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डॉ. मयंक चतुर्वेदी
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव द्वारा नाथ संप्रदाय में अंतिम संस्कार विधि को लेकर जो कहा गया, ‘‘वर्तमान समय में दफनाने की परंपरा बदली जाना चाहिए। पुरखे हमारे हैं और समाधि पर चादर चढ़ाकर फायदा कोई और लोग लेते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए बदलाव के कदम उठाने जाना चाहिए।’’ वस्तुत: मुख्यमंत्री मोहन यादव यहां कुछ भी गलत नहीं कह रहे, अब कौन चादर चढ़ाकर फायदा उठा रहे हैं, यह सभी को समझ आ रहा है । वैसे भी सनातन परंपरा को जो स्वीकारते हैं, वे यह तो मानेंगे ही कि मनुष्य देह के अनेक विसर्जनों में दाह संस्कार ही सबसे श्रेष्ठ है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अग्नि के महत्व पर बहुत गहरी बात कही है।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित:।
प्राणापानसमाकार: पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ।। (भगवद्गीता: अध्याय 15, श्लोक 14)
अर्थात् - मैं ही हूँ जो सभी जीवों के पेट में पाचन अग्नि का रूप धारण करता हूँ, और आने-जाने वाली सांसों के साथ मिलकर चार प्रकार के भोजन को पचाता और आत्मसात करता हूँ। श्री कृष्ण कहते हैं कि भगवान सभी जीवों के अंदर वैश्वानर के रूप में विद्यमान हैं , जिसका अर्थ है “पाचन अग्नि”, जो भगवान की शक्ति से प्रज्वलित होती है।
फिर गीता में ही श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं –
महाभूतन्यङकारो बुद्धिरव्यक्त मेव च।
इन्द्रियाणि दशाकं च पञ्च चन्द्रियगोचरा:।। (भगवद्गीता: अध्याय 13, श्लोक 6)।
अर्थात् देह-जीवन को बनानेवाले कर्मक्षेत्र के पांच महाभूतों - अहंकार, बुद्धि, अप्रकट मूलतत्व, ग्यारह इन्द्रियां (पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां तथा मन) तथा पांच इन्द्रियों के विषयों से निर्मित है। यानी कि कार्य क्षेत्र को बनाने वाले चौबीस तत्व हैं: पंचमहाभूत (पांच स्थूल तत्व - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), पंचतन्मात्राएं (पांच इन्द्रिय विषय - स्वाद, स्पर्श, गंध, दृष्टि और ध्वनि), पांच कर्मेन्द्रियां (वाणी, हाथ, पैर, जननांग और गुदा), पांच ज्ञानेन्द्रियां (कान, आंख, जीभ, त्वचा और नाक), मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति (भौतिक ऊर्जा का मूल रूप)। श्रीकृष्ण ग्यारह इन्द्रियों को इंगित करने के लिए दशैकम् (दस और एक) शब्द का प्रयोग करते हैं। इनमें वे मन के साथ-साथ पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कर्मेन्द्रियां भी सम्मिलित करते हैं। इससे पहले, श्लोक 10.22 में उन्होंने उल्लेख किया था कि इन्द्रियों में वे मन हैं।
इस प्रकार वे व्यापक रूप से पंचमहाभूत, पंचतन्मात्राएं, पांच कर्मेन्द्रियां, पांच ज्ञानेन्द्रियां और मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति को व्याख्यायित करते हैं। कुल मिलाकर पांच स्थूल तत्व - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश का जो तत्व हमारे शरीर में व्याप्त है, अग्नि संस्कार करने से वे सभी अपने-अपने मूल में समाहित हो जाते हैं। यह संदेश भारतीय ज्ञान परंपरा में कई आद्य ग्रंथों का है। अब यह अलग बात है कि समयकालीन परिस्थितियों में वे कुछ कारण अवश्य रहे होंगे जिसके चलते नाथ संप्रदाय मृत्यु पर गाड़ देने या दफन करने का अंतिम संस्कार व्यवहार करने लगा होगा । नाथ संप्रदाय के लोग खुद को अग्नि और योग से पवित्र बनाते हैं, इस कारण हो सकता है कि अग्नि में समाहित नहीं होने का उनकी ये परंपरा श्रद्धा के वशीभूत अग्नि को सम्मान देने के लिए हो! किंतु यह भी सच है कि देश-काल-परिस्थिति के अनुसार परंपराएं बदलती रही हैं, वे कभी अनन्त काल तक के लिए स्थायी नहीं रहीं। इसलिए हमेशा से भारतीय दर्शन कहता रहा है कि परंपरा में आधुनिकता समाहित है।
प्रसिद्ध साहित्कार, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने निबंध ‘परम्परा और आधुनिकता’ में लिखते हैं, ‘‘ऊपर-ऊपर से ऐसा लगता है कि परम्परा अब तक के सभी आचार विचारों का एक जमाव है। सभी पुरानी बातें परम्परा कह दी जाती हैं। जबकि सत्य यह है कि परम्परा भी एक गतिशील प्रक्रिया की देन है। हमने अपनी पिछली पीढ़ी से जो कुछ प्राप्त किया है, वह समूचे अतीत की पुंजीभूत विचारराशि नहीं है। सदा नये परिवेश में कुछ पुरानी बातें छोड़ दी जाती हैं और नयी बातें जोड़ दी जाती हैं। एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को हू व हू वही नहीं देती जो अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी से प्राप्त करती है। कुछ न कुछ छूटता रहता है, बदलता रहता है, जुड़ता रहता है। यह एक निरन्तर चलती रहनेवाली प्रक्रिया है। 'परम्परा' का शब्दार्थ है, एक का दूसरे को, दूसरे का तीसरे को दिया जानेवाला क्रम। वह अतीत का समानार्थक नहीं है। 'परम्परा' जीवन्त प्रक्रिया है जो अपने परिवेश के संग्रह त्याग की आवश्यकताओं के अनुरूप निरंतर क्रियाशील रहती है। कभी-कभी इसे गलत ढंग से अतीत के सभी आचार विचारों को बोधक मान लिया जाता है।’’
इस निबंध में आचार्य द्विवेदी यह भी लिखते हैं, ‘‘बुद्धिमान आदमी एक पैर से खड़ा रहता है, दूसरे मे चलता है। यह केवल व्यक्ति सत्य नहीं है, सामाजिक सन्दर्भ में भी यही सत्य है। खड़ा पैर परम्परा है, चलता पैर आधुनिकता। दोनों का पारम्परिक संबंध खोजना वहुत कठिन नहीं है। एक के बिना दूसरी की कल्पना ही नहीं की जा सकती।’’ इस संदर्भ में यहां समयानुरूप परंपरा परिवर्तन के यह उदाहरण देखे जा सकते हैं; भारत में इस्लाम को माननेवाले मुसलमान जब मतान्तरण (धर्मांतरण) तलवार के बल पर कर रहे थे और उसमें भी जातिवाद के जहर ने समाज के उपेक्षित वर्ग को मतान्तरण के लिए प्रेरित भी किया। तब कश्मीर में एक सार्थक प्रयत्न हुआ।
पुस्तक-सामाजिक समरसता एवं वर्ण व्यवस्था में राजनीतिक चिंतक एवं पूर्व सांसद रघुनंदन शर्मा लिखते हैं- ‘‘सन् 1420 में कश्मीर में हिन्दुओं का संहार करने वाले, समूचे कश्मीर को हिन्दूविहीन कर देने वाले, सिकन्दर बुतशिकन तथा राष्ट्रद्रोही समाजद्रोही सैफुद्दीन (सुहास भट्ट) के शासन की समाप्ति के पश्चात् उसका दूसरा पुत्र जैन-उल आब्दीन सुल्तान की गद्दी पर बैठा । जैनुल आब्दीन कश्मीर के महान वैद्य पंडित श्रीभट्ट से प्रभावित हुआ। श्रीभट्ट ने सुल्तान के ऊपर अपने प्रभाव का लाभ लेकर कश्मीर के हिन्दुओं को सभी कष्टों से मुक्त करा दिया। पंडित श्रीभट्ट ने हिन्दू समाज में एक क्रान्तिकारी एवं अनुकरणीय चमत्कार किया। नरेन्द्र सहगल ने अपनी धर्मान्तरित कश्मीर पुस्तक के पृष्ठ 118 पर लिखा कश्मीर में अनेक गौत्र वर्ण इत्यादि थे। मुसलमान शासकों के अत्याचारों से कश्मीरी हिन्दुओं की यह व्यवस्था चूर-चूर हो गयी थी। कश्मीर से भागकर बाहर जाकर बिखर जाना और फिर अत्यन्त दयनीय परिस्थितियों में वापस लौटने से हुई विनष्ट वर्ण व्यवस्था को नया रूप देने की आवश्यकता थी। ऐसी स्थिति में पंडित श्रीभट्ट ने सबको एक ही वर्ण, ब्राह्मण, में परिणत कर दिया।
डॉ. त्रिलोकीनाथ गंजू ने भी अपनी पुस्तक महाश्री शिर्य भट्ट में श्रीभट्ट के इस एतिहासिक एवं क्रांतिकारी योगदान का वर्णन किया है। संभवतः इन उपेक्षित कश्मीरी हिन्दुओं के विकास के संदर्भ को विश्लेषित कराना महत्वपूर्ण नहीं रहा हो, परन्तु महाश्री शिर्य भट्ट के इस कांतिकारी सुधार ने भावी कश्मीर के इतिहास के नहीं, अपितु भारत के समस्त हिन्दू न समाज के लिए एक वैज्ञानिक समाज शास्त्री की तरह, अपने युग से एक हजार वर्ष आगे की तरफ देखकर इस वर्णविहीन एक-वर्ण (कश्मीरी पंडित) समाज का गठन किया। आश्चर्य तो यह है कि जिस सुधार शंखनाद को शतकों के उपरांत भक्ति आन्दोलन, ब्रह्म समाज, आर्य समाज, और विश्व हिन्दू परिषद आदि ने कार्यान्वित करना चाहा, उसको युगद्रष्टा श्री भट्ट ने 1420 ईसवीं में त्रिकालद्रष्टा की तरह देखकर कदम उठाया था। यानी जो कभी परंपरा थी, वह कहीं विलीन हो गई और आधुनिकता में संपूर्ण जम्मू-कश्मीर का हिन्दू समाज तत्कालीन समय से ब्राह्मण(पंडित) समाज हो गया।
दूसरा उदाहरण रात्रि में हिन्दुओं के विवाह के रूप में भी देखा जा सकता है। श्रीराम-जानकी जी का विवाह वैदिक रीति के अनुसार दिन में हुआ था। श्री कृष्ण-रुकमणी का विवाह हो या अन्य प्रमुख विवाह संस्कार ये सभी दिन में सूर्य को साक्षी मानकर क्योंकि वह ऊर्जा और उत्साह के प्रतीक हैं सम्पन्न हुए थे। वस्तुत: यह हमारी प्रथा रही है कि हम अपने पुत्र-पुत्री का विवाह दिन में ही करें।लेकिन कालान्तर में जब हिन्दू समाज पर विधर्मियों का आतंक हुआ, तुर्क, हब्शी, मुगल आक्रांताओं समेत अरबिया इस्लामिक आक्रान्ताओं द्वारा हिन्दू बेटियों का मान, शील, चरित्र, जेवर, धन लुटने लगा और हिन्दू समाज अपने आप को कमजोर पाने लगा, तब भारत में दो धाराओं का प्रचलन देखने को मिला, एक – देश भर में भक्ति आन्दोलन खड़ा हुआ और दो- हिन्दू आचार्य इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि गांव, देहात हर जगह हिन्दू परिवार जिसके यहां विवाह होना है, उसे सुरक्षा उपलब्ध कराना संभव नहीं, इसलिए आगे से विवाह रात्रिकाल में होंगे। जहां अनुकूलता रहे, वहीं सिर्फ विवाह संस्कार दिन में किए जाएं।
इस इस्लामिक अत्याचार का प्रभाव इतना ही नहीं था, हिन्दू समाज में भी सात से नौ साल की कम आयु में विवाह होने लगे, जोकि पहले नहीं होते थे। पर्दा प्रथा शुरू हो गई। बेटियों को जन्मकाल से ही कई जगह मारा जाने लगा। जिस मुगल बादशाह अकबर को तथाकथित इतिहासकार महान शासक कहते नहीं थकते, वह फरमान जारी करता है कि यदि कोई नवयुवती सड़क या बाजार में दौड़ती पायी गयी और इस अवस्था में वह पर्दे में न हुई तो उसे वेश्याओं के डेरे की ओर जाना पड़ेगा और वही रोजगार करना पड़ेगा ।(अकबरनामा, अबुलफजल, आइने-अकबरी)
इतिहास साक्षी है कि तुर्क, अफगानों के शासन में हिन्दू जनता विजय व दमन की प्रक्रिया के तहत पिसती रही। लाखों हिन्दू युद्ध में मारे गये, बच्चों-स्त्रियों को जबरदस्ती मुसलमान बनाया गया तथा उन्हें दासों के रूप में बेचा भी गया । इल्तुतमिश ने चंदेल वंश के त्रैलोक्य वर्मन के विरूद्ध युद्ध करते समय अनेक स्त्रियों व बच्चों को बन्दी बनाकर मुसलमान बनाया । (तबकात-ए-नासिरी मिनहाज, अनु. रेवर्टी, पृ. 175) इसी प्रकार से बलवन ने रणथम्भौर व सिवालिक की पहाड़ियों के युद्ध के दौरान लाखों स्त्री-बच्चों को बन्दी बना व धर्म परिवर्तन कराया । (फनुहात-ए-फिरोजशाही, फाउन्डेशन ऑफ मुस्लिम रूल इन इण्डिया, हबीबुल्ला, पृ. 102-3), जिसने उसकी बात मानने से इंकार किया, उनके सिर कलम कर दिए गए।
सिकन्दर लोदी ने उलेमा द्वारा निर्णय दिये जाने पर एक बोधन नायक ब्राह्मण को इस्लाम धर्म स्वीकार न करने पर जिन्दा जलवा दिया ।(तबकाते अकबरी, निजामुद्दीन अहमद, पृ. 322-23), इसी तरह के उसके अन्य कई हिन्दू अत्याचार हैं, जिनसे इतिहास भरा पड़ा है। फिरोज तुगलक ने जाजनगर के राजा सिखार के पुत्र को पकड़कर मुसलमान बनाया व उसका नाम शक्रखान रखा। इस प्रकार के अनेक उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं, जिसमें कि हिन्दू जनता एवं राजा के सामने अपने अस्तित्व को बचाए रखने का संकट तलवार और भयंकर क्रूरता के सामने खड़ा हुआ था। दुखद यह है कि जिस धर्मनिरपेक्ष(पंथनिरपेक्ष) देश भारत को आज हम देख रहे हैं, वहां भी योजनाबद्ध, संगठित तरीके से हिन्दुओं पर निशाना साधा जा रहा है। कन्वर्जन, लवजिहाद, लैण्ड जिहाद, हिंसा के अनेकों उदाहरण आज भरे पड़े हैं ।
इसी प्रकार से समय-समय पर अनेक परंपराओं में देशकाल स्थिति के अनुसार बदलाव होता हुआ हम पाते हैं । इतिहास इस बात का भी साक्षी है कि आद्य शंकराचार्य ने ज्ञान प्रवाह से सनातन हिंदू धर्म को जब पुनर्विवान किया था, तब उन्होंने भी अपने काल में अनेक नई-नई परंपराएं स्थापित कीं और भारत के अनेक तत्कालीन राजाओं ने उन्हें सहजता से स्वीकार भी किया । शंकराचार्य की वाणी उन राजाओं के लिए वेदवाणी थी, उनके लिए वह पुण्य वाणी थी और उसे उन्होंने वैसा का वैसा स्वीकार किया था। जैसा कि आद्य गुरु शंकर ने तय किया था।
इन सभी उदाहरणों को देखते हुए अंत में यही कहना होगा कि किसी भी परंपरा की तार्किक प्रवृत्ति उसे जीवंत बनाए रखने में मदद करती है। अन्यथा परंपरा को जड़ होने में समय नहीं लगता। परंपरा उन मूल्यों की भी वाहक है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हैं । इसके साथ यह भी सच है कि किसी परंपरा की नई व्याख्या करना सृजन करना ही है। इतिहास के किसी कालखंड में घटे किसी घटनाक्रम के चलते तत्कालीन समाज अनेक अद्भुत निर्णयों की न सिर्फ कल्पना करता है बल्कि उन्हें व्यवहार में भी लाता है, परन्तु कालांतर में यही समाज एक अलग तरह का निर्णय करता है, जोकि कई बार जरूरी नहीं कि पहले लिए गए निर्णयों से बहुत मेल खाए ।
वैसे भी भारतीय संदर्भ में ही नहीं दुनिया की तमाम संस्कृतियों और सभ्यताओं में समय के अनुसार परंपराएं बदलती रही हैं और अपने समय में ये सदैव वर्तमान रहती आई हैं, जो परंपराएं अपने वर्तमान काल से मेल नहीं खातीं वह या तो नष्ट हो जाती हैं या फिर वे परंपराएं विवाद का एक बड़ा कारण बनती हैं । वास्तव में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने विमर्श के लिए एक बड़ा विषय दिया है। अब नाथ संप्रदाय के जो विद्वान हैं, इस नजरिए से भी एक बार विचार अवश्य करेंगे, यह विश्वास है । अतः आज जो बात कही जा रही है उसको ध्यान में रखकर इस पर विचार सभी को करना चाहिए । अब समझदारी इसी में है कि समय के साथ हम अपनी परंपराओं की व्यवस्था, सामाजिक ताने-बाने के लिए आवश्यक सुधार करें, उसमें परिवर्तन करें और सही वैज्ञानिकता और वर्तमान समय के अनुकूल जो है उसके अनुसार अपना आचरण करें । वस्तुत: ध्यान रहे, यह विचार केवल नाथ संप्रदाय के लिए नहीं हैं, बल्कि सभी हिन्दू जन के मत, पंथों के लिए है, इनमें आज जहां भी लगता है सुधार आवश्यक है, वहां हमें वर्तमान काल के अनुरूप सुधार करना ही चाहिए। यही है परंपराओं में आधुनिकता का होना, जिसे आज मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव आगे बढ़ाते हुए दिखाई दे रहे हैं।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी