठी