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डॉ. प्रभात ओझा
भारतीय जनमानस में दीपावली और मर्यादा पुरुषोत्तम राम के साथ महात्मा गांधी को याद करना अलग तरह का अनुभव है। जीवन का शायद ही कोई प्रश्न हो, जो गांधी से छूट गया हो। ऐसे में जबकि स्वाधीनता आंदोलन के इस महानायक पर भी सोशल मीडिया का एक अंश और कुछ लोग सवाल उठाने लगे हैं, दीपावली के बारे में उनके विचार जाने जा सकते हैं।
दस्तावेजी तथ्य बताते हैं कि बापू ने 1921 में 09 अक्टूबर को दीपावली को राम की विजय का उत्सव कहा था। गुजराती भाषा के ‘नवजीवन’ में उनका लेख छपा था। वे लिखते हैं, “दीवाली के दिन राम के विजय का उत्सव मनाया जाता है। राम की विजय का अर्थ है धर्म की विजय। धर्म की विजय का उत्सव तो धर्म को पालन करने वाले ही मना सकते हैं। उसे वही राष्ट्र मना सकता है जो अपने स्वाभिमान की रक्षा करता हो और स्वाश्रयी हो। इसलिए मैं तो ऐसा समझता हूं कि हमारा कर्तव्य है कि जब तक हमें स्वराज नहीं मिल जाता, दीपावली के इन दिनों में हमें किसी प्रकार का आमोद-प्रमोद नहीं करना चाहिए और न मिष्टान्न भोजन करना चाहिए।”
स्पष्ट है कि गांधी ने स्वराज को जीवन का मुख्य लक्ष्य बना लिया था। सम्पूर्ण देश को भी वे इसी रास्ते पर बढ़ने के लिए प्रेरित करते रहे। इसी में वे आगे लिखते हैं, “जिस समय अपने धर्म और देश के लिए हजारों निर्दोष लोग जेल गये हों, उस समय हम किसी भी प्रकार के आनंद का उपभोग कैसे कर सकते हैं।” आज भी देखें तो वे कोई नई बात नहीं कहते। जब मन-मस्तिष्क उत्सव के अनुकूल न हो, बिना प्रेरणा हम उसमें मन नहीं लगा पाते। उस समय तो सम्पूर्ण देश अपनी आजादी के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन में मशगूल था।
इसके पहले 1920 में भी गांधीजी इस त्योहार को देश की आजादी से ही जोड़कर देखते हैं। उस वर्ष अहमदाबाद में 31 अक्टूबर को वे महिलाओं की एक सभा को सम्बोधित कर रहे थे। यह भी गुजराती नवजीवन के 03 नवंबर के अंक में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने कहा था, “दीपावली, राम सीता जी को छुड़कर लाए, इसकी खुशी का उत्सव है। राम ने रावण पर जैसी विजय प्राप्त की, वैसी हम फिर प्राप्त न कर सकें, तब तक हमे ऐशो-आराम करने या शृंगार करने, स्वाद लेने या पटाखे छुड़ाने का अधिकार नहीं है।”
दीपावली पर गांधीजी रावण को 10 सिर वाले राक्षस के रूप में बताते हुए विदेशी सत्ता को दस हजार सिर वाला बताते हैं। उन्होंने 27 अक्टूबर, 1920 को डाकोर में एक सभा को सम्बोधित किया था। नवजीवन के 03 नवंबर के अंक में प्रकाशित समाचार में उनका कथन इस तरह उद्धृत है- “आज भी हम दीपावली मनाते हैं, तो राम की रावण पर विजय मनाते हैं, परंतु यह विजय हम तभी मना सकते हैं जब हम इस दस नहीं, किंतु दस हजार सिरों वाले रावण को छिन्न-भिन्न नहीं कर सकें।”
आजादी के बाद भी दीपावली को देखने के गांधी के नजरिए में फर्क नहीं आता। विदेशी शासक से मुक्ति मिल चुकी थी, लेकिन गांधी के सपनों के भारत का निर्माण बाकी था। भारत सरकार की ओर से प्रकाशित सम्पूर्ण गांधी वांग्मय के खण्ड-90, पृष्ठ 18 पर दिल्ली की प्रार्थना सभा में 12 नवंबर, 1947 को छपा उनका भाषण है। उनका कहना था, “राम भलाई की ताकतों के प्रतीक थे और रावण बुराई की ताकतों का।........अफसोस है कि आज हिंदुस्थान में रामराज्य नहीं है। इसलिए हम दिवाली कैसे मना सकते हैं? वही आदमी इस दिन की खुशी मना सकता है जिसके दिल में राम हैं।” आज गांधी नहीं हैं, संदर्भ भी लगातार बदले हैं। फिर भी मुद्दा कायम है कि किसके दिल में राम हैं। जिसके दिल में राम हैं, वे स्वयं बता सकते हैं। दीपावली मनाने का अधिकार भी उन्हें ही होना चाहिए।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश