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नई दिल्ली, 27 अगस्त (हि.स.)। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने बुधवार को कहा कि भारत को स्वदेशी को प्राथमिकता देते हुए आत्मनिर्भरता की दिशा में ठोस कदम बढ़ाने होंगे। सरसंघचालक ने इस बात जोर दिया कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार आपसी इच्छा से होना चाहिए, दबाव में नहीं।
डॉ. भागवत विज्ञान भवन में चल रहे तीन दिवसीय व्याख्यान शृंखला ‘100 वर्ष की संघ यात्रा : नए क्षितिज’ के दूसरे दिन संबोधित कर रहे थे। यह कार्यक्रम संघ की शताब्दी वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित किया गया है। डॉ. भागवत ने कहा कि आत्मनिर्भरता ही सब समस्याओं का समाधान है और इसी में स्वदेशी की सार्थकता निहित है। आत्मनिर्भर होने का मतलब आयात बंद करना नहीं है। दुनिया चलती है क्योंकि यह एक-दूसरे पर निर्भर है। इसलिए आयात-निर्यात जारी रहेगा। हालांकि, इसमें कोई दबाव नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा, “अपना देश आत्मनिर्भर होना चाहिए। इसके लिए स्वदेशी के उपयोग को प्राथमिकता दें। देश की नीति में स्वेच्छा से अंतरराष्ट्रीय व्यवहार होना चाहिए, दबाव में नहीं। यही स्वदेशी है।”
उन्होंने कहा कि केवल आवश्यक वस्तुओं का ही आयात किया जाना चाहिए बाकी सभी वस्तुओं का उत्पादन देश में ही होना चाहिए। सरसंघचालक ने बताया कि संघ स्वयंसेवक भविष्य में ‘पंच परिवर्तन’ यानी समाज परिवर्तन के पांच कार्यों पर ध्यान केंद्रित करेंगे। इनमें संस्कारात्मक अनुभव शामिल है, जिसके अंतर्गत बच्चों को वास्तविक जीवन से परिचित कराने की बात कही गई। उन्होंने कहा, “बच्चों को पेरिस ले जाने के बजाय कारगिल, झुग्गी-बस्तियों और ग्रामीण जीवन दिखाना चाहिए ताकि वे समाज की सच्चाई समझ सकें।” उन्होंने इसके तहत ‘कुटुंब प्रबोधन’ की अवधारणा रखते हुए कहा कि प्रत्येक परिवार को बैठकर सोचना चाहिए कि वे भारत के लिए क्या कर सकते हैं। उन्होंने कहा, “पौधा लगाने से लेकर वंचित वर्ग के बच्चों को पढ़ाने तक कोई भी छोटा कार्य देश और समाज से जुड़ने का भाव पैदा करता है।”
पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि केवल चर्चा करने से बदलाव संभव नहीं है। डॉ. भागवत ने कहा, “छोटे-छोटे प्रयास करना जरूरी है, जैसे पौधा लगाना, जल संरक्षण करना और प्लास्टिक का कम उपयोग करना। इसी से वास्तविक परिवर्तन आएगा।” भागवत ने इसी में सामाजिक समरसता के महत्व को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि सामाजिक समरसता का कार्य कठिन होते हुए भी, करना ही होगा उसके अलावा कोई उपाय नहीं। समाज में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा, “मंदिर, पानी और श्मशान में कोई भेदभाव न रहे। अपने आसपास के वंचित वर्ग में मित्रता करना ही समरसता का मार्ग है।” उन्होंने कहा कि आत्मनिर्भरता के लिए स्वदेशी के उपयोग को प्राथमिकता दें। जो हमारे देश और गांव में बनता है पैदा होता है, उसे बाहर से लाने की आवश्यकता नहीं है।
सरसंघचालक डॉ. भागवत ने संविधान, कानून और नियमों के पालन को नागरिक कर्तव्य बताया। उन्होंने कहा कि यदि कभी पुलिस या कानून से असहमति हो तो शांति से विरोध दर्ज कराएं, हिंसा और अराजकता के रास्ते पर न चलें। किसी भी स्थिति में उत्तेजना में आकर क़ानून को हाथ में नहीं लेना। देश के लिए आज 24 घंटे जीने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा, “धर्म की रक्षा करने से सभी की रक्षा होती है। जैसे गुरुत्वाकर्षण नियम है, वैसे ही धर्म भी सार्वभौमिक है। इसे स्वीकारें या न स्वीकारें, यह सदैव विद्यमान है। हिंदू धर्म ही विश्व शांति का मार्ग प्रशस्त करता है।”
डॉ. भागवत ने अपने उद्बोधन में महात्मा गांधी द्वारा बताए गए ‘सात सामाजिक पापों’ को उद्धृत करते हुए कहा कि आज ये तेजी से बढ़ रहे हैं। ये हैं- बिना काम के धन, विवेक के बिना सुख, चरित्र के बिना ज्ञान, नैतिकता के बिना व्यापार, मानवता के बिना विज्ञान, त्याग के बिना धर्म और सिद्धांतों के बिना राजनीति। उन्होंने कहा कि विश्व में अस्थिरता और उथल-पुथल का माहौल है। उन्होंने कहा, “प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भी तीसरे विश्व युद्ध जैसी स्थिति आज दिखाई देती है। लीग ऑफ नेशंस और संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं स्थायी शांति स्थापित करने में विफल रही हैं।” समाधान बताते हुए उन्होंने कहा कि धर्म-संतुलन और भारतीय दृष्टि ही विश्व शांति का मार्ग है।
सरसंघचालक ने कहा कि हिंदुत्व का सार दो शब्दों में सत्य और प्रेम है। उन्होंने कहा, “दुनिया सौदेबाजी और अनुबंधों से नहीं चलती, बल्कि एकात्मता से चलती है। हिंदु राष्ट्र का जीवन मिशन विश्वकल्याण है। मानव जीवन का अंतिम ध्येय आत्मा की खोज और शाश्वत आनंद प्राप्त करना है।” उन्होंने कहा कि हिंदू समाज को संगठित करना संघ का ध्येय है और इसके लिए सतत कार्य करते रहना होगा। उन्होंने कहा कि मैत्री, करुणा, आनंद और उपेक्षा के आधार पर समाज को देखना और उसी भाव से आगे बढ़ना संघ की कार्यपद्धति है।
डॉ. भागवत ने ‘वोकिज़्म’ जैसी नई प्रवृत्तियों को गंभीर संकट बताया। उन्होंने कहा कि आज की पीढ़ी पर इसका गहरा प्रभाव पड़ रहा है। उन्होंने चेताया, “दुनिया भर के संरक्षक और बुजुर्ग चिंतित हैं क्योंकि युवाओं का धर्म और संस्कारों से संपर्क टूट रहा है। कट्टरवाद फैलाने वाले चाहते हैं कि जीवन में कोई मर्यादा न हो और जो उनके खिलाफ बोले, उसे रद्द कर दिया जाए।”
सरसंघचालक भागवत ने लोगों से संघ को नजदीक से समझने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि संघ शाखा में आइए, स्वयंसेवकों के घरों में जाइए, संघ कार्यक्रमों में भाग लीजिए, तब आपको समझ आएगा कि यहां कही गई बातें कर्म रूप में कैसे परिणत हो रही हैं। उन्होंने कहा कि संघ का कार्य किसी प्रलोभन या लाभ के लिए नहीं है। संघ के स्वयंसेवक इसलिए काम करते हैं क्योंकि उन्हें इसमें आनंद मिलता है। वे इस बात से प्रेरणा लेते हैं कि उनका काम विश्वकल्याण के ध्येय के प्रति समर्पित है।
डॉ. भागवत ने दोहराया कि संघ का लक्ष्य संपूर्ण हिंदू समाज का संगठन और विश्वकल्याण है। उन्होंने कहा कि यह कार्य कठिन और लंबा है, लेकिन सतत चलते रहना ही इसका आधार है।
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हिन्दुस्थान समाचार / सुशील कुमार