सहारिया जनजाति की टीबी संवेदनशीलता में मातृ आनुवंशिक वंश की भूमिका,शोध में खुलासा
— जनजाति में टीबी की उच्च दर का कोशिका के पावर हाउस माइटोकोन्ड्रिया के साथ संबंध वाराणसी,18 अगस्त (हि.स.)। मध्य भारत की सहारिया जनजाति में तपेदिक (टीबी) को लेकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू)सहित चार अन्य सहयोगी संस्थानों के शोधकर्ताओं ने आनुवंशि
सहारिया जनजाति की महिला प्रतीक फोटो


— जनजाति में टीबी की उच्च दर का कोशिका के पावर हाउस माइटोकोन्ड्रिया के साथ संबंध

वाराणसी,18 अगस्त (हि.स.)। मध्य भारत की सहारिया जनजाति में तपेदिक (टीबी) को लेकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू)सहित चार अन्य सहयोगी संस्थानों के शोधकर्ताओं ने आनुवंशिक शोध अध्ययन के बाद इसके कारण का खुलासा किया है। अध्ययन में जनजाति में तपेदिक (टीबी) की असामान्य रूप से उच्च दर से जुड़ी संभावित आनुवंशिक कड़ी सामने आई है। यह अध्ययन रिपोर्ट सोमवार को अंतरराष्ट्रीय जर्नल माइटोकोन्ड्रियान में प्रकाशित हुआ है।

शोध टीम के नेतृत्त्व कर्ता बीएचयू के जीन वैज्ञानिक प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे ने बताया कि मध्य प्रदेश में विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी) के रूप में मान्यता प्राप्त सहारिया जनजाति में टीबी की दर राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है, जो प्रति 1,00,000 व्यक्ति पर 1,518 से 3,294 तक दर्ज की गई है। इस अध्ययन ने अब तक के सबसे बड़े डेटासेट (729 व्यक्ति, जिसमें 140 सहारिया और 589 आसपास की जनजातियों तथा जातियों के लोग शामिल हैं) के माइटोकोन्ड्रियल जीनोम का विश्लेषण करके टीबी में योगदान देने वाले आनुवंशिक कारकों की पड़ताल की है।

—सहारिया जनजाति में दो दुर्लभ मातृ हैपलोग्रुप्स

प्रो. ज्ञानेश्वर चौबे के अनुसार सहारिया जनजाति के माइटोकोन्ड्रियल डेटा को आस पास के जातियों और जनजातियों के साथ मिलान करने पर पता चला कि सहारिया जनजाति में दो दुर्लभ मातृ हैपलोग्रुप्स (माइटोकोन्ड्रिया का प्रकार),एन5 और एक्स 2, मौजूद हैं, जो पड़ोसी जनजातीय और जातीय आबादी में पूरी तरह अनुपस्थित हैं। तत्पश्चात वैज्ञानिकों ने ये देखना चाहा की ये हैपलोग्रुप्स सहारिया जनजाति में पहुंचे कैसे। जिसके लिए फ़ाइलोंजेनेटिक और फ़ाइलोंजियोग्राफिक अध्ययन किया गया। ये अध्ययन विशेष रूप से किसी भी हैपलोग्रुप्स के माईग्रेशन के बारे मे बताते है। जिससे यह समझ में आया की प्रारंभिक लौह युग के दौरान पश्चिमी भारत से सहारिया मे जीन फ़्लो के द्वारा आए। जिसके कारण ही इस जनजाति की आनुवंशिक संरचना प्रभावित हुई। और संभवतः यही कारण था की इन अद्वितीय मातृ वंशों की मौजूदगी ने सहारिया की टीबी के प्रति संवेदनशीलता बढ़ा दी। इस अध्ययन ने पहली बार किसी भी पॉपुलेशन की आनुवांशिक संरचना और रोग के बीच परस्पर क्रिया के बारे मे बताया।

शोध की प्रथम लेखिका बीएचयू की देबश्रुति दास के अनुसार भारत दुनिया का सबसे बड़ा टीबी बोझ वहन करता है, और सहारिया जैसे कमजोर समुदायों में आनुवंशिक संवेदनशीलता को समझना मानव स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। हमारे शोध निष्कर्ष पब्लिक हेल्थ रणनीतियों में आनुवंशिक अनुसंधान को जोड़ने मे मदद करेंगे।

— यह परिणाम एक फाउंडर इफेक्ट की ओर कर रहे इशारा

शोध के सीनियर लेखक प्रोफेसर प्रशांत सुरवझाला ने बताया कि यह परिणाम एक फाउंडर इफेक्ट की ओर इशारा करते हैं, जहां ये दुर्लभ मातृ वंश सहारिया आबादी में केंद्रित हो गए, जो संभवतः उनकी टीबी के प्रति प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को प्रभावित करने लगे। उन्होंने कहा कि यह शोध माइटोकोन्ड्रिया के कार्यात्मक प्रभावों और कुपोषण तथा स्वास्थ्य सुविधाओं तक सीमित पहुंच जैसे पर्यावरणीय और सामाजिक आर्थिक कारकों के साथ उनकी परस्पर क्रिया का पता लगाने के लिए आगे के अध्ययनों के लिए मील का पत्थर है, जो सहारिया में टीबी की उच्च दर को और बढ़ाते हैं। शोध अध्ययन टीम में बीएचयू से देबश्रुति दास, प्रज्ज्वल प्रताप सिंह, शैलेश देसाई, राहुल कुमार मिश्र,फोरेंसिक लैब जबलपुर से डॉ पंकज श्रीवास्तव, कलकत्ता विश्वविद्यालय से डॉ राकेश तमाँग और जयपुर से प्रोफेसर प्रशांत सुरवाझला शामिल रहे।

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हिन्दुस्थान समाचार / श्रीधर त्रिपाठी