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गंगबल यात्रा : आस्था, संस्कृति और पितृश्रद्धा का पर्व
-डॉ. मयंक चतुर्वेदी
कश्मीर की वादियां जितनी खूबसूरत हैं, उतना ही दर्द भी समेटे हुए हैं। बर्फ से ढके पहाड़, झीलों का निर्मल जल, बादलों से छनकर आती धूप और बागों की महक, यह सब किसी स्वर्ग का आभास कराते हैं। किंतु इतिहास के पन्नों को पलटें तो यहां का एक-एक दृश्य रक्तरंजित गवाही भी देता है। कश्मीर ने जितनी बार मुस्कुराया है, उतनी ही बार आंसुओं में भी भीगा है। कश्मीरी पंडितों का इतिहास इस दर्द का जीवंत प्रमाण है। अपनी आस्था और परंपराओं की रक्षा करते हुए उन्होंने गोलियां खाईं, हथगोलों के धमाके सहे, अपने घर-आंगन छोड़ने पड़े, किन्तु आस्था की डोर कभी टूटी नहीं। यही अटूट विश्वास उनकी पहचान बन गया।
गंगबल यात्रा: आस्था का अदम्य साहस
कश्मीरी पंडितों की इस अडिग आस्था का सबसे बड़ा उदाहरण है, गंगबल यात्रा। यह केवल धार्मिक यात्रा नहीं बल्कि जीवटता की पराकाष्ठा है। हर साल श्रद्धालु बर्फ़ीली हवाओं, पथरीले रास्तों और कठिन पहाड़ी चढ़ाइयों से जूझते हुए गंगबल झील तक पहुंचते हैं। यहां वे अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान करते हैं। जब गंगबल झील के शांत जल में आटे और तिल से बने पिंड अर्पित होते हैं, तो यह केवल एक कर्मकांड नहीं होता, बल्कि पूरी सभ्यता की ओर से एक प्रतिज्ञा होती है कि चाहे कितने ही तूफान आएं, परंपराओं की यह लौ कभी बुझने नहीं दी जाएगी। यह तीर्थयात्रा 30 अगस्त से शुरू हो गई है जोकि एक सितम्बर को समाप्त होगी तथा इस वर्ष बड़ी संख्या में तीर्थयात्रियों के भाग लेने की उम्मीद है। यात्रा के सुचारू और शांतिपूर्ण संचालन को सुनिश्चित करने के लिए मार्ग पर जम्मू-कश्मीर पुलिस, सीआरपीएफ, सेना, बीएसएफ और अन्य एजेंसियों के बलों को तैनात किया गया है।
कश्मीर: धर्म और संस्कृति की जीवित प्रयोगशाला
दरअसल, कश्मीर की घाटी केवल प्राकृतिक सौंदर्य की भूमि नहीं है, बल्कि यह धर्म, दर्शन और संस्कृति की जीवित प्रयोगशाला भी रही है। यहां का हर पहाड़, हर झरना, हर घाटी अपने भीतर कोई न कोई कथा, कोई पौराणिक विश्वास और कोई आध्यात्मिक परंपरा समेटे हुए है। इन्हीं स्थलों में से एक है; गंगबल झील। गांदरबल जिले के हरमुख पर्वत की गोद में स्थित यह झील न केवल सौंदर्य का अद्वितीय उदाहरण है बल्कि इसे कश्मीर का गया भी कहा जाता है। जिस प्रकार बिहार के गया में पिंडदान का महत्व है, उसी प्रकार कश्मीर में गंगबल झील को पितृमोक्ष का सर्वोच्च स्थल माना जाता है।
कठिन यात्रा, अटूट संकल्प
भाद्रपद मास में जब यात्रा का शंख बजता है, तो नारानाग मंदिर से छड़ी पूजा के बाद श्रद्धालुओं का जत्था गंगबल झील की ओर निकलता है। बुचरी और ट्रंखाल मार्ग से होकर यह कठिन पैदल यात्रा गंगबल झील तक जाती है। गंगबल झील तक पहुंचने में लगभग 15 किलोमीटर लंबा यह मार्ग अत्यंत कठिन है। कभी घने जंगल, कभी पथरीली चढ़ाई, कभी झरनों का शोर और कभी अचानक बदलता मौसम। बर्फ़ीली हवाएं शरीर को कंपा देती हैं और ऊबड़-खाबड़ रास्ता पैरों को थका देता है, लेकिन श्रद्धालुओं का संकल्प अडिग रहता है। दूसरी ओर बीच-बीच में चारों ओर बर्फ से ढकी चोटियां, हरे-भरे चरागाह, नीलाभ जल में झलकता आकाश, यह दृश्य किसी देवलोक जैसा प्रतीत होता है। जब झील के किनारे बैठकर मंत्रोच्चार के साथ पिंड अर्पित किए जाते हैं, तो वह क्षण अत्यंत भावनात्मक होता है।
यह केवल कर्मकांड नहीं होता, बल्कि जीवित पीढ़ियों और दिवंगत आत्माओं के बीच संवाद का क्षण होता है। मानो श्रद्धालु अपने पूर्वजों से कह रहे हों; हम तुम्हें भूले नहीं हैं। तुम्हारी परंपराएं हमारे लिए आज भी उतनी ही पवित्र हैं जितनी तुम्हारे समय में थीं। आज यह यात्रा कश्मीरी पंडितों के लिए केवल धार्मिक परंपरा नहीं बल्कि अपने अस्तित्व की पुनः पुष्टि है। विस्थापन और कठिन राजनीतिक हालातों के बावजूद उन्होंने दिखाया कि यदि दिलों में आस्था की लौ जलती रहे, तो उसे कोई बुझा नहीं सकता।
गंगबल झील का भूगोल और महत्व
गंगबल झील सिंधु नदी प्रणाली का हिस्सा है। हिमनदों और पहाड़ी नालों से भरने वाली यह झील आगे चलकर सिंध नदी से मिलती है। कश्मीरी लोकविश्वास के अनुसार, सिंधु नदी का यह जल केवल भौतिक जीवन का आधार नहीं, बल्कि आध्यात्मिक ऊर्जा का स्रोत भी है। हरमुख पर्वत, जिसके चरणों में यह झील स्थित है, शिव का निवास और कैलाश पर्वत का प्रतिबिंब माना जाता है। हरमुख नाम ही बताता है, हर यानी शिव और मुख यानी चेहरा। मान्यता है कि शिव ने यहां तप किया और झीलें उनके आंसुओं से बनीं। गंगबल झील का उल्लेख नीलमत पुराण और अन्य प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। लोककथाएं कहती हैं कि महाभारत के पश्चात पांडवों ने भी यहां अपने पितरों का श्राद्ध किया था। कश्मीरी पंडितों की परंपरा में यह झील पितृमोक्ष का सर्वोच्च स्थल मानी जाती है।
सब कुछ दांव पर लगाने पर ही संस्कृतियां बचती हैं
गंगबल यात्रा इसका जीवंत प्रतीक है। यह कठिन यात्रा केवल तीर्थयात्रा नहीं, बल्कि यह संदेश देती है कि संस्कृतियां केवल किताबों या मंदिरों में नहीं बचतीं। वे तब बचती हैं जब लोग उनके लिए अपना सबकुछ दांव पर लगाने को तैयार हों। आज का भी सच यही है कि गंगबल यात्रा कश्मीरी पंडितों की पहचान का हिस्सा है। प्रवासी पंडित जब यहां आकर पिंडदान करते हैं, तो यह मानो संदेश होता है कि “हम अपनी जड़ों से कटे नहीं हैं।” यही कारण है कि यह यात्रा उनकी भावनात्मक धड़कन कही जाती है। इसलिए आज यह यात्रा केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि हिन्दू धर्म की गहरी दार्शनिक परंपरा का प्रतीक है। इसमें पूर्वजों का सम्मान है जो हमारे अस्तित्व की नींव हमारे पितरों ने रखी, उन्हें स्मरण करना हमारा कर्तव्य है। जीवन-मृत्यु का चक्र है, यह यात्रा हमें याद दिलाती है कि मृत्यु अंत नहीं, बल्कि एक नई यात्रा का आरंभ है। साथ ही यहां है प्रकृति और अध्यात्म का संगम। कठिन पहाड़ों में अनुष्ठान करना बताता है कि हिन्दू धर्म में प्रकृति और अध्यात्म अविभाज्य हैं।
भावनात्मक विमर्श
यह प्रश्न सहज उठता है कि लोग इतनी कठिन यात्रा क्यों करते हैं? उत्तर है; आस्था और भावनात्मक जुड़ाव। जब कोई पिंडदान करता है, तो वह महसूस करता है कि उसके पीछे पीढ़ियों का आशीर्वाद है और उसके सामने आने वाली पीढ़ियों की जिम्मेदारी। गंगबल यात्रा हमें यह संदेश देती है कि “पितृ-श्रद्धा ही जीवन की नींव है, और आस्था ही वह शक्ति है जो हमें हर कठिनाई में आगे बढ़ने का साहस देती है।”
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी